प्रमिला की सुपुत्री के विवाह का अवसर था। पटड़े पर खड़े होकर जैसे ही प्रमेन्द्र ने लक़दक़ कढ़ाई वाली सुंदर साड़ी, प्रमिला के सिर-कंधे पर औढ़ाई, खुशी का माहौल रंजीदा हो उठा।
तभी-
“भाई, तने मझे कित्ता समझाया पर…” एक भारी आवाज़ ने सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। वहां से कुछ दूर अपेक्षाकृत कम रोशनी वाले कोने में कुछ लोग बैठे थे।
“भाई, इब रोण ते के फायदा?” रतनपाल के मुख पर एक विवशता भरी झुंझलाहट और पीड़ा का साम्राज्य था। उनकी आंखों की किनारियाँ गीली हो रही थीं।
“ताऊ जी, आप दुखी मत होवो अब!” प्रमेन्द्र ने अपने ताऊ सुरेन्द्रपाल की पुरानी, मैली, कुचैली, कीचट चादर को धीरे से उसके कंधे से नीचे सरकाकर एक नई कीमती शाल औढ़ाई। “ताऊ जी, ये आपके लिये”
“ताऊ जी, देखो, पापा जी ने आपके लिये नए जूते लिवाये, पाँव तो आगे करो जरा!” रतनपाल के मँझले बेटे सौमेन्द्र ने अपने हाथों से अपने ताऊ के पैर आगे किए और उनके पुराने फटे जूते उतारकर उनमें नए जूते पहना दिये।
“हाँ, अब लगे ना हमारे ताऊ जी” रतनपाल का सबसे छोटा सुपुत्र सुधीर अपने ताऊ की बगल में बैठते हुए मुस्कुराया। रतनपाल ने अपने भाई के हाथों में नोटों भरा एक लिफाफा देते हुए उन्हें भात देने के लिए पटड़े पर खड़ा किया। उनकी एकलौती बेटी का भात था। एक पिता को शर्मिंदा कैसे होने देता एक भाई ।
भात का कार्यक्रम सम्पन्न होने जैसा परिपूरित हुआ। परंतु इस सम्पन्न होने में कुछ था, जो ठहरा रहा। जो अपने स्थान तक नहीं पहुंचा। ठहरा हुआ जो था, वह अधूरा था। जो अब किसी हालत में पूरा नहीं हो सकता था। एक भरे-पूरे परिवार का अधूरा रह जाना। जिसके अधूरे रहने में किसी भी प्रकार से प्रकृति दोषी नहीं थी।
वह दर्द, वह पीड़ा हर किसी के हृदय में टीस बन चुभ रही थी। वह टीस जो हर पल के साथ बलवती होती जा रही थी। रतनपाल भाई सुरेन्द्रपाल के हाथ दबाने के साथ-साथ उनके कंधे भी थपथपा रहे थे।
सुरेन्द्रपाल हैरान थे। वे ऊपर तक भर गए थे। और बुक्के फाड़-फाड़ रोना चाहते थे। शर्मिंदगी का बोझ उनसे उठाए नहीं उठ रहा था। आंखों और अपने नथुनों से टपकता पानी वे नई शाल के नीचे छुपे अपने पुराने कुर्ते की लंबी बांह से पोंछते हुए, आखिरकार रो ही पड़े।
“रतन, मेरे भाई… रतन, मैं तुझसे कसे नज़र मिलाऊँ?”
“भाई, नज़र न मिलाण जिसा तो कोई गुनाह किया ना आपणे, यो तो सब समय का फेर था। जो हम भाइयों के बीच यो तमासा रच गया।” सुरेन्द्रपाल को सहज करने की हर जुगत में लगे थे रतनपाल।
सभी रिश्तेदार सुरेन्द्रपाल को सब भूलने पर ज़ोर दे रहे थे। पर क्या इतना आसान था सब भुला देना। क्या इतना आसान? सब शायद ये कर भी लें, किन्तु रतनपाल और सुरेन्द्रपाल कैसे भूलें?
रतनपाल याद नहीं करना चाहते पर भूल भी नहीं पाते। उनके ही बड़े भाई ने, हट्टे-कट्टे रतनपाल की कमर, कैसे बिना उनको हाथ लगाए ही एक झटके में तोड़ दी थी। पितासम भाई की कठोरता पर असमय ही बूढ़ा गए थे वे।
दिन मासूम होते हैं। उनका कोई दोष नहीं होता। मगर वह दिन मासूम न था। वह जब याद आता है ।उनके कलेजे में नश्तर चुभते हैं। वह दिन, दिन नहीं, काल था। उनकी खुशियों को उजाड़ने वाला काल। काल जो दिन के वेश में था। या तो उस दिन सुबह होती ही नहीं। या फिर उन दोनों भाइयों को उस सुबह में जागना नहीं चाहिए था। किन्तु नहीं, दिन नहीं, शायद वक़्त था, कुछ तो था जो बर्बर था। और दिन की अपेक्षा उस दिन सूरज अधिक गर्म था। उसकी ताप असहनीय थी।
“अरे, ओ रतन। दिके, मैं और कुछ सुनना नहीं चाहता, जिसा सुनील कहे है, विसा कर!” रतनपाल द्वारा अपने भतीजे की काफी देर से की जाती मान-मनौवल से ऊबकर सुरेन्द्रपाल ने अपनी गरजदार आवाज़ में कहा तो रतनपाल ठिठककर रुक गए थे।
“भाईss”
कितने ही पल काठ बने रहे रतनपाल और उसके तीनों पुत्र लाचारी में अपने होंठ काटते रहे। भाई शब्द की बाह्य पुकार में घुला अन्तर का आतर्नाद सुरेन्द्रपाल के कानों तक नहीं पहुंचा था।
रतनपाल मेहनती और ईमानदार व्यक्ति थे। सबसे बड़ी बात वे कलयुग में अपने भाई के लक्ष्मण थे। उन्होंने सदा वो ही किया जो उनके भाई सुरेन्द्र्पाल ने उनसे करने को कहा। माता-पिता के बाद सिर्फ भाई ही तो थे उनके अभिभावक। इतनी विशाल और स्वार्थी दुनिया में एक उनका अपना। दोनों बहनों का क्या वे तो अपने घर की थीं।
यूं तो रतनपाल आज भी वो ही करते जो उनके बड़े भाई उनको करने को कह रहे थे। किन्तु स्वर्गीय पिता की दी सीख का क्या ? उनको दिए वचन का क्या? वही वचन रतनपाल अपने भाई को याद दिलाने की कोशिश कर रहे थे।
किन्तु , उनके समझदार भाई पुत्रमोह में ‘ गांधारी ‘ बन गए थे। धृतराष्ट्र होते तो भी समझ आता किंतु उन्होंने तो जानबूझकर अपनी आंखों पर पुत्रमोह की पट्टी बांध ली थी। उनको न अब कुछ समझ आ रहा था। न कुछ दिख रहा था। बोरी भरे नोटों के बदले उनके पुत्र उनका राजपाट बेचने पर तुले थे। और वे उनका साथ दे रहे थे। विनाश काले विपरीत बुद्धि।
“भाई, म्हारे बापू ने हमें के शिक्षा दी थी, याद कर! जमीन किसान की माँ हो। माँ का भी सौद्दा हुआ करे के कबी..” रतनपाल ने अपने पिता की दी शिक्षा की अपने भाई के सामने एक अंतिम पैरवी की।
“फेर ठीक है, तू इसा कर, अपने हिस्से की जमीन तू रख ले। म्हारे हिस्से की हमें दे दे। चल, तहसील में कल यही काम कर ले आपण। इब इससे आगे कोई परवचन ना।” सुरेन्द्र्पाल की बात पर रतनपाल का कलेजा बैठ गया था। वे जमीन पर ऐसे बैठे यदि वे बैठे न होते तो गिर जाते। उनके तीनों पुत्र उनसे दौड़कर लिपट गए- “पापा जी” तीनों के माथे पर पसीना चुहचुहा आया था।
कई बार ऐसा होता है कि भद्र व्यक्ति की सभी सन्तानें शीलवान और सज्जन होती हैं। कई बार कबीर के घर कमाल जन्म लेता है। ये तीनों भी अपने पिता की प्रतिमूर्ति थे। उनके ताऊ उनके पूजनीय देवता। ताऊ का हुक्म, ईश्वर का आदेश। आजकल उनका ईश्वर निष्ठुर हो गया था। पता नहीं कैसे, जो न उनकी सुनता था। न उनके पिता की। जिसकी आँखें पता नहीं किस रोशनी से चौंधिया गई थीं।
“भाई, असे कसे… हम एक ही गाय का दूध पीवें और एक ही जमीन का खावें। फेर हमारे विचार अलग क्यूंकर हो गए?”
रतनपाल को बहुत दुःख हुआ था। पर उनके पास इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष न था। उनमें इतना साहस अभी तक नहीं आया था कि वे अपने बड़े भाई के आदेश की अवहेलना कर दें।
रतनपाल निर्णय ले चुके थे। पैसों के लालच में वे अपनी जमीन नहीं बेचेंगे। उनकी जमीन उनका स्वाभिमान। जो नोटों की गड्डियों की भेंट नहीं चढ़ेगा। नोटों से अनाज़ खरीद तो सकते हैं। पर उगा नहीं सकते। उगाने को जमीन जैसी उदारता चाहिए। जो नोटों में नहीं। हाथ से गए तो लौटते नहीं। खेत चारों हाथों से लौटाते हैं।
फिर ये जमीन तो उनकी माँ है, जो उनको और उसके परिवार को कभी भूखा नहीं सोने देती। पेट भर खाकर जो सोते हैं, तो नींद भी अच्छी आती है। जिसमें आकर उनके पिता मुस्कुराते हैं। सपने भी आते हैं, तो सुनहरे आते हैं। बिन खेत के किसान, मरघट में इंसान।
तहसील में जमीन दो हिस्सों में बंटी। जिसमें से एक हिस्सा रतनपाल के पास कुल पंद्रह बीघा जमीन के रूप में आया। और बड़े भाई के हिस्से में कई बोरे भर नोट। सड़क के किनारे की उनकी जमीन एक निजी कंपनी ने सरकार के मुआवजे से भी अधिक रेट पर ख़रीद ली थी। इतने सारे नोट… पासबुक देखकर ही जिससे आँखें फट जाएँ।
रतनपाल ने अपने बड़े भाई को सचेत किया- “ठीक है भाई जिसा आपणे किया, पर ध्यान रखणा आप, बच्चों को इनकी हवा ना लगे। ये मुआवजा ना, या वा महामारी स जिसमें कई घर परिवार तबाह हो जां”
रतनपाल जैसों की किसने सुननी थी। और किसने माननी थी।
सुरेन्द्रपाल और उनके पुत्रों के अब बड़े ठाठ थे। रतनपाल और उनके पुत्रों को उनके ठाठ देखकर भी जाने क्यों उन पर दया आती। सुरेन्द्र्पाल के चारों पुत्र नोटों को पाते ही मानों पागल से हो गए थे। ये लंबी-लंबी गाड़िया। और विदेशी ब्रांड की शराब। सुरेन्द्रपाल को भी कब शराब की बुरी लत लगी, भान भी न हुआ।
धन ने सुरेन्द्र्पाल के बेटों का दिमाग खराब कर दिया था। इंसान को इंसान समझना भूल गए थे। और इसी भुला-भूली में सुरेन्द्रपाल की आँख जब खुली जब उनके सबसे बड़े पुत्र के साथ उनके तीसरे नंबर का पुत्र भी एक भयानक एक्सीडेंट में ख़त्म हो गया। नशे में गाड़ी की तेज़ रफ़्तार उनकी मौत का कारण बनी।
एक साथ दो पुत्रों के शव… सुरेन्द्र्पाल के साथ पूरा गाँव रो पड़ा। बड़ी मर्मांतक पीड़ा थी। जिसने रतनपाल को सुरेन्द्रपाल के एक बार फिर समीप कर दिया था। वैसे वह उनसे दूर हुआ ही कब था। उनमें मतभेद हुए थे, मनभेद नहीं। पर सुरेन्द्र्पाल ने तो कब का रतनपाल का स्थान शराब को दे दिया था।
बेटों का गम भुलाने का जरिया बना शराब का दोगुने रूप में सेवन। परिणामस्वरूप उनके दोनों फेफड़े खराब हो गए। पुत्रों को असमय काल के गाल में समाते देखा जिस मां ने वह अपने पति को मृत्यु शैय्या पर नहीं देख सकती थी। चंद दिनों बाद उनकी पत्नी भी चल बसीं।
उनका चहकता घर श्मशान भूमि में तब्दील हो गया था। उस घर के सितारे टूट रहे थे। जुए-सट्टे की लत में लिप्त बचे दोनों पुत्रों ने सारी पूंजी ठिकाने लगाकर ही दम लिया। करोड़पति सुरेन्द्रपाल का परिवार देखते – देखते पूरी तरह कंगाल हो गया।
एक उनका परिवार ही इस मुआवजेरूपी प्रकोप की भेंट नहीं चढ़ा था। कई और परिवार भी इसी तरह बर्बाद हो गए थे। लगता था, उनके तथा उनके आस-पास के गांवों में ये किसी महामारी की तरह फैला था। गावों में कोल्हुओं के स्थान पर अब शराब के ठेके खुल गए थे। नाबालिग बच्चों के हाथों में भारी भरकम गाडियाँ या मोटरसाइकिलें थीं। मुआवजे के रूप में अचानक भारी मात्रा में मिले पैसों ने गाँव में रहने वाले सभी ग्रामीणों, किसानों की दशा और दिशा में भारी परिवर्तन ला दिया था।
आधे भरे पेट रहकर भी जो सुख में थे। मन लगाकर मेहनत करके जो अपनी दशा सुधारने में लगे रहते थे। वे अब खाये-अघाए हो गए थे। कुछ अपवाद छोड़ दें तो अधिकतर दिशाहीन हो गए थे। जो दिशाहीन हो गए थे वे पैसे के नशे में चूर इधर-उधर बेमतलब भटकते रहते थे। उल्टे-सीधे विचारों में घिरे वे बलात्कार, हत्या जैसे अपराध भी करने से नहीं हिचक रहे थे। सबमें एक होड़-सी लगी थी, किसके पास क्या सबसे बेहतर ?
बड़े-बड़े बनते हाइवे, पुल, मेट्रो स्टेशन बेशक देश के विकास के लिये आवश्यक थे। मगर इस विकास में कितने लोगों का भला हो रहा था। और कितनों का नहीं। इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं था। सरकार क्यों सोचती मोटा पैसा पाकर उसका किसान अब क्या करेगा? जब मां बाप ही नहीं सोच रहे थे। पैसों ने घरों में जो फसाद कराए थे, उसके लिए भी सरकार क्यों सोचती।
इस पैसे को वे किस प्रकार संजोकर रखें जिससे उनका भविष्य सुरक्षित रहे, इसके लिए भी सीधे – सीधे कोई सुझाव या सलाहकार क्यों ही प्रस्तुत करती सरकार? यूं तो सरकार को विकास के साथ – साथ, ढेर पैसों को देखकर एकदम बौखलाए उन व्यक्तियों में जन्म ले सकने वाले मनोविकारों, तनावों का भी विश्लेषण करना चाहिए। पर इतना सब वो क्यों सोचे या क्यों करे?खैर,
रतनपाल के तीनों होनहार सपूत अपने ताऊ को अपनी बाहों में भरे बैठे थे। बिगड़े बच्चों से दूर, जो कृषि की नई तकनीक से खेती करके अपनी कमाई को तिगुना-चौगुना कर रहे थे। उसी कमाई का कुछ हिस्सा जो कुछ लाखों में था, अपने ताऊ की इकलौती बेटी को उसके भात के शगुन में खुशी – खुशी देने आए थे।
अपने भाई की दशा पर रतनपाल बेहद दुःखी थे। मगर जब औलाद अच्छी हो तो पिता को दुःखी नही होना चाहिए।
“पापा जी कैसे भी करके हमें ताऊ जी को बचाना होगा। इस विवाह से निबटकर किसी अच्छे डॉक्टर से ताऊ जी का इलाज करवाते हैं।” प्रमेन्द्र ने पिता रतनपाल से कहा तो सुरेंद्रपाल की आंखें भर आईं।
गांधारी की पट्टी हटी थी। पर सब बर्बाद होने के बाद।
– पूनम मनु
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