गुडबाय मॉम – रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

फिर एक दिन पापा घर आए। कडक वर्दी में अपने सीने पर लगे सैनिक वाले मैडल चमकाते हुए, बूटों को खटखटाते हुए घर नहीं आए। उस दिन उन्होने मुझे बाहों में लेकर खुद से ऊंचा नहीं उठाया।

आई थी तिरंगे में लिपटी हुई उनकी देह। लोग कहते थे वे मरे नहीं हैं। राष्ट्र के लिए शहीद हुए हैं। मगर मेरा बचपन भी तो उसी दिन मर गया था न माँ।

मॉम, जब तुम पर बहुत प्यार आता है जो मेरे मुंह से मां ही निकलता है। पापा के जाने के बाद तुम ने मेरे जीवन में उनका रिक्त स्थान भरने का कोई कम प्रयास तो नहीं किया था। दिन में सौ बार मेरी बलैयां लेकर सिसक उठतीं। मेरी पसंद के खिलौने लातीं। आइसक्रीम, चौकलेट और मिठाइयाँ लातीं।

फिर एक दिन हमारे आँगन में एक विषबेल अंकुरित हुई और रेंगते रेंगते ड्रॉइंग रूम से होती हुई बैड रूम तक फ़ैल गई। उसकी गंध से मुझे घुटन होती थी। उबकाई सी आने लगती। उसके कांटे मेरे शरीर को लहूलुहान कर जाते थे माँ।

फिर न जाने कब उस कंटकाकीर्ण विषबेल को तुम ने अंगीकार कर लिया या उसने तुम्हें भी अपने पाश में लपेट लिया था। अब मेरे बदन में जहरीले कांटे उस आँचल में भी चुभने लगे थे जिसकी छाँह में मेरी दुनिया का स्वर्ग था माँ। एक खट्टी सी महक आने लगी थी अब मुझे वहाँ। जैसे दूध सड़ जाता है। पवित्र पावन वंदनीय और पूजनीय माँ के लिए ऐसे शब्दों के प्रयोग के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ मगर मन के कच्चे मृतभाण्ड पर आज भी उस विषबेल के काँटों के जख्मों से रक्तस्त्राव होता है। एक गहरी टीस हृदय से उठकर मेरे पूरे व्यक्तित्व पर आच्छादित हो जाती है।

खैर छोड़ो। आज भावुकता के झंझावात में अचानक बचपन की उन यादों से पर्दा हट गया था। क्षमा प्रार्थी हूँ। आज के बाद उस दौर का जिक्र कभी नहीं करूंगा।

बस एक सवाल मन को हमेशा कचोटता रहेगा कि पापा के जाने के बाद आप के जीवन में आने वाले मिस्टर कपूर मुझ बालक से इतनी नफरत क्यूँ करते थे। मुझे तो ये भी पता नहीं कि आप की और कपूर साहब की शादी से पहले कब आप के बीच ये समझौता हुआ होगा कि उस नवगठित परिवार में मैं एड्जैस्ट नहीं हो पाऊँगा। इस लिए मुझे दादा जी के घर भेज दिया जाय।

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इसके लिए मुझ बालक की राय का तो कोई महत्व था ही नहीं किन्तु उस छद्म अनुबंध का अनुसरण करके, अनवरत आँसू बहाते हुए ही सही,आप ही तो मुझे दादा जी के घर छोड़कर आई थीं। आँसू … मेरे नहीं। आप के। आखिर आप माँ थीं और कलेजे के टुकड़े को खुद से जुदा करते हुए आप के दिल पर क्या गुजरी होगी,  इसका अहसास मुझे आज भी है। जीवन का ये क्रूर समझौता आप ने कितने अंगारों पर चलकर किया होगा और पाँव के वो छाले बरसों तक फूट फूट कर आप को असहनीय वेदना देते रहे होंगे, किन्तु तराजू पर दो स्थितियाँ

एक साथ तुल रही थीं। नया जीवन। नया परिवार या… या मैं। मैं भला इतना नीच और स्वार्थी कैसे हो सकता हूँ कि बचपन के एक टुकड़े पर आप की ममता की छाँह पाने के स्वार्थ में आप का पूरा जीवन मांग लूँ। जब पापा आप को जीवन के मध्य भंवर में छोड़कर चले गए थे तो आप की उम्र ही क्या थी और सामने था एक मरुथलीय विकराल अंतहीन सा लंबा पथ। आप जीवन में कभी ये मत सोचना कि आप के उस निर्णय पर मुझे तनिक सा भी रोष या ऐतराज है। आप का चयन सही और समयानुकूल था माँ।

शुरू में तो नई जमीन में जड़ें जमाने में मुझे भी बार बार लगता था कि दम घुट जाएगा। शाखें सूख जाएंगी। किन्तु धीरे धीरे मुझे दादा जी में पापा नजर आने लगे।

वैसे भी मेरे लिए पापा की रक्तरंजित देह देखने से तो कहीं सरल अहसास था आप से बिछोह।

पापा की तरह दादा भी आर्मी बैकग्राउंड से थे इसलिए उनके साथ मेरी खूब मस्ती से छनती थी। वे बच्चों में बच्चा बनना जानते थे। दादी मेरे खाने पीने और आप की तरह ममता की थपकी देकर सुलाने का प्रयास करतीं। माँ,  उन दोनों ने आप के रिक्त स्थान को भरने का प्रयास करने में तो कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु तुम्हारे आँचल की दूध में नहाई सी महक कभी दोबारा नसीब नहीं हो पायी।

मुझे हफ्ते भर रवीवार के उस दिन का इंतजार रहता जब तुम मुझ से मिलने आती थीं। मेरे लिए ढेर सारे चौकलेट और खिलौने लातीं। किन्तु जब तक तुम दादा जी के घर में रहतीं मैं अपनी झोली तुम्हारे लाये उपहारों से नहीं तुम्हारी ममता से भर लेना चाहता था।

शुरू के दिनों में जब तुम आतीं तो मुझे सीने से लगाकर बिलख उठती थीं। एक बिछोह का दर्द और शायद एक… एक अपराध बोध सा तुम्हारे चेहरे पर होता। उस पल तुम माँ होती थीं। खालिस माँ। धीरे धीरे तुम्हारे आने के समय का अंतर बढ़ता गया। अब तुम कभी पंद्रह दिन और कभी कभी महीनों में मुझ से मिलने आने लगीं थीं।

माँ, एकदम शुरू के कुछ महीनों को छोड़कर, दादा दादी के घर आने के बाद,  समय से कुछ पहले ही जीवन की तपिश में तपकर परिपक्व हो चुका मैं, कभी अपनी स्थिति से असंतुष्ट नहीं था। अपने दायरों से जल्दी ही समझौता कर लिया था मैंने। मगर कभी कभी स्कूल जाते समय बच्चों से लदी फंदी मेरी रिक्शा की बगल से मेरी छोटी बहन टीनू को स्कूल छोड़ने जाती तुम्हारी बीएमडब्ल्यू सर्र से गुजर जाती तो मेरे बाल मन में एक कुंठा सी पनप जाना सहज ही था ना माँ। पर वो बचपन था। अब नहीं। अब मुझे अपनी स्थिति का ठीक से एहसास हो गया है

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कि मैं कैलाश नगर की पौष कोठी में रहने वाला आभिजात्य बालक नहीं हूँ बल्कि शहर के पुराने काजीपुरा के मध्यम वर्गीय परिवार का वंशज हूँ। खाकी पेंट और सफेद कमीज पहनकर रिक्शे में जाने वाला सरकारी स्कूल का छात्र हूँ। अब मैंने अपने रास्ते चुन लिए हैं। समय ने मुझे समय से पहले ही मजबूत बना दिया है।

किन्तु… किन्तु तुम्हारे आगमन से मेरे शांत सरोवर से हृदय में लहरें सी उठने लगती हैं। मैं अपने बरसों से गढ़े गए व्यक्तित्व का पुनर्मूल्यांकन सा करने लगता हूँ। एक संक्रमण आ जाता है सोच में।

दादा के जाने के बाद हम दोनों यानी मैं और दादी और भी अधिक स्वावलंबी और स्वाभिमानी हो गए हैं या परिस्थितियों ने बना दिया है। जैसे सौना तप तपकर और भी निखर जाता है। इस किशोर वय में एक ‘घर’ के सारे पुरुषोचित दायित्वों को पूर्ण करने की क्षमता आ गई है मुझ में। बिजली का बिल भरना। सस्ते राशन की दुकान से क्यू में लगकर समान लाना और स्कूल। आखिर मेरी रगों में एक जुझारू,  कर्मठ और गौरवपूर्ण इतिहास वाले खानदान का रक्त बहता है। दादा की अब आधी पेंशन आती है जिस में हमारा काम चल जाता है।

अब मैं वो बात लिख रहा हूँ… ओफ़्फ़। अपनी माँ को ये लिखते हुए मेरे हाथ क्यूँ नहीं टूट गए। मेरी कलम ने लिखने से बगावत क्यूँ नहीं कर दी। किन्तु… किन्तु मुझे लगता है कि आज अपनी बात कहने से मैं भार मुक्त हो जाऊंगा। एक बहुत बड़ा बोझ मेरे ह्रदय से उतर जाएगा और शायद तुम भी स्वयं में बंधन मुक्ति का अनुभव करो। क्या पता ये मेरी बढ़ती उम्र और परिपक्वता के साथ बदलता दृष्टिकौण ही हो। किन्तु मुझे लगता है कि बदलते समय के साथ धीरे धीरे मेरी माँ पर मिसेज कपूर का व्यक्तित्व हावी होता गया है। तुम्हारे फैशन, चाल ढाल, बोलने का ढंग और…

और तुम्हारे शरीर पर महंगे आभूषण व लंबी गाड़ी ने मेरे और तुम्हारे बीच एक अदृश्य सी दीवार खड़ी कर दी थी। हर बार मुझे और दादी को पूरे मुहल्ले की अजीब अजीब सी शंकाओं का,  व्यंगों का और सवालों का जवाब देना पड़ता। वे एक माँ और बेटे के इस जीवन स्तर के अंतर को सवालिया निगाह से देखते है। मैं समझ सकता हूँ कि ये वर्गभेद तुम्हें भी असहज कर जाता होगा। कहीं न कहीं तुम्हारी भी तो आत्मा तुम्हें भीतर से कचोटती होगी। शायद इसी लिए तुम ने कई बार मुझे कुछ रुपये भी देने का प्रयास भी किया किन्तु स्वाभिमानी दादी ने सख्ती से इंकार कर दिया था। एक और बात भी है जिसे कहकर भारमुक्त होना चाहता हूँ। इंसान हूँ न माँ। हर बार एक अहसासे कमतरी… एक हीन भावना की कुंठा की हल्की सी परत मेरे दिल पर जम जाती है माँ।

अपने लिए भी और मेरे लिए भी असह्य कष्टकारक एक क्रूर शल्य आप ने तब किया था जब पाँच साल के बेटे को माँ से विलग कर दिया था। अब इतने बरसों बाद एक दूसरी सर्जरी करने का मैं आप से करबद्ध निवेदन कर रहा हूँ। जीवन में दोहरे मापदण्डों को झेलने वाली,  सर्कस के कलाकार जैसे रस्सी पर स्वयं को साधते रहने वाली थकान भरी दुरूह कवायद छोड़कर एक बंधनमुक्त जीवन जीने के लिए आप स्वतंत्र हों और फिर मैं भी अपनी जमीन पर अपनी जड़ें और मजबूती से जमा सकूँगा।

इसलिए आज आप से अनुरोध कर रहा हूँ कि “अब मत आना माँ।”

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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