भोर का उजाला हो चुका था। रोज़ की तरह अपनी आदत अनुसार कामिनी जी उठी और स्नानादि कर मंदिर की ओर निकल गई। पिछले कई सालों से उनकी यही दिनचर्या थी।सुबह मंदिर से आते हुए गौशाला होते हुए आना।उनकी यह दिनचर्या शायद तब से थी जब से वह ब्याह कर चौधरी खानदान की बहू बनी थी।
आज से लगभग पैंतालीस वर्ष पहले जब वह बीस वर्ष की युवती थी उनका विवाह रमाकांत चौधरी के बड़े पुत्र सुधाकर बाबू से हुआ। चौधरी खानदान एक संयुक्त परिवार था।रमाकांत जी के छोटे भाई भी उनके साथ रहते.. उनके माता-पिता भी जीवित थे।दादी सास ,अपनी सास और चचिया सास का डर अपने मन में दबाए अल्हड़ कामिनी ससुराल आ गई।
उसकी दोनों ननदें और चाची के दोनों बेटे उसे दिन भर घेरे रहते। नई भाभी का बच्चों में बहुत चाव था और कामिनी तो खुद भी बच्ची थी… सबके साथ मिलकर खूब मस्ती करती।सबके साथ बहुत प्यारा सा बंधन बन गया था उसका।सास स्नेह लता जी अपने नाम के अनुसार ही बहुत स्नेहिल थी इसलिए अपनी इकलौती और प्यारी बहू को दादी सास की डांट से बचाने का भरसक प्रयास करती
खैर दिन बीत रहे थे। कामिनी धीरे-धीरे ससुराल के रंग में रमती जा रही थी।वो सवेरे उठकर ही काम शुरू कर देती। इतने बड़े परिवार में रिश्तेदारों और मित्रों का आना जाना लगा रहता।उसके मिलनसार और खुशमिज़ाज स्वभाव के सब मुरीद होते जा रहे थे।सास की लाड़ली तो वह थी ही अब दादी सास भी अपने हर काम के लिए उसे ही आवाज देती ,”अरी ओ कम्मो रानी… ज़रा घुटनो की मालिश तो कर जा… बैठी होगी अभी बच्चों के साथ अपनी पंचायत लगाकर”, दादी की आवाज़ आती।
कामिनी कटोरी में तेल भरकर पहुंच जाती उनके पास,” क्या है दादी अभी बिट्टू (चाची का बेटा) को हरा देती मैं.. तुम्हें भी अभी आवाज़ लगानी थी”, वह बिना कुछ सोचे अपना गुस्सा ज़ाहिर कर देती और फिर बैठ जाती उनकी मालिश करने।
आज तक घर में किसी की हिम्मत नहीं थी दादी से ऐसे बात करने की पर कामिनी में कुछ तो बात थी जो उसके गुस्सा जताने पर भी दादी मंद मंद मुस्कुरा उठती। कामिनी का यह बचपना.. यह अल्हड़पन.. यह मासूमियत सबको भाती.. सिवाय उनके खुद के पति सुधाकर बाबू के।
सुधाकर बाबू सरकारी दफ्तर में बड़े ओहदे पर कार्यरत थे। धीर गंभीर से सुधाकर बाबू का अल्हड़ कामिनी से बंधन असंभव सा था। दोनों एक-दूसरे के विपरीत अलग-अलग सोच रखने वाले थे।जहां सुधाकर बाबू को एकांत में बैठ किताबें पढ़ना पसंद था.. वहीं कामिनी को लोगों के साथ बातें करना भाता था।जहां कामिनी घूमने फिरने की शौकीन थी वहीं सुधाकर बाबू समाचार पत्रों में सिर गढ़ाए रहते… दोनों के बीच में एक खामोश सा बंधन था।
समय अपनी गति से चलता जा रहा था। कामिनी अब मां बन गई थी.. दो पुत्र और एक पुत्री होने पर उसका स्वभाव तो नहीं बदला था पर उसका बचपना खत्म हो गया था। दादा दादी भी जा चुके थे। चाचा के बेटे नौकरी के लिए बाहर चले गए तो उन्होंने अपने माता-पिता को भी अपने पास बुला लिया पर..
यह भी सच था कि चाचा चाची के जाने पर कामिनी ऐसे फूट-फूटकर रोई जैसे कोई अपने माता-पिता से ही बिछड़ रहा हो। घर में और वह सास ससुर, बच्चों और सुधाकर बाबू के साथ रह गई थी।
दोनों ननदों का विवाह हो चुका था। ननदें कहने को तो दूसरे शहर में ब्याही थी पर कामिनी उन्हें हर तीज त्यौहार पर न्योता भेजती थी। इसीलिए तो वे मां से कम पर अपनी भाभी के ज़्यादा करीब थी। इतने सालों में कुछ नहीं बदला था तो वह था सुधाकर बाबू का स्वभाव।वह आज भी वैसे ही धीर गंभीर थे।कभी कभी कामिनी को भी टोक देते ,” हर बार यह हंसी ठिठोली अच्छी नहीं लगती”।
कामिनी जवाब देती,” तो क्या चाहते हो..इन दीवारों की तरह खामोश हो जाऊं”?और फिर अपने काम में लग जाती।
बच्चे बड़े हो गए थे.. कामिनी और सुधाकर बाबू की अच्छी परवरिश खूब रंग लाई थी। बेटी डॉक्टर बन गई थी.. उसका ब्याह भी एक डॉक्टर से ही हो गया था ।दोनों बेटे भी अच्छी खासी नौकरी पा गए थे।एक इंजीनियर बन गया था और एक ने एमबीए कर एक बड़ी कंपनी में नौकरी हासिल कर ली थी।
अब कामिनी को उनकी शादी की चिंता थी।एक दो जगह बात चली तो बड़े बेटे का रिश्ता तय हो गया। आखिर कौन अपनी बेटी चौधरी खानदान में नहीं देना चाहता था। कामिनी का मिलनसार स्वभाव सबको पता था।
“अब बहू आने वाली है अब थोड़ा संभल कर बोलना”, सुधाकर बाबू ने एक बार फिर से कामिनी को कहा।
“बहू आएगी तो क्या चुप्पी लगा जाऊं… क्या वह मेरा बोलना बंद करवा देगी? आप तो बस यही चाहती हो कि मैं कुछ कहूं ही ना…जब चली जाऊंगी तो इन खामोश दीवारों से ही कहना बातें करने को.. कोई और नहीं आने वाला आपके पास… बच्चें भी घबराते हैं आपसे”, कामिनी बिफर उठी थी।इतने सालों में भी दोनों के बीच में एक खामोश सा बंधन ही बस बन पाया था।
सुधाकर बाबू समझ गए थे कि इसे बोलना बेकार है। खैर बड़े बेटे के साल भर बाद ही दूसरे बेटे की भी शादी हो गई।कामिनी जहां पहले ननदों और देवरों की प्रिय हुआ करती थी अब बहुओं की भी बन गई। चाहे वह कम पढ़ी लिखी थी पर परिवार के मोतियों को एक डोरी में कैसे पिरोए रखना है
वह भली भांति जानती थी। बेटों और बहुओं के साथ एक मज़बूत सा बंधन था उसका। बहुओं को सदा बेटियों जैसा ही भरपूर प्यार देती। हां.. आम घरों की तरह यहां भी मसले होते पर वह बिना किसी का पक्ष लिए सब को एक ही कटघरे में खड़ा कर समझा देती।
“घर की बात घर तक ही रहनी चाहिए.. एक छोटी सी बात भी जब घर की दहलीज़ लांघ जाती है तो बवाल बन जाती है” हमेशा बेटे बहुओं को वह यही सीख देती ।उसकी सूझ बूझ ही थी कि आज तक लोगों को उनके घर से कोई झगड़ा या बात सुनने को नहीं मिली थी। सास ससुर भी कब का साथ छोड़ चुके थे। पूरे घर की बागडोर अब कामिनी ही संभालती थी।
आज गौशाला से आने के बाद कामिनी को अपनी तबीयत थोड़ी खराब लगी। मन में घबराहट सी हुई और पेशानी पर पसीने की बूंदें छलक उठी। बेटे अभी घर पर ही थे। सुधाकर बाबू घर के बगीचे में बैठे हुए थे। देखते ही देखते कामिनी की सांसें उखड़ने लगी। बहुएं जल्दी से पानी ले आई। बेटों ने जल्दी से एंबुलेंस के लिए फोन कर दिया। सभी उनके हाथ-पैर मलने लगे ।सुधाकर बाबू के हाथ से दो घूंट पानी पीकर कामिनी ने आंखें मूंद ली। एंबुलेंस के आने से पहले ही वह अपनी दूसरी यात्रा पर निकल चुकी थी।
सब का रो-रोकर बुरा हाल था। सारा खानदान इकट्ठा हो गया था। सब तेरहवीं तक यहीं रहे। बेटी को विदा करते वक्त सुधाकर बाबू भी अपना संयम खो बैठे थे।धीरे-धीरे सब जा चुके थे।
कामिनी को गए अब एक महीना होने को आया था।सब कुछ यंत्रवत चल रहा था पर..कहीं कुछ छूट सा गया था।अब उसकी हंसी की आवाज़ नहीं आती थी।उसके साथ उसकी मस्ती भरे कहकहे भी कहीं खो गए थे। घर में बेटे बहू सब थे पर.. सुधाकर बाबू को सब खामोश से लगते जैसे वे सब हंसना ही भूल गए हों। उन्हें लगता जैसे कामिनी के साथ उनका एक खामोश सा बंधन कहीं टूट कर बिखर गया हो शायद अंदर ही अंदर यह खामोश बंधन ही उन्हें मज़बूती प्रदान करता आया था।
रात को कमरे में बैठे उन्हें कामिनी के शब्द याद आए जैसे कह रही हो ,” कह दो इन खामोश दीवारों से कि बोल उठें”और उसे याद कर सुधाकर बाबू की सिसकियां आसपास की खामोश हवा में घुल गई।
स्वरचित।
#बंधन
गीतू महाजन,
नई दिल्ली।