एक सुबह – सुनीता मिश्रा

सुबह के छह बज रहे होँगे,दिसम्बर का महीना,रजाई से निकलने के लिये हिम्मत बटोरनी पड़ती है।।जाग तो हम दोनों ही गये थे।पर उठे कौन।जो पहिले उठेगा वही चाय बनाएगा।

पति पत्नी भले ही पूरी जिन्दगी लड़ते झगड़ते बिता दे पर बुढ़ापा सच्चे दोस्त की मानिन्द होता है।चलो आज बुढऊ को चाय बनाकर हम ही पिलाए।रजाई को अपने ऊपर से निकाल कर बिस्तर पर ऐसे फेंका जैसे कोई सैनिक दुश्मन पर बारूद का गोला फेंकता है।उठकर शरीर को ताना,की लगा कोई जोर जोर से गेट बजा रहा है।शाल ओढ़ी,दरवाजा खोला,—–

दुबला पतला ,काला रंग,सिर्फ एक फटी बनियान,और हाफ पेंट पहिने ठंड से कांपता करीब दस साल का लड़का खड़ा है।

“मम्मी जी बड़ी ठंड है ,मैं मर जाऊँगा,आप एक कप चाय पिला दे।भगवान आपका भला करेगा।चाय के बाद आपके घर का काम,जो भी आप बताएंगी  कर दूँगा।”

वात्सल्य भाव जाग गया।मेरे बच्चे बाहर है न।मैने कहा–“रुक,थोड़ी देर बैठ।अभी आती हूँ ।”

उसके लिये सबसे पहिले इनकी कमीज,स्वेटर ले आई।कहा-“पहिले इसे पहिन,फिर चाय भी दूँगी।”

स्फूर्ति आ गई बूढ़ी हड्डियो मे।विदेश मे बसे अपने बच्चो के लिये ममत्व भाव ,इस लड़के के लिये भी जाग गया।गिलास मे अदरक की चाय और खाने के लिये दो गरम गरम घी के पराठे ,और कुछ नमकीन  उसे दिया।उसकी आँखो मे कृतज्ञता ,और मेरे मन मे तृप्ति का भाव एक साथ जाग गये।

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मैने पूछा-नाम क्या है तेरा?”

बोला-“कन्हैया।”

“मां बाप है?तुम पढ़ते हो?कहाँ रहते हो?”मैने इतने सारे प्रश्न एक साथ पूछ लिये।

उसने कोई जवाब देने के बजाय मुझसे पूछा  “मम्मी आप काम बता देना ।मैं कर दूँगा।”

चाय पराठे पर पिल पड़ा वह।

“बताओ क्या काम करुँ?”

“कुछ नहीं,अब तू जा ।”

उसने ज़िद पकड़ ली।मैने पीछा छुड़ाने के लिये कह दिया-

“ये बगीचा साफ कर दे।”

उसने बगीचे पर निगाह मारी।


“मम्मी आप बहुत अच्छी है।बस सौ रुपये और दे दो।अपनी छोटी बहिन के लिये समोसे,जलेबी ले जाऊंगा और खाँसी की दवा भी बापू के लिये।”

मैनें उसे रुपये दे दिये।

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सौ रुपये उसने जेब मे रख लिये।झाडू उठा काम पर लग गया।

मैं भी अंदर आकर  अपने किचिन मे लग गई।करीब एक घन्टे से ऊपर हो गया।उसकी कोई आवाज भी नहीं आ रही थी।

बाहर आकर देखा,बगीचे की सफाई,निराई,गुड़ायी और पानी भी दे दिया गया था।अमरूद के तीन पेड़ थे।उसने पके अमरूद तोड़ ,रख दिये थे,कुछ फूल तोड़ रहा था।

मेरे पास आकर बोला–मम्मी ये अमरूद आपके लिये तोड़ दिये हैं ।आप नहीं तोड़ पाती न।और फूल पूजा के लिये।”

मैं एकटक उसे देख रही थी।बगीचा सूरज की किरणों के बीच चमचमा रहा था।इतना अच्छा काम तो माली से भी नहीं होता।

वो बोला—क्या मम्मी,ऐसे क्या देखते मेरे को?आपको क्या लगा मै चाय पीकर और रुपये लेकर  भाग जाऊंगा?”

सुनीता मिश्रा

भोपाल

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