गरबा और कजरी का लहंगा – संध्या त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

   दुर्गा पूजा के समय साफ सफाई का दौर….. लगे हाथों आस्था आलमारी भी व्यवस्थित करने की सोची …..आंटी जी इसमें क्या है…? आलमारी जमाते वक्त सहायता करने वाली ( कामवाली बाई की बेटी ) कजरी ने पूछा….।

    लहंगा है बेटा , दीदी का है ….इस लहंगे की भी अपनी एक कहानी है… आस्था बोले जा रही थी , पर कजरी की आंखें तो मोती सितारे और स्टोन जड़ी लहंगे पर ही गड़ी हुई थी…!

    बहुत सुंदर है आंटी ….हां कजरी , जानती है उस समय मेरी बेटी तेरे ही उम्र की रही होगी…. जिद पकड़ ली थी …मुझे लहंगा ही पहनना है वरना मैं शादी में नहीं जाऊंगी… मेरे मायके में एक शादी थी ….जब ये लहंगा ली है , तब जाकर खुशी-खुशी शादी में इंजॉय की है…।

     देख बेटा , ये साड़ी पकड़ तो… अच्छे से मोड़ लेते हैं फिर कायदे से रख देंगे आस्था ने कहा… हां आंटी कह कर कजरी और आस्था मिलकर साड़ी तह लगाकर रखने लगे…।

      आज यहां भी मैदान में गरबा है आंटी.. कजरी ने कहा…. अच्छा तू जाएगी देखने , टिकट होगा… तू टिकट ली है या नहीं कजरी….?  ले लेना , दो-चार दिन की बात है …घूमो फिरो इंजॉय करो … .घर जाते वक्त पैसे लेते जाना…।

      अरे नहीं आंटी , कोई टिकट विकट नहीं है ….खुले मैदान में हो रहा है , कोई भी गरबा खेल सकता है… सब लोग सज धज कर जाते हैं… खूब मजा आता है , हमारे झोपड़ी से भी लड़कियां जाती हैं गरबा खेलने ….।

       अब तो ये पूछना नाइंसाफी होगी कि तू क्यों नहीं जाती ….कपड़े भी तो होने चाहिए …. आस्था ने आलमारी से फिर वही लहंगे वाला पैकेट निकाला और बोली…..

     ले कजरी …जा भाग कर पास वाले दर्जी से अपने  नाप का फिटिंग करा ले…. आज तू भी गरबा खेलने चली जाना ….।

    क्या ….? आंखों में चमक लिए लहंगे के पैकेट को दोनों हाथों से पकड़ कर छाती में चिपकाए हुए कजरी ऐसे भागी…. जैसे थोड़ी भी देर हो जाए तो कोई उससे लहंगा छीन ना ले….. हां जाते-जाते ये जरूर कहते गई….आंटी जी तैयार होकर आऊंगी आपको दिखाने ….पर आस्था ने भी कहा….

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    नहीं ….मैं तुझे वहीं गरबा खेलते हुए देखूंगी….

      वर्षों पहले शायद लहंगा पाकर मेरी बेटी उतनी खुश नहीं हुई होगी… जितना आज कजरी लहंगे को पहनकर खुश हो रही थी ….।

   सच में साथियों ….यदि हम किसी के खुशी की थोड़ी सी भी वजह बन सकते हैं तो इससे मिली खुशी की कीमत क्या होती है कल आस्था ने बहुत अच्छे से समझ लिया था…!

( स्वरचित सर्वाधिक कर सुरक्षित रचना )

संध्या त्रिपाठी

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