सुबह अंधेरे मुंँह उस दिन विपिन के घर में शोरगुल हो रहा था। उसके परिवार के सदस्य हर्षोल्लास के साथ यात्रा करने की तैयारी में मशगूल थे। विपिन की तीनों बेटियों को उसकी पत्नी कीमती नए डिजाइन की पोशाकें पहनाकर उन्हें सजाने संवारने में लगी हुई थी। थोड़ी देर के बाद स्मृति स्वयं कीमती परिधान धारण करने के बाद श्रृंगार करने में जुट गई।
स्नो पाउडर और परफ्यूम की सुगंध कमरों और घर के वातावरण में उमंग उत्साह घोल रही थी। विपिन बार-बार जल्द तैयार होने की हिदायतें दे रहा था ।
विपिन के पिता चैतन्य और उसकी माँ उर्मिला अपने कमरे में नई गाड़ी से यात्रा करने की मंशा से तैयार होकर पहले से बैठे हुए थे।
आकाश में किरण फूटते-फूटते उसके घर के सारे सदस्य तैयार हो चुके थे।
स्मृति और उसकी तीनों पुत्रियाँ आवश्यक सामग्रियों को थैलों व बर्तनों आदि में लेकर गाड़ी में अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे।
चैतन्य और उर्मिला अपने बेटे के बुलावे के इंतजार में बैठे हुए थे। जब इंतजार की घड़ियां लंबी होने लगी तो चैतन्य अनमनस्यक भाव से उठ खड़ा हुआ और कमरे में चहलकदमी करने लगा।
कुछ पल के बाद ही विपिन ने कमरे में प्रवेश किया उसने धीमी आवाज में कहा, “पापा माफ करें!… मेरे घनिष्ठ मित्र और उसकी पत्नी भी आ गई है इस यात्रा में शामिल होने के लिए। एक भी अब गाड़ी में सीट खाली नहीं है।… दूसरी बार उधर गाड़ी जाएगी तो उससे तीर्थ- स्थल पर चले जाइएगा।”
उसकी बातों से उसके माता-पिता को दुख तो अवश्य हुआ, किंतु अपने को संयत करते हुए हंँसकर चैतन्य ने कहा,” कोई बात नहीं है बेटा!… ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि तुम्हारी यात्रा सफल हो… दिनों- दिन तुम तरक्की करो… मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।”
चैतन्य का पार्टनरशिप में कपड़े का छोटा-मोटा व्यवसाय था उस कस्बे में। इस धंधे से उसके परिवार की किसी तरह से परवरिश चल रही थी ।
उसका पुत्र विपिन एक प्राइवेट फर्म में मुंशी था। उसकी शादी पांँच-छः वर्ष पहले हो गई थी। उसकी तीन बेटियाँ भी थी। उसका छोटा भाई हौसला हाई स्कूल में पढ़ रहा था ।
पिता पुत्र की आय से उस परिवार की घर – गृहस्थी की गाड़ी समतल जमीन पर चल रही थी बिना किसी परेशानी के।
दो-तीन साल के बाद चैतन्य के पार्टनर के मन में खोट आ गया। लोभ-लालच के वशीभूत होकर तिकड़मबाजी करके व्यवसाय में उसने घाटा दिखाकर पार्टनरशिप तोड़ दिया। चैतन्य को व्यवसाय से अलग कर दिया। व्यापार में पूंँजी भी उसके पार्टनर की ही लगी हुई थी। चैतन्य की आर्थिक स्थिति खराब हो गई कुछ दिनों तक वह बैठा रहा, फिर प्रयास करके उसने एक प्राइवेट दुकान में नौकरी पकड़ ली। वेतन कामचलाऊ था। ऐसी स्थिति में घरेलू-खर्च काआधा से अधिक भार विपिन को वहन करना पड़ रहा था, जो स्मृति के अंतर्मन में खटक रहा था। संकोचवश उसने कुछ नहीं कहा। किन्तु बाद में बात-बात में दबी जुबान से अपना असंतोष व्यक्त करने लगी व्यंग्यात्मक बातों के माध्यम से। कभी कहती कि उसके पति को अब धर्मशाला खोल देना चाहिए, जिसमें जितने भूखे नंगे और फटेहाल लोग हैं, उनको वहाँ खाने-पीने और ठहरने की व्यवस्था हो। इस कस्बे के चौक-चौराहों पर जाड़े में अलाव और गर्मी में प्याऊ(पनशाला) की व्यवस्था भी करनी चाहिए। इससे उसके पतिदेव को बहुत पुण्य की प्राप्ति होगी। उसका जीवन सफल हो जाएगा… आदि-आदि ।
उसकी व्यंग्य-भरी बातों को अनुभवी उर्मिला समझती थी और उसका जवाब चाहते हुए भी नहीं देती थी, क्योंकि वह विवश थी। चैतन्य की उम्र हो गई थी और उसके भी बाल सफेद होने लगे थे। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए और स्मृति के मन-मिजाज को शांत रखने की नीयत से सुबह उठते ही वह घर की साफ सफाई, झाड़ू पोछा और किचन के कामों में लग जाती थी। इन कामों में अपनी बहू का इंतजार नहीं करती थी कि वह उठकर आएगी और कामों में उसका हाथ बटाएगी। वह कोशिश करती थी कि पूरा काम वह अकेले ही निपटा दे। बाद में दिखावा के लिए वह अपने कमरे से निकलकर आती और हल्का-फुल्का काम कर देती ।
उसके परिवार में फूट ना हो, एकता बनी रहे, सभी मिलजुल कर रहे, प्रेम-भाव बना रहे, इसी बात को ध्यान में रखते हुए चैतन्य को जो भी वेतन मिलता उसको, उसका शत-प्रतिशत चौका- चूल्हा और घरेलू मद में खर्च कर देता, बिना व्यक्तिगत खर्च और बचत किए हुए।
कभी-कभार असंतोष के कारण स्मृति कड़वी बातें भी बोलती अपने ससुर और सासू माँ के लिए तो हौसला अपनी भाभी का विरोध करता यह कहकर कि उसको पिताजी और माताजी के प्रति ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए कि वर्षों तक दुख तकलीफ झेलकर उन्होंने उन लोगों का पालन पोषण किया था।
विपिन ने अधिक आमदनी के इरादे से डाॅन पेमेंट करके भाड़े पर चलाने के लिए बैंक के माध्यम से एक गाड़ी खरीदी। उस नई गाड़ी की पूजा करने के लिए उस कस्बे से साठ-सत्तर किलोमीटर की दूरी पर स्थित प्राचीन प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पर स्थित मंदिर में जाने का प्रोग्राम बनाया।
उर्मिला ने सोचा कि यही बहाने तीर्थ स्थान की यात्रा भी हो जाएगी और मंदिर में भोलेनाथ के दर्शन भी हो जाएंगे। उसने अपने पति को भी प्रेरित किया बेटे- बहू की यात्रा में शामिल होने के लिए।
उसके बापू और उसकी माँ दोनों ने जाने की तैयारी कर ली थी, लेकिन दुर्भाग्य से दोनों इस यात्रा में शामिल नहीं हो सके।
गाड़ी से अतिरिक्त आय होने पर उसकी पत्नी के रहन-सहन में तेजी से परिवर्तन होने लगा। नई-नई आधुनिक डिजाइन की कीमती पोशाकें, गहने, और महंगे सौंदर्य प्रशाधन के मद में पैसे खर्च होने लगे। उसका रुतबा बढ़ने लगा।उसके विपरीत उसके माता-पिता पर बहू की दंभ-भरी उलाहनाओं से उनकी मान मर्यादा पर आंँच आने लगी। उनका वर्चस्व घटने लगा। स्मृति के ऊंँचे बोल और घमंड में पगे हुए संवाद से उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगा ।
जब हौसला मैट्रिक की परीक्षा हेतु फॉर्म भरने के लिए फीस की मांग विपिन से की तो वह बहाने बनाने लगा, गाड़ी से आमदनी नहीं होने और घाटा लगने की बातें कहने लगा। तब चैतन्य ने उसे समझाया कि उसके करियॅर की बात है तो बेरुखी से उसने जवाब दिया कि वह कल व्यवस्था करके दे देगा।
दूसरे दिन उसकी भाभी ने कई तरह के उलाहनाओं और तानों की सौगात के साथ हौसला को फॉर्म भरने की फीस दी।
कुछ महीनों के बाद ही उसके घर में छोटी-मोटी झंझट होने लगी। उर्मिला से कभी साफ सफाई ठीक से नहीं करने, कभी बर्तन धोने के प्रश्न पर, कभी भोजन के मुद्दे पर, यानी दिन की शुरुआत होने पर किसी न किसी वजह से घर में महाभारत होने लगा। अक्सर ऐसे विवाद चौका-चूल्हा के मामलों से शुरू होते जो अंत में लड़ाई-झगड़ा का रूप धारण कर लेता। वास्तविकता यह थी कि विपिन का घर में अधिक पैसे खर्च हो रहे थे उसके माता-पिता की तुलना में।
चैतन्य उर्मिला को समझता कि वे दोनों बूढ़े हो चुके हैं। वह बहू की बराबरी ना करें। उसकी आमदनी विपिन की तुलना में बहुत कम है, इसलिए मुंँह बंद करके रहना ही पड़ेगा।हौसला को भी आगे पढ़ाना है। उसकी पढ़ाई के लिए भी तो रुपए की जरूरत पड़ेगी। उसकी पढ़ाई उसके भाई और भाभी के सहयोग से ही संभव होगा। तब उसकी पत्नी ने तैश में कहा,
” इसका मतलब यह है कि वह बिना कसूर के हम पर ताना मारेगी, मखौल उड़ाएगी, जो मन में आएगा वह बात कह कर निकल जाएगी और हम सुनते रहेंगे… ऐसा नहीं हो सकता है…वह भूखी रह लेगी …जो साग- सत्तू, नमक – रोटी, आप लाइएगा वह खाकर हम गुजारा कर लेंगे, लेकिन रोज का कचकच बर्दाश्त के बाहर है आप नहीं मानेंगे तो आप मैं जहर खाकर मर जाऊंगी। “
फिर चैतन्य के बहुत समझाने पर वह सामान्य अवस्था में आई थी।
अप्रत्यक्ष रूप से स्मृति अपने सास-ससुर पर सोची समझी चाल के तहत अलग होने के लिए ऐसा दबाव बना रही थी कि जिसमें वह बदनाम भी नहीं हो सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। कुछ इसी तरह की नीति के अंतर्गत उसकी गतिविधियाँ जारी थी ।
आखिरकार वही हुआ अंत में चुभने वाले कड़वी और कठोर संवादों को सुनते-सुनते वह अजीज आ गई। जिसकी परिणति यह हुई की उसने अपने बेटे-बहू से अलग होने का मन बना लिया।
उसने जब अपने निर्णय को चैतन्य के समक्ष रखा तो उसने समझाया कि शांति से काम लो। उतावलापन के वशीभूत होना उनके लिए उपयुक्त नहीं है। जब भगवान राम की धर्मपत्नी को भी बहुत कष्ट झेलना पड़ा था अपने जीवन में तो वे लोग तो मनुष्य हैं।… तुम क्यों घबरा रही हो?… हमलोगों को धैर्य के साथ रहना चाहिए।
तब उर्मिला ने जवाब दिया, ” उनसे कोई तुलना हम नहीं कर सकते हैं… वे देवी देवता है हम लोग साधारण इंसान है। हम लोगों के दुख तकलीफ और उपेक्षा सहने की एक सीमा है।… आप समझ नहीं रहे हैं। बहू के दिन फिर गए हैं, उसके अच्छे दिन चल रहे हैं। वह नहीं चाहती है अपनी समृद्धि के सुख में अपने माता-पिता को हिस्सेदार बनाना। उसको यही अखर रहा है हम लोग कैसे रह रहे हैँ सुख से उनके साथ। यह वह सहन नहीं कर पा रही है।… वह एकछित्तर(एकाधिकार) से अपने पति और बेटियों के साथ आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहती है। यह सब नाटक उसी के लिए कर रही है। “
इतना कह कर वह खामोश हो गई और अपने पति का चेहरा उसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए देखने लगी किंतु वह मौन था तब उर्मिला ने पुनः कहा,” अपने बेटे- बहू से अलग होना कष्टप्रद तो होता ही है किंतु हम लोग जैसा सोचते हैं उसकी सोच हम लोगों के विपरीत है… परिस्थिति को भांपिए!… आज अगर हम लोग स्वयं उनसे अलग नहीं होते हैं तो कल को आपको अपमानित होना पड़ेगा जब बेटे-बहू एक साथ एक स्वर में मुंँह खोलकर अलग कर देने का फरमान सुना देंगे। “
चैतन्य को लगा कि उर्मिला की बातों में दम है।
इसके बाद अचानक एक दिन उर्मिला ने अपना चौका चूल्हा अलग कर लिया।
उसके इस कदम से स्मृति बहुत खुश थी, जो वह चाह रही थी वह खुद-ब-खुद हो गया था। किंतु दिखावा करते हुए उसने अपने पति से तेज आवाज में कहा जिससे कि उसकी आवाज सास-ससुर भी सुन ले।
” देखिए पापा और मम्मी ने अपना चौका चूल्हा अलग कर लिया… जब घर के बूढ़े- बुजुर्ग स्वयं अलग हो जाते हैं तो ऐसी ही स्थिति में एक ही घर में रहते हुए भी लोग बट जाते हैं, उनके बीच अदृश्य दीवारें खड़ी हो जाती है।… और ठीकरा लोग बेटे-बहू पर फोड़ते हैं ऐसी हालत में# घर टूटने पर आखिर हर बार बेटे-बहू को ही क्यों दोष दिया जाता है ।अब तो उसे भी अपने पति और बेटियों के लिए किचन का अलग प्रबंध करना ही पड़ेगा।”
तब विपिन ने कहा,” ठीक है!… जैसा वे चाहें करें… इसमें हम लोगों का कोई दोष नहीं है… किंतु हौसला से भी तो पूछना पड़ेगा कि वह किधर खाएगा उसकी शादी भी तो नहीं हुई है… उसने मैट्रिक भी प्रथम श्रेणी में अच्छे रैंक में उत्तीर्ण हुआ है। “
कुछ पल मौन रहने के बाद स्मृति ने कहा,” पूछ लीजिए मुझे कोई आपत्ति नहीं है। “
जब हौसला से विपिन ने स्मृति के सामने ही पूछा कि वह किधर रहेगा किस तरफ खाना खाएगा तो वह खामोश हो गया। कुछ पल सोचने के बाद उसने कहा,
” इसमें पूछने की क्या बात है?… मैं अपने माता-पिता की तरफ रहूँगा… जो वह रूखा-सूखा खाएंगे वही मैं भी खाऊंँगा लेकिन अपने माता-पिता का साथ कभी नहीं छोड़ूंँगा कभी भी चाहे दुख हो या सुख हो। अपने पिताजी का वात्सल्य और ममतामई मांँ की ममता पाकर किसी भी तरह का कष्ट और दुख- तकलीफ हँसते-हँसते सहन कर लूंगा ।”
हौसला का अप्रत्याशित जवाब सुनकर पति-पत्नी के चेहरे का रंग उड़ गया दोनों एक दूसरे के चेहरे को देखते रह गए।
स्मृति को ऐसा महसूस हो रहा था कि उसका दांव असफल हो गया। वह जीती हुई बाजी हार गई ।
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)
25-02-2025
बेटियाँ वाक्य कहानी प्रतियोगिता
वाक्य :- # घर टूटने पर आखिर हर बार बेटे-बहू को ही दोष क्यों दिया जाता है।