Moral stories in hindi : बाकी लड़कियों की तरह वसुधा भी विदाई के वक्त, ससुराल के घर आंगन की खुशबू अपने मन में बसाए ससुराल पहुंची थी।लड़कियों के लिए तब ससुराल परीकथा के स्वर्ग सा होता था और पति सफेद घोड़े में आने वाला राजकुमार।परियों के देश की सैर करवाने वाला सपनों का राजकुमार।
कुछ दिन बीतने के बाद धीरे-धीरे वसुधा को समझ में आने लगा कि ससुराल के घर आंगन में फूल ही नहीं मिलते खिले हुए,कांटों की चुभन भी चुनौतियों के रूप में रहती है।एक भिन्न परिवार से, भिन्न परिवेश में पली बड़ी लड़की को ससुराल की जमीन में पनपने में समय तो लगता ही है।
सास के प्रति आशंका का बीज बचपन से ही मन में बो दिया जाता है,जो हमेशा डराने वाले माली की शक्ल लिए होता है। शुरूआत में सामंजस्य बिठाने में वैसे ही दुविधा होती है,उस पर मां की चेतावनी आग में घी का काम करती है।वसुधा को कभी भी यह घर पराया नहीं लगा।स्वयं उसका स्वभाव भी मिलनसार था और सास के रूप में उसे दुनिया की सर्व श्रेष्ठ औरत मिली थीं जो मां से कम ना थी।
सुख का समय बड़ी आसानी से खुशी-खुशी बीत जाता है,पर दुःख आते ही हम एक दूसरे पर आरोप लगाने लगें हैं।भाग्य को कोसती हैं कभी ,कभी सास-ससुर की परवरिश पर सवाल उठातें हैं।समय की परीक्षा लेने का यह ही नियम है शायद।सासू मां अपने बगीचे का बहुत ख्याल रखतीं थीं।रोज़ पौधों को पानी देना,छंटाई करना और फूलों को देखकर खुश होना उनकी दिनचर्या में शामिल था।वसुधा के हांथ में गृहस्थी की चाबी देने में उन्हें जरा भी संकोच ना हुआ।
वसुधा हमेशा सोचती कैसे इतना विश्वास कर लिया उन्होंने एक पराई लड़की पर।रसोई से लेकर आलमारी,बेटे की तनख्वाह,सभी कुछ वसुधा के हवाले कर दिया।जब भी मां से सांस की तारीफ करते हुए कहती”उनके मन में छल-कपट नाम मात्र भी नहीं है मां।जैसा प्यार अपनी बेटियों से करती हैं,ठीक वैसे ही मुझे भी चाहती हैं।
सास इतनी अच्छी होतीं हैं,मुझे पता ना था पहले।मैं बहुत खुशकिस्मत हूं।”मां का चेहरा तमतमा जाता गुस्से से कम अपमान से ज्यादा।भड़क कर कहतीं”इतनी बढ़ाई मत कर।सर में मत चढ़ा कर रखना।काम ना करना पड़े ख़ुद को,इसलिए सब जिम्मेदारी तुझे दे दीं उन्होंने।इतनी आसानी से कोई दूसरे की बेटी को अपनाता है कभी?तेरी मति मारी गई है,जो ऐसा सोचती है।
इस कहानी को भी पढ़ें:
नीरज – नीलिमा सिंघल
वसुधा मां की पीड़ा समझती थी।इतने सालों तक पाल पोसकर जिस बेटी को बड़ा किया ,वह दूसरी औरत को मां के समकक्ष माने तो कहीं को ठेस तो लगेगी ही।ननद की शादी की जिम्मेदारी जब ली वसुधा ने तब भी मां ने टोका था”तुझे क्या जरूरत है,इन झमेलों में पड़ने की।खा -पी और मस्त रह।जिनकी बेटी है वो जानें।”वसुधा तो ऐसा नहीं मानती थी।
ख़ुद ही सास को कहा उसने'”मां,आपने और पापा ने दो बच्चों की शादी कर दी। अपनी सामर्थ्य से ज्यादा किया आप लोगों ने,अब छोटी की शादी की चिंता से मुक्त हो जाइये। आपका बेटा और मैं सब संभाल देंगें।”वसुधा की बातों से एक मां तो निश्चिंत हो गई पर पति देव की भृकुटी तन गई थी।उन्होंने कहा था वसुधा से”ये जो तुम्हारी हर बात में कूदने की आदत है ना,एक दिन बड़ी मुसीबत में डालेगी दोनों को।अरे,अभी छोटी की उम्र ही क्या है?पैसों का बंदोबस्त हो जाएगा तो कर देंगे शादी।”
वसुधा इतने दिनों में समझ चुकी थी कि ससुर के पास रिटायरमेंट का पैसा अब ज्यादा नहीं बचा।जितना समय बीतेगा ,वह खर्च होता जाएगा।छोटी ननद हम उम्र थी वसुधा की,इतनी छोटी भी नहीं थी।बिना कुछ सोचे ईश्वर का नाम लेकर शादी का जिम्मा लिया था उसने,और दो महीनों के अंदर ही अच्छा रिश्ता मिला और वसुधा ने अपनी जिम्मेदारी सकुशल पूरी की।
मायके में मां को ज़रा भी पसंद नहीं आया वसुधा का यह कृत्य और उनके दामाद भी आग सुलगाते रहते कि मेरी तो सुनती ही नहीं,बस मां की चिंता ही लगी रहती है उसे।
सर पर क़र्ज़ चढ़ गया था ननद की शादी का,पति सुनाते रहते थे।सास बड़ी कातर दृष्टि से देखती जब वसुधा को ,उसे बहुत बुरा लगता।एक दिन उन्होंने कहा ही दिया”बहू,तुमने बेटी के कन्यादान के ऋण से हमें उबार लिया।हमारे बेटे के ऊपर कर्ज चढ़े,ऐसा हम कभी नहीं चाहते थे। रिटायरमेंट का पैसा फिक्स्ड डिपॉजिट ना करके बहुत बड़ी ग़लती की तुम्हारे पापा ने।तुम्हें इस बात का खामियाजा भुगतना पड़ा।हमें माफ़ कर देना बेटा।तुम्हें ज्यादा कुछ तो दिया नहीं मैंने,उल्टा तुम्हारा उपकार ले लिया।”
वसुधा ने सास को डांटकर कहा”गलती तो की है आपने हमेशा।हमारी शादी में अनर्थक पैसा बर्बाद ना करके छोटी के लिए रखना था।गहने तो बनवा कर रख देतीं आप।अब यह घर परिवार मेरा भी है, तो जिम्मेदारी में भी मेरी हिस्सेदारी है।”आस पड़ोस वाले,मां और रिश्तेदार वसुधा से यही पूछते कि तुम्हें क्या मिला,इतना बड़ा दायित्व लेकर?
इस कहानी को भी पढ़ें:
“आत्मनिर्भरता” – सुधा जैन
वसुधा जवाब नहीं देना चाहती थी पर मन ही मन ईश्वर प्रदत्त उपहार के लिए उन्हें धन्यवाद जरूर देती।ननद की शादी के महीने में ही बेटा पेट में आया था उसका।नौ महीने के बाद ,पहले बच्चे को खोकर दोबारा गोद में बेटे को लिया था।नाती को गोद में लेकर जितना उसकी दादी रोई थी खुशी के मारे,वह अवर्णनीय है।
अगले साल बेटी भी हो गई।स्कूल जाने लगे थे दोनों बच्चे।उनके पापा वसुधा की मदद करने की आदत का मज़ाक़ उड़ाया करते थे ।एक दिन नातिन ने दादी से पूछ लिया”आप लोगों के परिवार के एलबम में मेरी मम्मी की बचपन की फोटो क्यों नहीं है?”दादी ने समझाया “तेरी मां तो नानी के घर हुई,पली बढ़ी,इसलिए हमारे एल्बम में नहीं है फोटो।”बेटी ने चकित होते हुए फिर पूछा”अच्छा,मम्मी आपकी बेटी नहीं है,फिर भी आपको मां कहती हैं।मेरी मम्मी बहुत अच्छी है ना दादी।”
“हां रे,तेरी मम्मी के जैसी बेटी भगवान सभी को दे।”सास तारीफ में कहती।एक दिन बेटी ने ऐसा कुछ पूछ लिया उनसे जिसका ज़वाब सुनकर वसुधा को घर-आंगन में अपनी जगह समझ में आ गई।बेटी ने पूछा”दादी ,आपके बगीचे में कितने रंग -बिरंगे फूल हैं।इसमें मेरी मम्मी कौन सी है?”दादी ने सहजता से कहा”मेरे बाग के तीन फूल हैं तेरे पापा,और दोनों बुआ।बड़े जतन से पाला है मैंने उन्हें।दो तो चलीं गईं अपने ससुराल,तेरे पापा मेरा सबसे प्यारा फूल हैं ना,हो मेरे पास है।”
बेटी तुनक गई”और मेरी मम्मी कोई फूल नहीं ,आपके बाग का।”
“नहीं रे गुड़िया,तेरी मम्मी” दूबी” है मेरे आंगन की।फूलों को तो बड़े जतन से देखभाल करना पड़ता है। आंधी-तूफान से बचाना पड़ता है।नियमित पानी देना होता है।एक दिन ये फूल सूख जातें हैं।तेरी मम्मी तो दूबी है,जो बिना किसी मेहनत के अपने आप उगती है,और अपनी जड़ें मजबूत कर लेतीं हैं।
दूबी को ना तो संभालने की जरूरत है और ना सहेजने की।अपने आप अपनी ही ताकत से उग जाती है और सदा आंगन में लगी रहती है।कोई भी पूजा बिना फूल के तो हो सकती है पर बिना दूबी को होती है भला???”
उस दिन सास की बातें सुनकर ख़ुद की जो परिभाषा मिली ,उसे आजीवन यथार्थ करने का प्रयास किया वसुधा ने।बड़ी होती बेटी को समझाया” ससुराल के घर-आंगन को अपनाएगी तभी तुझे खिलने और जमने के लिए जमीन मिलेगी।सास को मां नहीं समझेगी तो तू उस घर-आंगन की दूबी कभी नहीं बन पाएगी।अरे, जो मां अपने तीस सालों की गृहस्थी,रसोई और सत्ताइस साल के बेटे को सौंप देती है बहू के हांथ में,उस मां से बड़ा बागबान कौन होगा?।
शुभ्रा बैनर्जी
#घर-आँगन