दोनों भाई एक दुसरे के साथ-साथ ही अपनी कंपनी में जाते। बडा अनीश, छोटा रोनीश। माता सुलोचना देवी अपने लाडलों को देख निहाल हो जाती। पती सोमेश की मृत्यु के बाद कुछ दिन वे संभल नहीं पायी थी। सोमेश जी थे भी इतने सेवाभावी, मृदुल और स्नेहिल। मिलनसार तो इतने कि सारा गांव उन्हें अपना लगता। किसी का कोई काम अटक गया है, तो सोमेश जी को याद किया जाता। हर उलझन सुलझाने में वे माहिर थे। हिसाब के पक्के। समय के पाबंद। व्यवस्थित दिनचर्या थी उनकी। लेकिन नियति ने उनके जीवन के
जमा-तोड हिसाब में ऐसी दखल अंदाजी दी कि के वे अचानक हृदयाघात से चल बसे। सुलोचना देवी हैरान थी, कि कैसे चलते-फिरते कोई इंसान दुनिया छोड चला जा सकता है।
अब तक उन्होंने कंपनी का कोई कामकाज सहेजा नहीं था। सोमेश जी हमेशा टोकते,
” अरे भागवान, ये दिनभर चकला बेलन ले रसोई में क्यों घुसी रहती हो? चलो, कुछ कंपनी का काम काज सीख लो।”
“आप हो न।”
” मैं घर संभालती हूं, आप कंपनी संभालिये।”
” कल को मुझे कुछ हो गया तो?”
पल भर में रुआंसी हो जाती वे।
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” अजी, आपको कुछ नहीं होगा।
शुभ-शुभ बोलिए। “
शांत झील सी ठहर जाती वे।
अनीश और रोनीश अभी तक इतने बडे नहीं थे कि अकेले सारा काम-काज संभाल सके। मजबूरन सुलोचना जी कंपनी का काम संभालने लगी।
गाडी धीरे-धीरे पटरी पर चलने लगी। अनीश का मित्र सुजीत को दोनों
भाईयों का स्नेह देखकर जलन होने लगी। अपनी मीठी जुबान से उसने अनीश को बहकाया।
खेत से निकला धान, कंपनी का माल बेचने की बात पर दोनों भाईयों में बहस हो गयी। एक दुसरे से बोलना बंद हो गया।
सुलोचना देवी खूब समझाती। पर जब अहं आडे आ जाये, समस्या गहरा जाती है। कौन पहले माफी मांगे?
चिंता मनुष्य को खोखला कर देती है। सुलोचना देवी अब बिमार रहने लगी।
दोनों अपनी मां को बहुत चाहते थे। अपनी-अपनी तरफ से सेवा करते।
आज उन्हें तेज बुखार था। लेकिन उन्होंने साफ कह दिया,
” जब तक तुम दोनों प्यार से नहीं रहोगे, हम दवाई नहीं लेंगे।”
माता की हालत बिगडती जा रही थी। चाचा जी की बेटी रमा उनसे मिलने आयी थी। सगी बहन तो थी नहीं। लेकिन वे दोनों रमा दीदी का बहुत सम्मान करते थे। रमा दीदी ने आते ही दोनों को फटकारा।
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” इतना गरूर किस बात का है तुम्हें?”
” सगे भाई हो, सौतेले भी इस तरह नहीं लडते।”
” ऐरे-गैरे की बातों में आकर खुद कमजोर हो रहे हो। खुद का घर बिखेर रहे हो। जरा भी चिंता है काकी की तो दोनों मेरे सामने माफी मांगो। नहीं तो हमारा रिश्ता खत्म समझो।”
तीर निशाने पर लग गया था।
दोनों ने तुरंत माफी मांग ली और रमा दीदी से आशीर्वाद लिया।
” पुन: ऐसी भूल मत करना। हिलमिल प्रेम से रहो दोनों।”
सुलोचना देवी ने रमा को गले लगा लिया।
” मेरी लाडो, देख तेरे दोनों भाई अब कितने खुश है।”
” हां काकी, मेरी सहेली सुमी ने मुझे सब बता दिया था।”
“अब तो आप खुश हो न?”
आंखों से आंसू बह रहे थे,
” हां लाडो, तुम्हारी कोशिश रंग लायी।”
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” एक माफी ने बिगड़ने से पहले रिश्ते सुधार दिये।”
” मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूं।”
” काकी, आपने तो मुझे पराया कर दिया।”
” नहीं मेरी लाडो, ऐसे कभी नहीं होगा।”
” चलो, अब रोना-धोना बंद करो। एक बार मुस्कुरा दो।”
दोनों की खिलखिलाती हंसी से घर परिवार चहकने लगा।
स्वरचित मौलिक कहानी
चंचल जैन
मुंबई, महाराष्ट्र