” पिताजी…..!”
आपने छोटे चाचा को शादी में नहीं बुलाया! कहीं भूल तो नहीं गये! शादी के लिस्ट में सबका नाम है सिर्फ उन्हीं का नहीं है….?
पिताजी की तीखी आवाज आई ….”.हाँ नहीं…. बुलाया….. और उसे भूला भी नहीं!”
“अब जाओ जो काम दिया गया है संभालो समझ गये न! काम बहुत पड़ा है और समय बहुत कम है। सब हमें अकेले ही संभालना है। हम किसको बुलाएंगे और किसको नहीं यह हमारा काम है। “
पता नहीं पिताजी को क्या हो जाता है छोटे चाचा का नाम सुनते ही इतना गुस्से में क्यों आ जाते हैं। कुछ बताते भी नहीं हैं….. अमित मन ही मन बड़बड़ाते हुए कमरे से बाहर निकल गया।
इधर अमित के जाते ही शेखर जी को लगा जैसे किसी ने उनकी दुखती रग को छू लिया हो। एकदम से विचलित हो गए…जिस घाव के टीस को वह वक़्त के मलहम से भरना चाहते हैं उसको कोई न कोई …कभी न कभी अनचाहे और कभी-कभी जानबूझकर कुरेद ही जाता है।
शेखर जी भाई -बहनों में बड़े थे सो उन्हें सबकी सुध रहती थी।अम्मा बाबुजी का हर शब्द उनके लिए आदेश था। कभी भी उन्होंने उनके आदेश में क्यूँ और कैसे शब्द का प्रयोग नहीं किया और दूसरा माँ -बाबुजी ने ऐसा संस्कार दिया था की उन्होंने सारे विष को महादेव की तरह आँख मूंदकर गटक लिया वर्ना….. !!
आज भी उनके कान में रह -रहकर छोटे भाई की पत्नी की विषैली आवाज गूंजती है…..-” देखिये भैय्या आप बुरा नहीं मानियेगा आपके भाई तो भोले बाबा हैं वह तो कुछ कहेंगे नहीं….सिर्फ मुझे सुनाएंगे। बहुत हो गया आपलोग अपना बोरिया- बिस्तर समेट लीजिए । अब आपके करने लायक यहां कुछ भी नहीं रक्खा है। अम्मा बाबुजी के सेवा के नाम पर ही थे ना आपलोग ! तो अब तो वे रहे नहीं!
वो ज़माना गया जब एक ही जगह पूरा खानदान बसता था। इतने बड़े शहर में कितने दिनों तक हमारे पति आपका और आपके परिवार का पेट भरेंगे। “एक की कमाई और दस मिलकर खाई “यह रिवाज कब तक चलता रहेगा। होगा आपका भाई बेवकूफ़ पर मैं नहीं हूँ….. ।”
बहू के अचानक शब्द भेदी वाण के प्रहार से शेखर जी छलनी हो गए । मन व्याकुल हो गया था उन्होंने पलटकर पत्नी को देखा जो सिंक में बर्तन साफ कर रही थी। बेचारी सुबह से ही उठकर सबकी चाकरी में लग जाती थी।
शीला जी को देवरानी की फुंकार सुना नहीं गया तो उन्होंने बीच में टोका-” छोटी, तुम क्या क्या बोले जा रही हो….होश में तो हो ना। “
उसने हाथ नचाते हुए कहा-” मैं होश में ही हूं दीदी हाँ….हाँ पहले जरूर बेहोश थी जो आपलोगों की नीयत नहीं भांप सकी ।”
शेखर जी की भृकुटी तन गई छोटे भाई की गैर मौजूदगी में उसकी पत्नी क्या अनाप-शनाप की बातें बोल रही है। उन्होंने कहा-” बहू क्या बात है छोटे ने कुछ कहा है क्या? “
“अरे ! वो अपने मूंह से क्या कहेंगे भला ….. लाज बचा रहे हैं अपने संस्कारों का।उन्होंने मुझसे कहने को कहा है।”
शीला जी ने जोर देकर कहा-” मैं नहीं मान सकती की छोटे बाबु ने ऐसा कहा होगा। “
हाँ- हाँ आप तो नहीं ही मानेंगी दरअसल आपलोगों के कलेजे पर साँप लोटता है मेरे पति की कमाई देखकर। जबतक अम्मा बाबुजी थे तब तक मैंने नहीं बोला लेकिन अब मैं चुप नहीं रहूंगी। सास -ससुर के बहाने आपने खूब अपनी रोटी सेंक ली मेरे पति के कमाई पर। “
“चुप करो बहू….. तुम्हारे विचारों को आज क्या हो गया है। कितने घटिया इल्जाम लगा रही हो?”
मेरे संस्कारों पर मत जाइए दीदी ! आप लोगों से अच्छे हैं। मेरे पति मुझे नासमझी का हवाला देकर अभी नहीं ,अभी- नहीं कह तीन वर्षों तक माँ बनने से रोकते रहे जिसका खूब फायदा उठाया आपने मेरे बच्चों का अधिकार छीन कर अपने बच्चों को पालपोस कर बड़ा कर लिया।
शीला जी देवरानी की बातों से आहत होकर रोने लगीं उनकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। वह बोलीं -“छोटी चुप करो भगवान के लिए…..” बच्चे पल गये यहां….क्या यहां नहीं आते तो मेरे बच्चे भूखे मर जाते…..!”
वह अपने आँचल से आँखों को पोछते हुए बोली -” शायद तुम्हें पता नहीं है हमें अम्मा बाबुजी ने गांव से जबरदस्ती बुलाया था अपने देख भाल के लिए….. उनको देखने वाला कोई नहीं था। उस समय तो तुमने अपने मायके में ही अपना डेरा जमा लिया था। बीमार अम्मा- बाबुजी को कोई पानी देने वाला नहीं था…. वर्ना हम क्यों तुम्हारे गृहस्थी में खलल डालने के भागी बनते।”
देवरानी अपने होठों पर कुटिल हसीं लाते हुए बोली -“वो बात नहीं है दीदी …. आपको तो कोठी में सेंध लगाने की आदत है सो अच्छा मौका मिल गया ।”
इतना सुनना था कि बुखार में पड़े शेखर जी अपने बिछावन से उठकर खड़े हो गए। आवाज देकर पत्नी को अंदर बुलाया और समान बांधने के लिए कहा।
पत्नी कुछ बोलने को हुई तभी उन्होंने मूंह पर उँगली रख कर उसे चुप करा दिया । अब न तो कुछ कहने लायक था और न सुनने लायक। पानी सर से ऊपर जा चुका था। उनलोगों ने छोटे भाई के आने की भी प्रतीक्षा नहीं की और सामान बांधने लगे। बच्चों के स्कूल से आते ही निकलने की तैयारी होने लगी।
उनके पास सामान के नाम पर क्या था एक बेंत की डोलची और एक टीन का बक्सा यही तो लेकर आये थे गांव से। एक दो बड़े अटैची छोटे ने भाभी के लिए खरीदे थे जिन्हें उसने छुना भी मुनासिब नहीं समझा।
शेखर जी पत्नी के साथ निकलने से पहले अम्मा बाबुजी की तस्वीर को प्रणाम करने गए …. अंदर से आवाज आई -“दीदी, फोटो ले जाने का तो सोचना भी मत बहुत पैसे लगे हैं उसे बनवाने में…..!”
शीला जी ने देखा देवरानी के व्यंग्य भरी शब्दों से आहत शेखर जी की आंखें क्षोभ से भर गईं । तस्वीरों पर टप- टप आंसु के कुछ बूंद गिरे जो शायद अम्मा बाबुजी के लिए श्रध्दांजलि के फुल बन गए थे । आंखें पोंछ उन्होंने पत्नी और बच्चों को लेकर वापस गांव के लिए चल पड़े ।
गांव आने के बाद उन्होंने पत्नी से आग्रह किया कि वह इस घटना की चर्चा किसी से भी ना करे। शीला जी ने तो ससुराल में पैर रखते ही पति और उनके परिवार की प्रतिष्ठा हमेशा सम्भाल कर रखने का प्रण लिया था। उसने सिर झुकाकर हामी भरी।
शेखर जी ने अपने- पराये से ब्याज पर कुछ पैसे उधार लिये और खेती करना शुरू किया। साल -दर -साल बीते मेहनत ने अपना रंग दिखाया। गांव की खेतों ने सोना उगलना शुरू कर दिया। पूरा घर- खलिहान धन- धान्य से भर गया।
उनके बच्चे गांव के ही स्कूलों में पढ़ने लगे। अपने कर्मों और बड़ो के आशीर्वाद से सभी बच्चे पढ़ाई में अव्वल थे। सबसे पहले बड़े बेटे ने अपनी मेहनत से बैंक में मैनेजर की नौकरी पाई । दोनों बेटियां भी कम नहीं थीं एक ने पीसीएस निकाला तो दूसरी ने खेल में कई रेकार्ड तोड़ा। छोटा बेटा दसवीं में था जो सबसे बुद्धि मान और पढ़ाई में तेज था ।
कभी न कभी सभी बच्चों ने माँ से पूछा था कि छोटे चाचा- चाची गांव क्यूँ नहीं आते। उन्हें शीला जी ने यही बताया था कि उनलोगों को गांव पसंद नहीं है इसलिए वो नहीं आते हैं। कोई बड़ा प्रयोजन होगा तो पिताजी बुलाएंगे तब वो अवश्य आयेंगे।
बच्चे अपने चाचा चाची और उनके बच्चों से मिलने के लिए बेचैन रहते थे। बेचैनी का कारण यह भी था कि उनलोगों को बचपन से ही शीला जी चाचा की काबिलियत सुनाकर उन्हीं की तरह जिंदगी में ऊंचे मुकाम हासिल करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं ।
उनकी महानता थी कि बीते इन सालों में कभी भी उन्होंने बच्चों को अपने पिता के कलयुगी भाई और उनकी पत्नी के नफरत का किस्सा नहीं सुनाया।
बाबु साहब….ओ बाबु ….हलवाई को कितने दिनों के लिए रख लूँ-” अरे बबुआ कौन सोच में परल हो!”
काका की आवाज पर शेखर जी की तन्द्रा टूटी। उन्होंने अपने आप को संभालते हुए कहा-” हाँ बोलिये काका कुछ कहा आपने…..!”
“बेटा सब चिंता छोड़कर ब्याह की तैयारी में लग जाओ। सब ठीक होगा ….. भाई की फिक्र में लगे हो ना वह भी आएगा देख लेना ।”
शेखर जी ने अनमने से अपना सिर हिला दिया और हलवाई को देखने चल पड़े ।
देखते ही देखते शादी के दिन भी करीब आ गए। सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थी। आने वाले सभी मेहमान लगभग आ चुके थे। फिर भी घर सूना लग रहा था। गांव घर की जितनी बड़ी बुजुर्ग महिलाएं शादी की रस्म में आ रही थीं वो एक बार अवश्य ही पूछती थीं कि-” बेटा छोटका बबुआ क्यों नहीं आया। बहुत दिन हो गया उसको देखा नहीं। खबर तो गया ही होगा न!”
तब शीला जी पति की ओर देखने लगतीं उनकी आँखों में देवर देवरानी को शादी में बुला लेने के लिए आग्रह के भाव होते थे। परंतु शेखर जी ने अपने मन कोअटल कर लिया था कि वे कभी नहीं बुलाएंगे अपने छोटे भाई को जिसने अपनी मर्यादा भूलकर उन्हें जलील कर अपने घर से निकाला था।
सुबह से ही शाम में होने वाले तिलक की तैयारियाँ हो रही थीं। आँगन में आसपास की महिलाओं के साथ शीला जी मंगल गीत के साथ हल्दी कुटने की रस्म कर रही थी। एक गीत खत्म होने पर उन्होंने उनसे दूसरे मंगल गीत गाने के लिए कहा। तभी गांव की बुढ़ी काकी ने पीछे मुड़कर देखा और बोली ” अरे वाह! अब सारे मंगल गीत छोटकी दुल्हन गायेगी। “
शीला जी के कानों पर विश्वास नहीं हुआ उन्होंने पलटकर देखा तो देवरानी दो छोटे बच्चों के साथ आँगन में खड़ी थी। उन्हें देखते ही वह आँखों में आंसू लिए उनके करीब आ गई और बोली …..-” दीदी….. दीदी कह कर पैर पड़ने को झुक गई। अनायास ही शीला जी के हृदय में ममता उमड़ पड़ी उन्होंने देवरानी को अपने पैरों पर से उठा कर गले से लगा लिया। उन्होंने दोनों बच्चों को भी कलेजे से सटा लिया। शीला जी की निगाह दरवाजे पर देवर को ढूंढने लगी। फिर उन्होंने देवरानी की ओर देखा जिसकी आँखों में पश्चाताप के आंसू थे। उसने सिर नीचे झुकाकर कहा -” वो नहीं आये दीदी वे बहुत लज्जित हैं। उनकी कोई गलती नहीं थी मेरी वज़ह से आपलोगों के बीच खाई गहरी हुई मुझे माफ कर दीजिये। “
आँगन के बाहर खड़े शेखर जी की आँखों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। वो बार -बार खुद को कोश रहे थे कि कैसे किसी के कहने पर उन्होंने लक्ष्मण जैसे भाई को अनजाने में दोषी ठहरा कर चले आये थे। दिल में नाराजगी इतनी थी की शादी में सारी दुनियां वालों को बुलाया और भाई को छोड़ दिया। वह सोच रहे थे कि अब वे अपने स्वर्गवासी अम्मा- बाबुजी को क्या जवाब देंगे । वे अपने माथे को दरवाजे पर सटा सुबकने लगे।
“पिताजी इधर देखिये !”
बेटे की आवाज को भी उन्होंने अनसुना कर दिया
तभी उनके कानों में अमृत घुली आवाज टकराई-“भैय्या!”
पीछे से छोटा भाई अपने दोनों बाहें फैलाकर उनसे लिपट गया। खुद से भाई को लिपटे देख शेखर जी ने उसे कलेजे से लगा लिया और फुट- फुट कर रोने लगे। शादी में आये सभी सगे -संबंधी अपने- पराये ,आस-पड़ोस सभी वहां पर इकट्ठे हो गये तथा इस भातृ- मिलन को देख खुद को रोने से नहीं रोक सके।
शेखर जी भली भांति समझ गये थे कि यह सब उनके बेटे अमित के कारण ही सम्भव हुआ है। उन्होंने बेटे को पास बुलाकर गले से लगा लिया और बोले-” बेटा तूने अपनी शादी का सबसे बड़ा तोहफा मुझे मेरा भाई लौटाकर दिया है।”
अमित बीच में था उसे एक तरफ से पिता और दूसरे तरफ से चाचा ने गले से लगाया था ।उसने हँसते हुए कहा-” पिताजी मुझे मेरी शादी में एक नहीं दो दो समधी चाहिए था और आप दोनों का आशीर्वाद भी।”
तीनों खिलखिला कर हँस पड़े। शीला जी देवरानी के साथ हांथों में हल्दी का कटोरा लिए अमित को बुलाने आईं उन्होंने बेटे को चाचा और पिता के बीच खड़े देखा तो भाव-विभोर हो गई अनायास ही उनकी आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े। देवर ने भाभी के पैर छुए तो वह उनका हाथ पकड़ सुबकने लगी ।
अमित ने चुहलबाजी की-“”अरे… अरे ….माँ यह क्या भरत- मिलाप तो ठीक था पर यह भाभी मिलाप ठीक नहीं लग रहा है…।”
वहां खड़े सब लोग ठठा कर हँस पड़े । काका ने कहा चलो सब ठीक है अब सबलोग मिलजुलकर अमित की बारात सजाओ नाचो गाओ खुशियां मनाओ !!
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर, बिहार