एक था बचपन – रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

एक मित्र थे… मतलब हैं। अपने जवानी के दिनों में सरकार में बड़े अधिकारी थे और उनकी पत्नी एक इंटर कॉलेज में प्रधानाध्यापिका थीं।

बहुत संघर्षशील और ज़हीन। आध्यात्मिक, राजनीति और योग में रुचि रखने वाले। सामाजिक और सात्विक परिवार था… है।

फिर उनके दो बच्चे हुए। एक बेटा और एक बेटी।

अब बस दोनों पति-पत्नी का एक ही उद्देश्य हो गया था कि बच्चों को योग्य बनाया जाए। उन्होंने अपनी सारी प्रतिभा, सारे शौक, सारे सामाजिक संबंध, मनोरंजन, विश्राम निंद्रा, दावतें और टूर यात्राएं बच्चों के करियर पर समर्पित कर दी। घर के टेलीविजन को कपड़े में लपेटकर दुछत्ती पर रख दिया। दोस्तों के यहां जाना आना बंद कर दिया। बस एक ही जुनून कि बच्चों को काबिल- बहुत काबिल बनना है।

बेटा उत्तर प्रदेश ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर टॉपर बन गया। समाचार पत्रों में फोटो छपे और टेलीवीजन पर इंटरव्यू हुए। बेटी भी बड़ी अधिकारी बन गई। बच्चों को योग्य बनाने की और उनका करियर संपूर्ण करने की उनकी यात्रा में उनकी जवानी के भी 20 साल खप गए किन्तु सफलता श्रम की सार्थकता होती है। 

बेटा अमेरिका में एक बड़ी फर्म का सीईओ है। वहीं विदेश में रहता है। वहीं एक विदेशी महिला के साथ घर बसा लिया है।

माता-पिता इस बात से संतुष्ट हैं कि हम अपने उद्देश्य में सफल हुए। अब बेटा बूदर रहता है तो क्या हुआ। अपनी मर्जी से घर बसाया तो ठीक है। यहाँ भारत में भी चालीस प्रतिशत लड़के लड़कियां अब अपनी मर्जी से घर बसाते हैं। और… और हम इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं कि बच्चों से यह अपेक्षा रखें कि वह अपना परिवार और कैरियर छोड़कर हमें संभालने का काम करेंगे।

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एक बार दोनों पति-पत्नी अपने बेटे के पास अमेरिका गए। बेटे बहु ने उनकी खूब स्वागत किया, आव भगत की, खातिरदारी की।

एक रात खाना खाने के बाद पूरा परिवार डाइनिंग टेबल पर बैठा था। पिता ने कहा “देख बेटा आज तेरे पास संपन्नता है। विदेश में अपना मकान है। हंसता खेलता परिवार है। जहां इसमें तेरी मेहनत शामिल है वही हमारा भी तेरे करियर के लिए समर्पण है। तू भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए ऐसे ही अपना सर्वस्व लगाना।” 

बेटा चुप।

मां ने कहा “तुझे पता है हमने तेरा भविष्य बनाने के लिए अपने सारे शौक छोड़ दिए थे। सारे मनोरंजन त्याग दिए थे। किंतु आज इस बात की खुशी है कि हम अपने उद्देश्य में सफल रहे।”

बेटा चुप।

पिता ने कहा क्या तुम हमारी बात से सहमत नहीं हो।

बेटे ने गर्दन झुका कर धीरे से कहा। “लेकिन पापा मेरा बचपन। मेरा बचपन कहां गया। आपको याद है कि मैंने एक बार आपसे किरमिच की बौल मांगी थी। किंतु अपने मना कर दिया। फिर एक बार टेनिस का बल्ला मांगा था तो आपने मुझे किताबें ला कर दीं। मेरा बचपन कहां गया पापा। आज मैं अपने पैसे से सब कुछ हासिल कर सकता हूं। यश, वैभव, कीर्ति, विलासिता। किंतु क्या उस बचपन को दोबारा जी पाऊंगा। क्या उस रिक्तता को कभी अपने जीवन में भर सकता हूं मैं।”

दोनों गहरे सोच में डूबते हुए उत्तर ढूंढ रहे थी की…।

‘एन्ड व्हाट अबाउट मम्मी पापाज गोल्डन पीरियड औफ द लाइफ।’ विदेशी पत्नी ने कहा।

दोनों की आंखें भर आई और उन्होंने स्नेह के साथ अपने विदेशी बहू की ओर देखा।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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