जब उसके ‘केबिन’ में आ राधेश्याम ने बत्ती जलाई तो मानो अंधेरे की चादर में रोशनी की अनेक दरारें पड़ गई।
उसी तरह से जैसे पिछले कई दिनों से वर्तिका की भाई अतुल के साथ संबंधों में दरारें आ गई थी।
शुरू से महत्वाकांक्षी रही वर्तिका के जीवन का लक्ष्य बिना उतार-चढ़ाव के सीधी सपाट जीत और सिर्फ जीत था।
उसकी महत्वाकांक्षा के सहभागी थे उच्च पद पर आसीन उसके पिता। और होती भीक्यों ना महत्वाकांक्षी।
शुरू से मेधावी रही वर्तिका ना सिर्फ रूप रंग में पिता की तरह मुखारविंद थी अपितु स्वभाव व्यवहार व गुण में भी उनकी परछाई थी।
बचपन से ही अपने तर्क शक्ति से स्वयं को स्थापित और सामने वाले को पराजित करने में प्रवीण व सिद्धहस्त थी वह।
भाई अतुल की तुलना में बौद्धिक क्षमता में उन्नत स्वयं को अप्रत्यक्ष रूप से सदैव आगे मानती।
बचपन से उसकी तर्कशक्ति अकाट्य थी और इसी के चलते जब अपने कैरियर को आगे बढ़ाने हेतु उसने विवाह ना कर एकाकी जीवन बिताने का निर्णय किया तो फिर उसके निर्णय को कोई नहीं बदल सका।
अपनी रचाई दुनिया में वर्तिका इतनी आगे बढ़ चुकी थी उसकी उड़ान को रोक पाना अब संभव नहीं था और इसी के चलते ‘करियर’ में तरक्की करती वह अपने घर से बहुत दूर चली गई थी।
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अब माता-पिता अतुल के सपने में ही अपने सपने को शामिल करने का असफल प्रयास करने लगे।
कुछ शांत और कुछ भी भीरु स्वभाव का अतुल विवाह उपरांत माता-पिता से अपनी गृहस्थी का सामंजस्य नहीं बिठा पाया तो अब माता-पिता एकाकी हो गए थे।
पिता की ना रहने से जब अतुल पर मां की जिम्मेदारी आई तो उसे अपनी गृहस्थी पटरी से उतरती दिखी और उसने वर्तिका को मेल करके कहा,
” वर्तिका तुम तो शुरु से स्त्री-पुरुष बराबरी की मिसाल कायम करती आई हो , तो अब ध्यान दो मां दोनों की है ।तुम्हारा भी फर्ज है उनकी देखभाल करने का आकर मां को ले जाओ।”
सबको उत्तम तर्कशक्ति से पराजित वाले करने वाली वर्तिका अनिरुत्तर थी।बहुत बेमन से उसे मां को अपने साथ लाना पड़ा।
मां को तो ले आई थी और उनकी देखभाल हेतु घर पर पूरी सुविधा भी कर दी थी और मालती को उनकी देखभाल के लिए भी रख दिया था पर नहीं ला पाई थी अपने मन में मां के प्रति बचपन के लगाव के भाव।
मां को यहां लाने की अनिच्छा वर्तिका सदैव व्यस्त रह कर व्यक्त करती।देर से ऑफिस से लौटती दो चार शब्दों में खैरियत पूछती और फिर अपने कमरे में जा पढ़ने का उपक्रम करने लगती।
मां के साथ एक समय का भोजन भी उसकी दिनचर्या में शामिल नहीं था अब।मालती से कह रखा था कि वह उसके लौटने से पहले ही उन्हें खाना खिला दे।
मां अपनी आंखों से ही उसे अब सहलाती व दुलारती।
मां समझ चुकी थी कि वर्तिका की भावुकता यथार्थ में बदल गई थी।
मां अब दोनों बच्चों की उचित अनुचित चेष्टाओं के आगे आत्मसमर्पण कर चुकी थीं। अकेली बैठी बस मां यह मनन करती कि कहां गलत हो गया कि उनका स्वप्न छिन हो गया था।
विशेष बातचीत तो नहीं होती थी प्रतिदिन वर्तिका की मां से , पर वर्तिका के घर लौटने की मां को सदैव प्रतीक्षा रहती । ऑफिस से उसका घर आगमन मां को तृप्ति युक्त आनंद दे जाता।
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विचित्र स्थिति थी। वर्तिका को अपनत्व भरा व्यवहार स्वीकारना अब मुश्किल था।अपनी रचाई दुनिया में जब अपनी इच्छा के विरुद्ध उसकी स्वयं की मुस्कुराहट का प्रवेश निषिद्ध था तो मां की उन्मुक्त हंसी को कहां जगह थी। मां ने उसके सामने मुस्कुराना भी छोड़ दिया था।
जब वर्तिका ऑफिस से लौटती तो मां का मन करता कि वह उसकी ललाट पर छलक रहे पसीने की बूंदें अपने आंचल से पौंछकर, उसे प्यार से बाहों में लेकर उससे बात करें पर वर्तिका का यंत्र चालित व्यवहार उनके हाथ पीछे रोक लेता था।
‘ऑफिस’ से नए ‘प्रोजेक्ट’ के तहत वर्तिका को विदेश भेजा जा रहा था।
इंकार करना कठिन नहीं था पर फिर वही महत्वाकांक्षा विवेक पर हावी हो गई और अब उसे मां का यहां रहना बहुत दुश्वार लग रहा था।
कई दिनों से वह लगातार अतुल से संपर्क कर रही थी कि वह मां को अपने पास रख ले पर अतुल की तरफ से कोई संतुष्टि पूर्वक उत्तर ना पाकर उसका मन खीज रहा था।
अपना जाना उसने लगभग तय कर लिया था और अप्रत्यक्ष रूप से मां को इससे अवगत भी करा दिया था।
वर्तिका के साथ रहने की उत्कट अभिलाषा होते हुए भी मां कुछ कह नहीं पा रही थी बस निर्विकार भाव से वर्तिका की खीज का विश्लेषण करती रहती।
पिछले दिनों से उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था वर्तिका अपने प्रोजेक्ट में इतनी व्यस्त थी कि उसकी आंखें मां के गिरते स्वास्थ्य को नहीं देख पा रही थी और मां थी कि वर्तिका से कुछ कहने से हिचक रही
थी।
ऑफिस में एक दिन मालती के आए फोन से वह तत्काल घर लौटी, मां अचेत थी।
तुरंत अस्पताल ले जाने के बाद भी उन्हें बचाया न जा सका।
अतुल परिवार के साथ आया और क्रिया कर्म कर वापस हो लिया।
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अब वर्तिका अपनी दुनिया में फिर एकाकी थी। एक तरह से मां ने उसे अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त ही कर दिया था।
पर अब उसका मन हमेशा अकुलाता व छटपटाता रहता। घर लौटने पर उसकी दिल की धड़कन बढ़ जाती और आंखें बार-बार मां के बिस्तर पर चली जाती।
वह निरुद्देश्य अपने काम में व्यस्त हो जाती, मां की स्मृति से उसका मन बार-बार व्याकुल हो जाता।
एक दिन ऑफिस से लौटते समय कार से बाहर उसने देखा स्कूल जाता एक बच्चा मां से आगे भाग रहा था और मां बार-बार दौड़कर उसे पकड़ने का प्रयास कर रही थी ।पकड़ आने पर वह बच्चा मां के हाथ में हाथ देता हुआ अब खिलखिला रहा था और मां ने उसे सीने से लगा लिया था।
वर्तिका की आंखें अब और कुछ नहीं देख पा रही थी वह आंसुओं से जो भर गई थी। बस होंठ बार-बार यह बुदबुदा रहे थे की, ” गलती मेरी थी मां वापस आ जाओ।मुझे तुम्हारी जरूरत है। गलती मेरी थी।”
प्रस्तुतकर्ता
डा.शुभ्रा वार्ष्णेय
# जब बच्चों को अकेले रहने की आदत हो जाती है तो बड़े बुजुर्गों से उन्हें बंधन दिखाई देने लगता है।