घर है, कोई होटल नहीं!! – पूर्णिमा सोनी : hindi stories with moral

hindi stories with moral : बस- बस… यहीं रख देते हैं बेड, सुवर्णा ने बेड को जमीन पर टिका दिया।

बाकी बड़े फर्नीचर और सामान पहले ही कुछ हेल्पर की मदद से अपने स्थान पर रख दिए हैं। थोड़ा बहुत  खींच, खिसका कर एडजस्ट करना अलग बात है। बेड के लिए इससे उपयुक्त जगह नहीं दिख रही है… उसे तो हमेशा खिड़की के पास ही बेड का ठिकाना चाहिए… जिससे उसके बेड पर भरपूर रोशनी रहे, जिससे वो अपने फुर्सत के समय में लिखने पढ़ने का काम भलीभांति कर सके।

वैसे भी उसे खिड़की से छनकर आती सूरज की रोशनी में ही बैठ कर कोई भी काम करना पसंद है, बिजली के बल्ब और लाइट में वो बात कहां?

घर देखने से पहले  भरपूर रोशनी, उजाला,हवा का आवागमन ( क्रास वेंटिलेशन) उसकी हमेशा पहली प्राथमिकता रही है

इस घर में भी है!

लो अभी तक मैंने मैंने बताया ही नहीं

सुवर्णा अपने पति ( अनिमेष) के साथ उनके तैनाती स्थल पर आई है… यानि कि दोनों पति पत्नी ट्रांसफर होकर नए शहर में आए हैं

इतना आसान भी  नहीं होता, गृहस्थी को समेट कर दूसरे स्थान पर जाना… पति देव के कार्यभार ग्रहण करने के साथ ही, वहां  घर देखना, बच्चों के लिए स्कूल, बेसिक फोन ,गैस कनेक्शन सब कुछ ट्रांसफर कराना..

. परंतु एक बात तो निश्चित तौर पर अच्छी ही होती है इससे आप अनेक शहरों में रहने, वहां के माहौल, कल्चर को समझने का अवसर पाते हैं… अलग -अलग परिस्थितियों में अलग -अलग लोगों के साथ कैसे सामंजस्य बिठाया जाता है,यह भी सीखते हैं, बच्चों के सर्वांगीण विकास में भी यह विविधता सहायक सिद्ध होती है…

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फिर सुवर्णा तो इस माहौल को बचपन से ही जीती आ रही है… पहले अपने पिता के साथ अनेक स्थानों पर ट्रांसफर में घूमी… अब अपने पति के साथ!

मगर उस नितांत अपरिचित मकान को घर बनाने की कवायद भी कम नहीं होती

इस तरह जिंदगी को खूबसूरत और रचनात्मक टास्क मिलता रहता है

व्यस्त रहने के रचनात्मक प्रयासों को विविध रूप में बाहर आने का अवसर भी मिलता है!!

सुवर्णा का कुछ अलग  और अनिमेष का कुछ अलग!

घर को  सजाने का फंडा मगर दोनों का एक कि घर को अपनी सुविधा के अनुसार जमाएंगे…. और अनिमेष के क्रिएटिव  और इंजीनियरिंग वाले दिमाग़ का तो क्या ही कहना!

नहीं – नहीं वो इंजीनियरिंग फील्ड के विद्यार्थी नहीं रहे बल्कि काॅमर्स के स्टूडेंट रहे हैं!

मगर घर को … अपने हिसाब से रिडेकोरेट करने में सारी इंजीनियरों जैसी क्षमता के साथ जुट जाते हैं…. मसलन

नाइट बल्ब ,फैन,ए सी,ट्यूब लाइट.,टी वी.… सबके बटन ,बेड के  साइड में तार के कनेक्शन खींच कर लगा लिए गए

जिससे  बेड पर लेटे या बैठे हुए जिसे आन/ आफ करना हो उसके लिए बिस्तर से उठना ना पड़े….. और स्विच बोर्ड जो कमरे के एक कोने में है….. हुंह होता रहे एक कोने में हमारे बलमवा जी की टेक्निकल बुद्धि के आगे तो बड़े – बड़े पानी भरते हैं… फिर इसकी क्या बिसात?

टी वी के सामने वाले दीवान या काउच पर छोटे बड़े तकिए, कुशन्स,इस हिसाब से रखे हैं जिनसे अनिमेष टी वी देखते समय तकियों को दाएं बाएं हाथ टिकाने के लिए,पैर फैला कर ….उसके ऊपर और नीचे रखने के और आराम से टिक कर टी वी देखने फिर – देखते देखते नींद आने पर उसी में सिर घुसा कर..

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निद्रा की गोद में समा जाएं….. और हां अनिमेष को सोया हुआ जानकर …. बहुत आहिस्ते से कंबल उढ़ाने पर बस धीरे से ( एक) आंख खोल कर देखते हैं….. मगर सुवर्णा अपने पति देव को सोया हुआ जानकर… उनकी सुविधा के लिए ( ही) टी वी बंद करने की ग़लती कर बैठे तो…… तुरंत ही बोल उठेंगे… टी वी क्यों बंद किया….. चलने दो..

लो भाई.. चालू कर दिया

मुंआ टी वी ना हुआ, लोरी हो गया.. जिसके  ना बजने से नींद टूटी जा रही है?

घर में भी चीजें अपनी आवश्यकता और सुविधा के अनुसार ही हैं!

घर में आराम से आओ,बैठो… अपनेपन के एहसास के साथ… निपट पराएपन के साथ नहीं कि  दीवान पर बैठने पर चादर में सिलवट ना पड़ जाएं.

अरे पड़ती रहे सिल्वट…. इंसान का आराम बड़ा है या ये दिखावा पन

. जोर से बोलना नहीं, खुलकर हंसना नहीं.. (इंचीटेप से नाप कर )सीमित मुस्कान, सीमित प्रतिक्रिया ( रिएक्शन) नहीं बल्कि… खुलकर मिलो… जो भी बना है( उपलब्ध है) उसे मिल बांट कर पेट भर कर खाओ… सिर्फ चाय, बिस्किट, नमकीन तक सीमित नहीं… बल्कि खाने के समय आने वाले सभी को ( प्रेम से) खाना  खिला कर भेजने की परंपरा ( जो दोनों को ही अपने – अपने माता पिता से मिली है) का पालन करते हैं, हृदय में असीम, स्नेह सम्मान और अपने पन के साथ!

आने वाले बच्चों के लिए भी सब कुछ उपलब्ध रहता है… साथ में खेलना कूदना, प्यार, मनुहार… खाना पीना, देखभाल

अब इस सब में घर की व्यवस्था थोड़ी ऊपर नीचे हो जाए तो … क्या फर्क पड़ता है इससे?

आखिर हम घर बसाते हैं ,हम जिसमें  निश्चित, खुलकर जी सकें… अपनी सुविधानुसार रह सकें… और आने वाले को भी वही एहसास दिला सकें!

जहां सभी चीजें व्यवस्थित सजी हों.. आप बैठे भी  तो संकोच के साथ… बच्चे ( उनके लायक) खिलौनों को भी ललचाई निगाहों से देखें मगर छू ना सकें…  ऐसी जगह को घर थोड़ी ना कहेंगे

फिर आप इतना प्यार करेंगे तो ज्यादा ऊधम मचाने पर या चीजें फैलाने, तोड़ने पर  घर आए बच्चों  को मना  भी कर सकते हैं!

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जिस घर में आप बड़े ही  नफासत (एटीकेट्स )के साथ संतुलित, सीमित मुंह खोल कर बातें करें.. खाएं पीएं …. अरे भाड़ में जाए भाई ऐसी दिखावेबाजी

आखिर

घर है कोई होटल नहीं!!

घर तो वह जगह होती है जहां, अपने पन का जीवंत एहसास हो! दिखावेबाजी और औपचारिकता से पूरी तरह दूर!

तभी तो वर्तमान भौतिक वादी युग में ,लोंग अपने घरों में भौतिक सुख सुविधाओं का ढेर लगा कर भी  आगंतुक के लिए असहज, औपचारिक वातावरण ही बना पाते हैं

कोशिश कीजिए कि आने वाले से आप अपने मन की बात कह सकें… उसके दिल की भी  आप समझ सकें!

तभी तो अपने पन की ऊर्जा से भरपूर घर बसेगा!

मित्रों आप क्या कहते हैं? सुवर्णा और अनिमेष के जिंदगी इस फंडे के साथ जीने को सही मानते हैं या नहीं?

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स्वरचित, सर्वाधिकार सुरक्षित 

पूर्णिमा सोनी

 # घर, कहानी प्रतियोगिता, शीर्षक – घर है कोई होटल नहीं!!

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