शाम का वक्त था, सूरज अपनी लालिमा के साथ धीरे-धीरे ढल रहा था। गांव के उस पुराने रास्ते पर सन्नाटा पसरा था, जहां से कभी जीवन की हलचल बहा करती थी। उस रास्ते पर एक शख्स, रमेश, अपने कंधे पर बैग लटकाए, थके कदमों से घर की ओर बढ़ रहा था। शहर की चकाचौंध में 15 साल बिताने के बाद वह वापस गांव लौट रहा था, जहां उसकी जड़ें थीं, जहां उसका बचपन बीता था।
रमेश की आंखों में गांव की मिट्टी की खुशबू थी, जो शहर की ऊंची-ऊंची इमारतों और धूल भरे माहौल में कहीं खो गई थी। जब वह छोटा था, तब गांव में हर सुबह चिड़ियों की चहचहाहट और खेतों की हरियाली से दिन की शुरुआत होती थी। पर अब वह सोच रहा था, क्या गांव में अभी भी वही खुशबू बची है? क्या लोग उसे पहचान पाएंगे?
रमेश की मां, जो अब बूढ़ी हो चली थी, उसी पुराने कच्चे घर में उसका इंतजार कर रही थी। मां की आंखें हर शाम दरवाजे पर लगी होती थीं, मानो वह जानती हो कि एक दिन रमेश लौटेगा। उसकी मां की दुआएं शायद काम कर गई थीं, क्योंकि उस दिन रमेश सच में घर लौट रहा था।
गांव पहुंचते ही उसे एक अजीब सी शांति महसूस हुई, जैसे किसी ने उसे अपने आंचल में समेट लिया हो। चारों ओर खेत, जिनमें फसलें लहराती थीं, और हवा में गन्ने और सरसों की महक थी। वह गांव के पुराने मंदिर के पास से गुज़रा, जहां उसकी बचपन की यादें बसी थीं। तभी उसे पीछे से किसी ने आवाज़ दी, “अरे रमेश! तू यहां कैसे?”
वह मुड़ा तो देखा कि वही बचपन का दोस्त रघु, जो अब भी वैसा ही था, बस चेहरे पर कुछ झुर्रियां और बाल सफेद हो चुके थे। रघु ने उसे गले लगाया और दोनों की आंखें भर आईं। रघु ने कहा, “तू तो शहर जा बसा था, अब कैसे याद आई गांव की?”
रमेश ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “यादें छोड़कर नहीं जातीं रघु, बस वक्त लगता है उन्हें महसूस करने में। शहर में सब कुछ था, पर सुकून नहीं।”
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रघु ने उसे घर तक छोड़ने का जिम्मा लिया। रास्ते में गांव की गलियां देखते हुए रमेश को महसूस हुआ कि बहुत कुछ बदल गया है। जहां कभी मिट्टी के घर थे, वहां अब ईंट और सीमेंट की दीवारें खड़ी थीं। पर गांव की आत्मा अब भी वही थी। लोग उसे देख मुस्कुरा रहे थे, मानो वह कोई खोया हुआ सदस्य हो, जो अब लौट आया हो।
रमेश जब अपने घर पहुंचा तो मां दरवाजे पर खड़ी मिलीं। उनकी आंखों में आंसू थे, पर होंठों पर मुस्कान। मां ने बिना कुछ कहे रमेश को गले से लगा लिया। उस आलिंगन में न जाने कितनी शिकायतें, कितनी बातें छिपी हुई थीं। रमेश ने मां के झुर्रियों भरे चेहरे को देखा और उसे महसूस हुआ कि वक्त ने बहुत कुछ बदल दिया था, पर मां का स्नेह अब भी वैसा ही था, जैसे बचपन में था।
रात को खाने के बाद मां ने रमेश से कहा, “शहर में तुझे कौन सा सुख मिल गया था रे, जो तूने इतने साल गांव की ओर देखा ही नहीं?”
रमेश ने सिर झुकाकर कहा, “मां, सुख तो मिला, पर चैन नहीं। यहां के खेत, हवाएं, और तेरे हाथ का खाना—शहर में सब कुछ है, पर इन चीज़ों की कीमत पर नहीं।”
मां ने उसकी बातों को ध्यान से सुना और धीरे से कहा, “तू अब आ गया है, यही काफी है। यहां की मिट्टी में जो अपनापन है, वह तुझे हमेशा संभाल लेगा।”
रमेश की आंखों में आंसू आ गए। वह जानता था कि उसकी असली पहचान इसी गांव में थी, जहां वह आज वापस लौटा था। अब वह फिर से इस मिट्टी से जुड़ने के लिए तैयार था, जो उसकी जड़ों की ताकत थी। घर वापसी ने उसे न केवल उसकी मां से मिलाया, बल्कि उसकी आत्मा को भी एक नया सुकून दिया, जो शहर की भागदौड़ में कहीं खो गया था।
वह रात बहुत लंबी थी, लेकिन रमेश के लिए सुकून भरी। अपने गांव की हवा, मां का स्नेह, और बचपन की यादें उसे फिर से जिंदा महसूस करा रही थीं।
लेखिका : डॉ आरती द्विवेदी