घर वापसी – अमिता कुचया : Moral Stories in Hindi

आज सुनंदा जी बडी़ ही खुश थी कि उनका बड़ा बेटा लेने आ रहा था। वह अपनी पैकिंग ऐसे कर रही थी जैसे हमेशा के लिए जा रही हो, हमेशा वही रहना हो , हो भी क्यों न खुश ….आखिर बड़ा बेटा कितने समय से बुला रहा था। कि आप हमारे साथ क्यों नहीं रहती मां …तब वो कहती -हां बेटा तेरे साथ मैं जरूर रहूंगी, पर तेरे पापा भी चले तब तो चलूं ,नहीं तो तेरे पापा अकेले रह जाएंगे। 

तब शशांक कहता – ” पता नहीं पापा को मेरे पास क्या परेशानी है,उनसे अपने घर छोड़ा ही नहीं जाता, पापा को कह दो वो भैया के पास चले जाए और तब आप मेरे पास आ जाओ। इतनी बात सुनकर सुनंदा जी मोहन जी को मनाकर कहती है -देखो जी शशांक कब से बुला रहा, हमें अपने बेटे के घर ही तो जाना है मैं कौन सा कोई और रिश्तेदार के घर जाने को बोल रही हूं।

 तब मोहन जी सुनंदा जी को समझाते है, बड़े बेटे का रहन सहन सब अलग है, और बड़ी बहू अंकिता नौकरी करती है । उसके रहन सहन और खान पान सब के तरीके हम लोग से अलग है, वो जब यहाँ आती है तो कैसे मेहमान जैसे रहती है, ये क्या तुम्हें नहीं मालूम!उसे यहाँ कभी

अपनापन महसूस ही नहीं हुआ, क्या तुम वहां रह पाओगी ?तब सुनंदा जी कहती है- “अजी मेरा जब तक मन लगेगा ,तब तक रह लूंगी।क्या बहू की वजह से अपने बेटे को मना कर दूं! ये क्या अच्छा लगता है? मैं तो बस अपने शशांक के प्यार की वजह से उसके पास जाना चाहती हूं।आपकी सेवा छोटी बहू नियति तो अच्छे करती है न ,आप कुछ दिन वही रह लो। ” 

 वो निशांक के पास चले जाते हैं। निशांक बिजनेस करता है। दोनों भाइयों की गृहस्थी अच्छे से चले तो सुनंदा और मोहन जी ने एक मकान अलग से निशांक को दे दिया है। और शशांक एक बडी़ कंपनी में नौकरी करता है। इस तरह दोनों बेटे सुखी है। 

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सुनंदा जी ने अपने दोनों बच्चों को बडे़ नाजों से पाला है वो बच्चों की बचपन से लेकर बडे़ तक हर ख्वाहिश पूरा करती आई है। अब वे बडे़ बेटे शशांक की मनुहार के कारण उसके घर पहुँच जाती है। बेटे बहू पोती के साथ खुश रहती है। बेटा भी रोज शाम को अपनी मां के साथ समय बिताता है, रोज लौटते

हुए कुछ न कुछ मां की पसंद का सामान लाता है। और अंकिता बहू की काफी कम बोलने की आदत रहती है। वह हर काम अपने हिसाब से करती है। क्योंकि उसे नौकरी पर जाना होता है ,वह घरेलू महिला तो नहीं है, वह अपने फिक्स समय के अनुसार सब मैनेज करती है। सुबह नौ बजे ऐसा लगता है ,जैसे घर में स्टेशन जैसी आपाधापी मची हो। काफी जल्दबाजी शशांक अंकिता और पोती को रहती।

इस तरह अंकिता को सुबह बेटी नायरा को स्कूल भेजना , साथ ही खुद का और शशांक का टिफिन पैक करके निकलना उसके प्रतिदिन की दिनचर्या थी। अब सुनंदा को आज दो दिन ही हुए थे, और वो बोर सी होने लगी थी। दस बजते ही घर काटने को दौड़ता….उससे दिनभर कोई बोलने बताने वाला कोई नहीं रहता था।

दिन भर पेड़ पौधों को निहारती , बालकनी से सड़क पर आते जाते लोगों को देखती, जब काम वाली आती उसी से बात करती वो भी राकेट जैसे फटाफट काम करती और निकल जाती, क्योंकि उसे भी दूसरे घरों के काम निपटाने होते थे। 

शशांक के घर में शाम को ही चहलपहल होती ,पोती भी स्कूल से लौट कर कोचिंग से भी आ जाती थी। 

रोज रात को खाने में ताजा खाना तो बनता ही नहीं था। पहले से तैयार सब्जी गरम हो जाती, पहले के गुथें आटे से रोटी बन जाती खैर…..

 वो तीन चार दिन देखती रही पर उससे देखा नहीं गया, तब सुनंदा जी ने कहा – शशांक बेटा मैं इतने दिन से देख रही हूं कि फ्रिज में रखा खाना ही परोसा जाता है। रोज ताजा खाना अंकिता नहीं बनाती है,दो दिन तक सब्जी चला लेती है,ये तुम लोग के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। अब मैं यहाँ हूं तो अंकिता की मदद कर दिया करुंगी। ये ठीक रहेगा ना आखिर मैं बोर हो जाती हूं। 

तब अंकिता कुछ नहीं कहती है। शशांक कहता – ” ठीक है मां, जैसा ठीक लगे वैसा करो। अब अगले दिन जब सुनंदा जी का व्रत रहता है तो फ्रिज खोलती है और देखती है कि व्रत के हिसाब कुछ मिले तो बना लूं न तो खोआ रहता है न ही ताजे फल समझ आते है,लेकिन फ्रिज तो पैकिंग फूड से भरा है, कहीं मैयोनीज ,कहीं चीज, कहीं तरह –तरह के सॉस , ब्रेड जैसी अनेक चीजे होती है।

फिर फ्रिज से पैकिंग फूड की एक्सपायरी डेट देखकर पैकेट वे सब अलग करती है,पहले कि सब्जी और आटा भी अलग कर देती है, और किचन में उन्होंने साबुदाना या राजगीर का आटा बहुत ढूंढा पर नहीं मिला , पर उन्हें नहीं मिलता है। 

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इस तरह फिर उन्होंने अपना घर समझकर जो उन्हें समझ आया तो किचन भी जमा दिया। और सुनंदा जी ने फ्रिज के उन्हीं फल को धोकरअपने लिए फल काट कर खाए। उन्हें फलाहार बनाने का सामान तो नहीं मिला पर किचन का सामान उन्होंने अपनी सुविधानुसार जरुर जमा लिया। 

अब अंकिता आफिस से लौटकर आती है, वह फ्रिज से पानी निकालती है तो फ्रिज काफी खाली सा दिखता है,पर वो कुछ बोल न पाती है। अब खाने का समय होता है तो वह फ्रिज को दो तीन बार खोलकर देखती है, न तो मटर पनीर की सब्जी मिलती है न गुंथा हुआ आटा….. फिर भी वह कुछ नहीं पूछती है, तब सुनंदा जी से रहा नहीं जाता,,वो पूछ लेती अंकिता फ्रिज में कुछ ढूंढ रही हो क्या? तब वो कहती – ” हां मां जी फ्रिज में गुथा आटा और सब्जी रखी वो नहीं दिख रही है…. “

तब सुनंदा जी कहती- ” सब्जी से गंध आ रही थी। आटा भी खींचा- खींचा सा लगने लगा था। तो मैनें उसे हटा दिया,आज मैंने फ्रिज की सफाई की, जो बेकार सामान था, वो भी अलग कर दिया,तब भी अंकिता कुछ न बोली, वो किचन में कुछ भी ढूंढे तो उसे न मिले।  

इस तरह तो वो परेशान हो चुकी थी। क्योंकि सुनंदा जी ने अपनी सहुलियत के हिसाब से सामान की अदलाबदली कर दी थी। इस कारण अंकिता को किचन का काम करने में काफी समय लग गया। 

वो देर से कमरे में सोने गयी। तब शशांक ने पूछा -“अरे अंकिता काफी देर लग गयी? किचन से रोज तो जल्दी फ्री हो जाती हो। ” तब वो शिकायती लहजे में कहती है – माँ जी ने आज किचन की काया पलट कर दी न……. इसलिए देर हुई है। उसकी आवाज में उलाहना व्यक्त हो रही थी। तब सुनंदा जी को शशांक के कमरे से आवाज आ रही थी। तब वो समझ गयी। मेरा रहना और अपने बेटे के घर को अपना समझना अंकिता को रास न आ रहा है। 

 समय रहते बिना शिकायत किए वो एक फैसला लेती है। 

रात में बिना कुछ कहे अपना सामान पैक करती है। अगले दिन वो सुबह नहा धोकर तैयार होती है और शशांक से कहती -बेटा मेरे लिए टिकट कर दो, अब मैनें तुम्हारी बात रख ली ,यही मेरे लिए बहुत है। तब अंकिता समझ जाती है उसे लगता है कि मां ने हम लोग की बात सुन ली है।तब उसे एहसास होता है

तो वह कहती- मम्मी मुझे सुबह जल्दी निकलना होता है, और शाम को थकी रहती हूं।इस कारण अपनी सुविधानुसार काम करती हूं। तब वो कहती- ठीक है बहू तुम्हें जैसे रहना रहो, मैं आखिर कब तक रहूंगी ? 

तब शशांक कहता – मां कुछ दिन और रहो ना …तब वो कहती-” नहीं बेटा मुझे जितना रहना था, रह लिया अब मुझे जाने दे, मैं दिनभर बोर होती थी इसलिए सोचा घर के कामों हाथ बंटा दिया करु पर अंकिता को कल काफी परेशानी हुई। मैं नहीं चाहती कि तुम्हारी गृहस्थी में कोई क्लेश हो ,मैं तुम्हारे प्यार में भूल गयी कि बहू को मेरी वजह से परेशानी होगी। बस मैं यही चाहती हूं कि तू हमेशा खुश रहे ,इससे ज्यादा एक मां को और क्या चाहिए। “

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तब अंकिता कहती – मां आपका आना हम सबको बहुत अच्छा लगा। पर मैं समय की कमी के कारण ही पैकिंग फूड मंगवाती हूं। मैं कोशिश करुंगी कि ताजा खाना बनाऊं ,पर क्या करु मेरी मजबूरी है। तब सुनंदा जी कहती -बहू तुम समझदार हो , पर मेरी दखलंदाजी तुम्हें पसंद नहीं आई। मैं ये समझती हूं।ये मेरी गृहस्थी नहीं है, इसे मैं अपना मान बैठी, अब मुझे अपनी गृहस्थी देखनी है मेरी घर वापसी भी जरूरी है।मुझे जाना ही होगा। 

अब वो घर वापसी करते ही मोहन जी को फोन करके कहती- ” अजी मेरी घर वापसी हो गई है आप भी घर आ जाओ। “

तब उसकी आवाज सुनकर ही मोहन जी समझ जाते हैं कि जरूर कुछ हुआ है। तभी तो सुनंदा जी एक सप्ताह में ही लौट आई। 

मोहन जी के लौटते ही डबडबाई आंखों से उनकी ओर देखती है….अजी आप सही कहते थे मेरा मन नहीं लगेगा। वाकई अपना घर अपना ही होता है। और मेरी घर वापसी हो गई। आज एहसास हुआ बेटे का घर बहू के हिसाब से चलता है। आज मुझे यहाँ आकर लग रहा है , मैं अपने घर में अपने हिसाब से रह सकती हूं। वहां न कोई बोलने बताने वाला, न कोई पास बैठने वाला, शशांक के घर में सुकून नहीं है, जो अपने घर में है। 

तब मोहन जी कहते है देखो सुनंदा जैसे बेटी की विदाई के बाद हम उसके जीवन में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं कर सकते, वैसे ही ही बेटों के लिए भी सोचों, उनकी अलग गृहस्थी है। उन्हें उनके हिसाब से चलने देते हैं। आज यदि हमारे साथ रह होते तो वे हमारे ढांचे में ढलते। तब वो भी बोली

– अजी आप बिलकुल सही कह रहे हो। हमें भी दखलंदाजी नहीं करना चाहिए। हमारे प्रति बच्चों का सम्मान बना रहे इससे ज्यादा और हमें क्या चाहिए। इस तरह सुनंदा जी मोहन जी के साथ अपनी घर वापसी से खुश थी। आज उन्हें अपने घर में सुकून जो मिल रहा था। 

स्वरचित रचना 

अमिता कुचया

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