घर वापसी – अयोध्याप्रसाद उपाध्याय : Moral Stories in Hindi

“इन दोनों ने नाकों दम कर दिया है। दुनिया क्या कहेगी? कहती रहे। मैं किसी से कुछ कहती हूं क्या? अपनी परेशानियों को तो मैं ही न जानती हूं।दूसरा क्या जाने? जीना हराम कर दिया है बूढ़े और बुढ़िया ने। एक वो हैं जो कुछ भी बोलते ही नहीं। मुझे ही देख लेना कह कर चले जाते हैं “—-प्रेमलता बोले जा रही थी।

प्रभा हरि से पूछ रही थी कि —-” क्या बहू हमलोगों से कुछ कह रही है?”

हरि ने कहा –” हमलोगों को तो उसने कुछ भी नहीं कहा था। किसी और को कुछ कहा होगा। वैसे उसकी आदत तो विचित्र है ही।देखती नहीं हो सौरभ को कुछ भी समझती है।जो मन में आता है बकती रहती है। वह चुपचाप सुनता रहता है। ऐसा भी होता है क्या?”

प्रभा ने कहा —” हमारा सौरभ तो देवता है देवता। वह बोलती और डांट-फटकार करती रहती है, वह चूं तक नहीं करता।

भगवान के घर से वह जो मांग कर आई है सौरभ के रूप में उसका पति मिला है।”

सौरभ और प्रेमलता को चार साल का एक लड़का है।उसका नाम अनुराग है। स्कूल में दाखिला लिया जा चुका है। पढ़ने में मन लगाता है। सुंदर और सुशील है। माता पिता के कारनामे को देखता है किन्तु अभी बालक ही तो है। लेकिन संस्कार तो ऐसे ही बनते हैं जो बाद में उभर कर सामने आया करते हैं। तब लोग अपने बच्चों को दोषी करार दिया करते हैं। वे सब कुछ भूल जाते हैं जिन्हें और लोगों के लिए  उन्होंने किया था।

खैर समय बड़ा बलवान होता है। उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। बात समझ में आये या नहीं, फिर उन्हें तो समय ही समझाये।

जब आफिस से सौरभ घर लौटा तो माहौल में कुछ बदलाव सा महसूस किया।

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अन्य दिनों की तरह प्रेमलता का व्यवहार नहीं था। चेहरे पर एक अजीब तनाव सा था। उसे समझते देर नहीं लगी। क्योंकि ऐसा तो प्रत्येक महीने में एक दो बार हो ही जाता है। यह संयोग की ही बात है कि इतना छोटा सा परिवार और उसमें भी रोज किच-किच। यह अत्यंत ही अशुभ और अशोभनीय व्यवहार जो दुखदायक है।

सौरभ के माता-पिता तो वृद्ध हो चले हैं। जितना बन पड़ता उतना वे दोनों तत्परता से पूरा किया करते इसके बावजूद वे तो वृद्ध हैं इससे तो इंकार नहीं किया जा सकता। तो भला यह सोचने वाली बात है कि उनके साथ बेटे बहू का व्यवहार कैसा होना चाहिए? यह तो किसी को समझाने की जरुरत ही नहीं है। एक इंसान होने के नाते स्वत: समझने की बात है।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सौरभ मानवाधिकार आयोग कार्यालय में कार्यरत है। अब उसको कौन समझाये कि अपने माता-पिता के साथ उनका और उनकी पत्नी का आचरण कैसा होना चाहिए?

आस-पास के पढ़े लिखे लोग कहते हैं कि सौरभ का हाथ बंधा हुआ है। चूंकि वह मानवाधिकार आयोग का एक कर्मचारी है। पत्नी को समझाने के अलावा और कुछ  कर भी नहीं सकता वैसे किसी को भी समझाने के अतिरिक्त अन्य कोई आपत्ति जनक काम करना भी नहीं चाहिए। जिसका नाजायज़ फायदा प्रेमलता जैसी महिलाएं उठा लिया करती हैं और समाज में गंदगी फैलाने का कारण बनती हैं।

प्रेमलता एक गृहिणी है। यद्यपि स्नातक कर चुकी है किन्तु उससे कुछ लेना देना नहीं है। घरेलू महिला बनना उसकी पसंद है जरुर लेकिन किसी अतिथि का आना-जाना तनिक भी नहीं। यदि कोई अतिथि चाय तक ही सीमित रह गया तो बात नहीं बिगड़ेगी लेकिन यदि उनके कोई रिश्तेदार रात्रि विश्राम के लिए हों तो एक बहुत बड़ी समस्या प्रेमलता के सामने खड़ी हो जाती है। कोई एक रात भर के लिए अतिथि आ गया तो मानो पहाड़ टूट गया। और सारी मुसीबतें सौरभ को ही झेलनी पड़ती है। बातें भी सुनते और घर का काम भी निपटाते। कभी कभी तो अतिथि के सामने ही उसे ऐसी फटकारती कि बेचारा अतिथि ही पानी पानी हो जाता। फिर भी सौरभ एक साधक की तरह अपनी साधना में लीन रहते हुए सभी कार्यों को निपटा दिया करता। वह मन ही मन सोचा करता कि क्या इसमें कोई बदलाव नहीं आयेगा?

क्या आजीवन प्रतिबंधित जीवन ही मुझे जीना होगा?

क्या ईश्वर ने मेरे लिए ही इसका निर्माण किया था?

क्या मैं इतना अभागा इस धरती पर पैदा हुआ हूं कि अपनी आंखों के सामने ही अपने माता-पिता को अपनी ही पत्नी द्वारा बेआबरु करते हुए देखा करुं। हे भगवान मुझमें इतना साहस दीजिए कि मैं इसका प्रतिरोध कर सकूं।जो कुछ भी होगा देखा जायेगा। ऐसी ही बातें सौरभ के मन को लगातार उद्वेलित कर रही थीं।

इधर प्रेमलता उन वृद्ध माता-पिता को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थी। जबकि हरि और प्रभा दोनों ही शांति प्रिय थे।जो कुछ भी मिल जाता उसे प्रेम पूर्वक खा पी लेते। किसी भी तरह से कोई शिकवा नहीं करते।

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हां उनमें एक दोष था तो वह यह कि वे एक गृहस्थ रहे थे। अच्छी खासी खेती थी। घर में कोई अभाव नहीं था। सब कुछ भरा हुआ था। लेकिन अब तो बुढ़ापा के कारण खेती बंदोबस्त कर दी गई है फिर भी साल में रुपये तो लाख डेढ़ लाख मिल ही जाते हैं। वे रुपये हरि जी अपनी एकमात्र बहू प्रेमलता के हाथों में दे दिया करते। इसके बावजूद उनके प्रति नफ़रत का भाव। उन वृद्धों से वह इस बात से चिढ़ती है कि वे लोग समय पर भोजन करना चाहते हैं और यह समय में बंधना नहीं चाहती। वह इच्छानुसार उनको  भोजन पानी देना चाहती है।इसी बात को लेकर कभी कभी बहसबाजी होने लगती है। प्रेमलता सच में कहा जाय तो वह थोड़ा सा भी व्यावहारिक होती तो ऐसी स्थिति ही पैदा नहीं होती। यह कोई बड़ी बात नहीं है।

लेकिन वह अनावश्यक ज़िद किये हुए है और आने वाले समय को कष्टमय बनाने पर तुली हुई है। अब बताइए भला इतनी सी छोटी बात को लेकर उनसे नाखुश रहने लगी है और उसकी नाराजगी इतनी बढ़ गई है कि वह उन्हें वृद्धाश्रम भेजने के लिए आमादा है।

अनुराग सब कुछ देखता सुनता है लेकिन कुछ कर नहीं सकता। उसे नहीं पता मां मेरे बाबा आजी के साथ ऐसा क्यों कर रही है? और इसमें मुझे क्या करना चाहिए? अभी बालबुद्धि होने मात्र से वास्तविक स्थिति से अवगत नहीं हो पाया है। उसकी समझ से बाहर की बात है किन्तु होने वाली घटनाओं को तो बहुत नज़दीक से देख ही रहा है।

प्रेमलता ने सौरभ से कहा —-” कहां हो? मेरी बातें सुनकर अनसुनी कर देते हो। कैसे घर चलेगा। मुझसे तो उन बूढ़ों के लिए कुछ भी नहीं होगा। मैं तो उन्हें देखना भी पसंद नहीं करती। मेरी आंखों से उन्हें ओझल हो जाने दो। “

सौरभ ने कहा —-” मैं इन्हें कहां ले जाऊं? तुम्हारा दिमाग कुछ गड़बड़ हो गया है क्या? ये मेरे माता-पिता हैं। इस नाते तुम्हारे भी हुए।

जैसे तुम्हारे माता-पिता मेरे माता-पिता हुए। फिर इनके लिए तुम्हारे मन में इतना आक्रोश वह भी बेमतलब का। क्या कभी तुमने ठंडे मन से कोई विचार किया है कि मैं इन लोगों के लिए क्या और क्यों ऐसा सोच रही हूं। राम राम यह अत्यंत ही घृणित कर्म करने की ओर बढ़ रही हो। इस पर फिर से सोचो। यह तुम्हारी सोच तुम्हें पागलपन की ओर ले जा रही है। लोग सुनकर तुम पर थू थू करेंगे।

यहां तक कि तुम्हारे ही माता पिता तुमको धिक्कारने लगेंगे। इतना ही नहीं तुम्हारी दो दो बहनें हैं,जरा उनसे भी तो पूछ लो वे अपने सास-ससुर के साथ किस तरह का व्यवहार करती हैं?”

प्रेमलता ने रोश भरे शब्दों में कहा —-” मुझे किसी से कुछ भी नहीं पूछना है। यह मेरी समस्या है। इसका समाधान मैं अपने ढंग से करुंगी। मेरे पास एक ही विकल्प है। इन बूढ़ों को यहां से जहां मन हो वहां ले जाइये। लेकिन मैं कभी भी इनके साथ नहीं रह सकती। और न तो इनके लिए कुछ कर ही सकती ।”

सौरभ ने उसे भरपूर समझाने की कोशिश की किंतु वह भी मानने के लिए तब तक तैयार नहीं थी जब तक उन्हें वृद्धाश्रम भेज नहीं दिया जाता। और सौरभ किसी भी सूरत में अपने माता-पिता को भेजने के लिए तैयार नहीं था। सौरभ कम बोलता था लेकिन दुनियादारी से वाकिफ तो था। वह हंसी और मजाक का पात्र नहीं बनना चाहता। जिस माता-पिता ने उसे जन्म दिया, पालन पोषण किया, पढ़ाया लिखाया, नौकरी दिलवायी, शादी विवाह किया उन्हें किस बेशर्मी और ढिठाई से उन्हें मौत के मुंह में झोंक दें। नहीं, नहीं ऐसा मैं हरगिज नहीं कर सकता।

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सौरभ ने कहा —” एक उपाय है जिससे तुमको राहत मिल सकती है, वह यह कि तुम्हारे लिए एक अलग आवासीय व्यवस्था कर देता हूं या फिर चाहो तो मायके में रहने के लिए स्वतंत्र हो। तीन दिनों में इसका जवाब चाहिए।”

तीन दिनों के बाद प्रेमलता ने कहा —-” मैंने अपनी मां से बातें कर ली है। मायके ही में रहना पसंद करुंगी। “

सौरभ ने कहा —” जैसी तुम्हारी मर्ज़ी। मुझे कोई एतराज़ नहीं है। लेकिन अनुराग तो मेरे ही पास रहेगा क्योंकि इसे विद्यालय जाना है, पढ़ना लिखना है। वहां पर वैसी कोई सुविधा नहीं है।”

” ठीक है, वह यहां रह कर पढ़ाई पूरी करेगा। जब मैं चाहूंगी इससे मिलने चली आऊंगी।”

मायके जाने के लिए उसने अपना सारा सामान बांध लिया।कल सुबह उसे जाना है। एक भाड़े की गाड़ी दो हजार रुपये में ठीक हो गयी है। रात में अनुराग मां के पास ही सोया हुआ था। दोनों के बीच जो वार्तालाप

हुआ उसका निष्कर्ष यह निकला कि मां तुम वहीं रहना अब यहां आने की जरुरत नहीं है। बाबा आजी को समय से भोजन पानी हमलोग दे दिया करेंगे और उनसे बातचीत भी करते रहेंगे। इस बात से तो मानो प्रेमलता के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई हो।

कुछ देर तक  सोचने के लिए मजबूर तो जरुर हुई किन्तु अपनी ज़िद से पीछे नहीं हटी।

सुबह आठ बजे करीब वह मायके चली गई। वहां वह बहुत ही अच्छा महसूस करने लगी थी। कोई तनाव नहीं था। वहां तो सिर्फ अपने माता-पिता ही थे कोई और नहीं। बहनों से मिलना जुलना था। समय बीतता गया। वहां उसे रहते हुए दो साल हो गये थे। तीसरा साल में अब प्रवेश किया जाना था। वह अनुराग से बातचीत करना चाहती थी लेकिन उसने मना कर दिया था। बाबा आजी मां के साथ घुल-मिल गया था। कहीं से आता तो उनके पास चला जाता और उनसे बातें करता तथा उनके लिए जरुरी चीजें मुहैया कर दिया करता।सब के प्रसन्न थे। सौरभ जो सर्वदा चिंतित रहा करता था अब वह चैन की सांस लेने लगा है। दिन-रात तनावपूर्ण स्थिति में होने के कारण उसका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। भगवान की बड़ी कृपा हुई कि उन्होंने एक ऐसा रास्ता निकाल दिया जिससे सबको एक ही साथ राहत मिल गई।

मायके में रहते हुए प्रेमलता को तीन साल होने वाले थे। इतने ही दिनों में उसके तेरह कर्म हो गये। वह हंसी की पात्र बन चुकी थी। बहनें भी उसे नापसंद करने लगी थीं।

माता पिता की नजरों में भी हल्की-हल्की प्रतीत होने लगी थी। आस-पड़ोस की उसकी सहेलियां भी उसे कोसने लगी थीं। जिसने भी उसकी ऐसी बातें सुनीं सबने उसकी निंदा ही की।

अब वह स्वयं को अपमानित महसूस करने लगी थी। अब बहुत दिनों तक उसे वहां रह पाना संभव नहीं था। वह बेहद बेचैन रहने लगी। अब करे तो क्या करे?

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एक दिन सौरभ के पास खबर भेजवाई कि आप से बहुत आवश्यक काम है। कुछ पल के लिए मुझसे मिलने आ जायें। इधर सौरभ सोचने लगा आखिर कौन-सी बात हो गई जिससे वह मुझसे मिलना चाहती है। क्या करुं जाऊं या नहीं जाऊं? अच्छा, आखिर तो मेरी पत्नी ही तो है। उसकी सुनना मेरा फ़र्ज़ बनता है। सौरभ उससे मिलने चले गये। दोस्तों दोनों के बीच जो संवाद हुआ वह यह कि —” मैं आपकी पत्नी हूं।आपके माता-पिता मेरे भी माता-पिता हैं। मेरी नासमझी के कारण मुझसे जो गलती हुई है उसके लिए आप से माफी तो मांगती ही हूं साथ ही उनसे भी। मैं निवेदन करती हूं कि आप मुझे अब अपने घर ले चलिये।अपना घर तो अपना ही होता है।”

सौरभ ने कहा —” ठीक है,जब तुम अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगती हो। और मेरे माता-पिता की सेवा करने के लिए तैयार हो गई हो तो कल मैं गाड़ी लेकर आऊंगा और तुम्हें सम्मान पूर्वक अपने साथ तुम्हारी घर वापसी करवा दूंगा।”

सौरभ गाड़ी लेकर पहुंचे ही थे कि जलपान के लिए तैयारी तो थी ही। जलपान हुआ और थोड़ी ही देर में माता पिता के आशीर्वाद लेकर अपने घर के लिए चल पड़ी। जब आ गई तो सबसे पहले माता पिता के पैर छुए और पुनः ऐसी गलतियां नहीं करने की शपथ खाई। अनुराग को गले लगाया।और सभी एक साथ मिलकर कर सुख से रहने लगे। घर वापसी का मजा कुछ और ही होता है जिसे प्रेमलता बखूबी जानती है।

अयोध्याप्रसाद उपाध्याय,आरा

मौलिक एवं अप्रकाशित।

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