माँ, आपके बिना घर बड़ा सूना हो गया था । पापा भी एकदम अकेले से हो गए थे । आगे से जाओ तो दोनों साथ जाना ।
अच्छा… अभी तो कह रही थी कि घर सूना हो गया,अब कह रही है कि पापा को भी साथ ले जाना ।
अरे…. माँ! मेरे शब्दों पर मत जाइए ना , भावनाओं को समझिए । मैं तो चाहती हूँ कि आप दोनों हमेशा- हमेशा यहीं रहे पर सच्ची बात तो यह है कि विन्नी का भी तो आप दोनों पर अधिकार है । उसका भी दिल करता है कि सास- ससुर उसके पास भी जाएँ वो भी उनका प्यार पाए ।
बड़ी बातें बनाने लगी है तू तो अंशु ! तीन महीने आस्ट्रेलिया क्या गई तू तो घर की बड़ी बन गई ।
क्या माँ… आप ही तो कहकर गई थी कि आपकी गैरहाजिरी में बड़ी बहू बनकर रहूँ …. तो क्या करुँ बातें बनाना सीख गई ।
साधना का मन खुश हो उठा कि उनकी अनुपस्थिति में अंशु ने बहुत ज़िम्मेदारी से बड़ी बहू का फ़र्ज़ निभाया । विशेष रूप से दोनों बेटियाँ बहुत ही खुश हैं वरना उन्हें डर था कि अंशु थोड़ी लापरवाह सी है, तीज- त्योहार के मौक़े पर विदेश जा रही है कहीं बेटियों के मान- सम्मान या रीति- रिवाज निभाने में भूल- चूक रह गई तो विभा और वीणा को माँ की कमी खटकेंगी ।
साधना के आने के लगभग एक हफ़्ते के बाद अंशु बोली —
माँ…. आपकी अलमारी में न जाने कितने सूट- साड़ियाँ है जिनकी पैकिंग तक खोलकर नहीं देखी आपने …..
एएएए…अंशु ! तुमने मेरे पीछे से मेरी पूरी अलमारी को छान डाला ना ? साधना ने बहू को छेड़ते हुए कहा ।
मेरी प्यारी माँ! शायद आप भूल गई कि आप मुझे चाबी देकर गई थी और जब बहू के हाथ में चाबी आ जाए तो ऐसा कैसे हो सकता था कि मैं अलमारी ना खोलती ?
इस तरह साधना अपनी दोनों ही बहुओं के साथ दोस्ताना व्यवहार करती थी ।
अंशु ! तुम सुबह अलमारी में रखी सूट- साड़ियों के बारे में कुछ कह रही थी बेटा , तब तो बात अधूरी रह गई थी ।
हाँ माँ… मैं सालों से यूँ ही पड़ी साड़ियों की बात कर रही थी ।
बता कितनी साड़ियाँ पहनूँ ? फिर घर में तो सूट ही पहनती हूँ।
माँ, एक बात कहूँ….डाँटोगी तो नहीं?
आय…हाय…अंशु ! अब एक्टिंग भी मत कर ज़्यादा ।
माँ…. वो माला है ना , धोबी वाले की लड़की, उसकी शादी है तो क्यूँ ना एक्स्ट्रा सूट- साड़ी उसके लिए दे दें … उनके काम आ जाएँगे ?
पागल है….. महँगा कपड़ा है तेरे और विन्नी के मायके से आया हुआ… उन्हें पता लग गया तो कितना बुरा लगेगा । ना बेटा , इन ज़रा- ज़रा सी बातों पर रिश्ते ख़राब हो जाते हैं , पड़ा रहने दें… काम आ जाएँगे ।
सास की बात सुनकर अंशु चुप हो गई पर साधना सोचने लगी— वैसे अंशु ठीक कह रही है पर समधियों ने कितने मान के साथ उनके लिए कपड़े भेजे , कैसे निकाल कर दे दें ।
अगले दिन उन्होंने देखा कि एक बहुत प्यारी मजैंटा रंग की भारी साड़ी बाहर कुर्सी पर रखी है—-
अंशु ! ये साड़ी क्यों रखी है? तेरी है ना , तैयार करनी है क्या?
माँ, ये साड़ी मेरी मम्मी ने किसी त्योहार पर भेजी थी । मैं तो ये कलर पहनूँगी नहीं… क्या धोबी अंकल की बेटी के लिए दे दूँ…शादी वाला रंग है , पहन लेगी उनकी बेटी…
देख ले , वैसे मोती का महीन काम हो रखा है इस साड़ी पर….
इतना सुनते ही अंशु हँसने लगी —-
माँ.. बस यही लालच है जो अलमारी में कपड़ों की संख्या बढ़ती जाती है… क्या महीन काम की साड़ी वो नहीं पहन सकती ?
संयोग ऐसा हुआ कि तभी धोबी के साथ माला भी आ गई और साड़ी को सामने देख बोल उठी—
भाभी! नई साड़ी निकाली है आज तो आपने , आपके ऊपर खूब जंचेगा ये रंग ….
नारायण ! बहू बता रही थी कि तेरी लड़की की शादी है ।
हाँ मेम साहब, महीने भर बाद है इसकी सादी ।
माला ! ये तो मैंने तेरी शादी के लिए निकाली है । ब्लाउज़ निकाल कर सिलवा लेना और फ़ॉल लगा लेना ।
देखा माँ… साड़ी मिलने के बाद माला के चेहरे पर कैसी ख़ुशी छा गई थी और हमारे पास कई सालों से बस अलमारी में क़ैद थी ।
अगले दिन साधना ने रात के खाने के बाद अँशु को अपने कमरे में बुलाकर कहा —
अंशु , तुम्हारे पापा और बच्चे बाहर कैरम खेल रहे हैं । बेटा , ज़रा अलमारी खोलकर सूट- साड़ियाँ निकाल … देख लेते हैं।
अंशु ने सारी नई साड़ियाँ और सूट , स्वेटर , पेंट- शर्ट सब निकालकर बाहर नीचे बिछी चटाई पर रख दिए । फिर सास- बहू ने पहले वे कपड़े अलग किए जो याद भी नहीं थे कि कब और किसने दिए थे ।
फिर उन कपड़ों को अलग किया जिनके साथ गहरी भावनाएँ जुड़ी थी जैसे – मायके , समधियाने और बहुओं के द्वारा दिए ।
देख बेटा , ये तूने नम्मू की पहली वर्षगाँठ पर दिया था । उस टाइम सोचा कि थोड़ा मोटा कपड़ा है, सर्दियों में पहनूँगी… उसके बाद कपड़ों के नीचे दब गया ।
इस तरह दोनों सास- बहू ने मिलकर क़रीब दस साड़ियाँ, दस सूट , स्वेटर -शॉल, पेंट- शर्ट ऐसे निकाले , जो याद भी नहीं थे कि कब आए या ख़रीदे और बाक़ी के कपड़े रख दिए । साथ ही अंशु ने अलमारी में रखे कपड़ों की लिस्ट बनाकर अलमारी में चिपका दी ताकि समय- समय पर देखकर याद आता रहे कि कितना कपड़ा है ।
बिस्तर पर लेटकर साधना को बड़ा हल्का सा लग रहा था । सचमुच कितने लोग ऐसे हैं कि जिनके पास ठीक से तन ढकने को कपड़े तक नहीं और दूसरी तरफ़ संदूकों और अलमारियों में इतने कपड़े भरे होते हैं कि ना तो सिलवाए जाते , ना पहने जाते यहाँ तक कि याद भी नहीं रहते ।
आज उन्होंने सोच लिया कि केवल कपड़े ही नहीं, जो चीज़ इस्तेमाल नहीं होती …. उसकी एक्सपायरी होने से पहले किसी ज़रूरतमंद को दे दिया करेंगी ।
करुणा मलिक