दिलीप और भारती का परिवार एक मध्यमवर्गीय परिवार था। दिलीप एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी करता था और भारती अपनी गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाती थी। वह घर के सारे कार्य अपने हाथ से करती ,और बहुत मितव्ययी थी। दो बेटे थे उन्हें हमेशा अच्छे संस्कार देने की कोशिश की।
उनकी शिक्षा दिक्षा का बराबर ध्यान रखा, किसी चीज की कमी नहीं होने दी, मगर अनिल और सुनिल दोनों का पढ़ाई में ध्यान नहीं था। जैसे- तैसे दोनों ने स्नातक की डिग्री हांसिल की। बड़े बेटे अनिल ने एक कंपनी में नौकरी कर ली और सुनिल एक कपड़े की दुकान में काम करने लगा। समय के साथ दोनों का विवाह हो गया।
गीता और सुमन दोनों सामान्य परिवार की लड़कियां थी मगर उनकी ख्वाइशें बड़ी-बड़ी थी। दोनों को घूमने फिरने का सजने संवरने का बहुत शोक था। वे चाहती थी कि घर के काम करने के लिए कामवाली रख ले, दोनों ही काम करने की आलसी थी। भारती जी ने कई बार समझाया कि बेटा हमारी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है।
घर का ही काम है हम तीनों मिलकर कर लेंगे, मगर उन्हें भारती जी का समझाना बुरा लगता था। आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपय्या वाला हिसाब था।
अनिल और सुनिल को अपनी पत्नी की बातें सही लगती थी,वे घर की समस्याओं को समझ ही नहीं पा रहै थे। घर की शांति भंग हो गई थी। घर में रोज काम करने को लेकर झगड़ा होता, दोनों बहुएं आपस में झगड़ती। दोनों की इच्छा थी कि वे परिवार से अलग होकर अपनी गृहस्थी बसाऐं, वे सोच रही थी
कि जब अलग रहेंगे तो खर्चा कम होगा और काम भी कम करना पड़ेगा। वे अपने शोक पूरे कर पाएंगी। किसी बात की टोकाटोकी नहीं होगी। घर में कलह इतना बढ़ गया था कि दिलीप जी और भारती जी के न चाहते हुए भी परिवार तीन भागों में विभाजित हो गया।दिलीप जी का मकान इतना बड़ा नहीं था
की तीन भागो मे बाटा जा सके। दोनों किराए का मकान लेकर रहने लगे। अब दोनों को समझ में आने लगा था, कि गृहस्थी को चलाना कितना कठिन होता है। अब तो उन्हें अपने घर के काम हाथ से ही करना पढ़ रहा था। घर खर्च भी मुश्किल से पूरा पढ़ रहा था। अनिल की एक लड़की थी और सुनिल को एक लड़का।
बच्चे अभी छोटे थे, उन्हें यह चिन्ता सता रही थी कि इनकी पढ़ाई का खर्च कैसे करेंगे।जब माता पिता के साथ थे तो चिन्ता नहीं थी,मकान का किराया नहीं लगता था और माता-पिता की छत्रछाया थी। दिलीप जी सेवानिवृत्त हो गए थे, उन्हें सेवानिवृत्ति पर इकट्ठा पैसा मिला और उनकी एक निश्चित पेंशन उन्हें मिलने लगे।
एक बार दोनों बेटे दिलीप जी के घर आए और कहने लगे ‘पापा आपको जो पैसा मिला है उससे हम ऊपर दो हिस्सो मे मकान बना लेते हैं, आपका भी बुढ़ापा है, हम पास में रहेंगे तो आपको सहारा मिलेगा।’ दिलीप जी तो बेटो की बात में आकर हॉं कर देते मगर भारती जी ने मना कर दिया। वे बोली -‘बेटा!तुम कहीं बाहर गाँव मे तो हो नहीं,
हमें जब भी जरूरत होगी हम फोन लगाऐंगे तो आकर सम्हाल लेना। हमारा तुम्हारे सिवा कौन है। पर अब ऊपर मकान बनाने की मेरी इच्छा नहीं है।’ दोनों के मंसूबो पर पानी फिर गया, वे अपने घर चले गए।
दिलीप जी ने कहा ‘तुमने मना क्यों किया, बच्चे पास में रहते तो अच्छा रहता, हमारे पास जो हैं सब उन्हीं का तो है।’ भारती ने कहा-‘आप एक दिन दोनों को खबर करो कि मेरा स्वास्थ ठीक नहीं है।फिर देखो कौन आता हैआपकी सेवा करने।’ ‘कैसी बातें करती हो भारती,दोनों दौड़ते हुए आऐंगे।’ ‘ईश्वर करे ऐसा ही हो।
‘भारती ने कहा। एक दिन भारती जी का स्वास्थ खराब हो गया,दिलीप जी ने दोनों बेटों को फोन लगाया कि उनका स्वास्थ ठीक नहीं है, उन्हें डॉक्टर के पास ले जाए पर दोनों नहीं आए। पड़ौस में रहने वाले श्याम को साथ ले वे उन्हें अस्पताल ले गए। जब भारती जी ठीक हो गई, तब एक दिन भारती ने कहा कि -‘उसके पापा ने अपना मकान और सारी दौलत यह सोचकर कि बेटे के अलावा उनका कौन है, वही बुढ़ापे में सहारा बनेगा अपने बेटे के नाम कर दी।
मेरे भैया ने पापा की यह हालत कर दी कि वे पैसे- पैसे के लिए मोहताज हो गए। मैं जब भी मायके जाती पापा की दशा देखते नहीं बनता था,मेरे पापा का ठीक से इलाज भी नहीं हो पाया और वे दुनियाँ छोड़कर चले गए। मैंने कई बार उन्हें अपने यहाँ लाने की बात की मगर वे तो बेटी के घर का पानी पीना भी पाप समझते थे।
आप कहते हैं ना कि अब मैं मायके क्यों नहीं जाती हूँ, आज आपको बता रही हूँ।’फिर वे कुछ रूककर बोली -‘अनिल, सुनिल हमारे बेटे है। हमारा जो कुछ है उन्ही का है,मैं चाहती हूँ वे पैसो की अहमियत को समझे और उद्यम करे। अभी उनकी उम्र है मेहनत करने की।मैं नहीं चाहती कि हम सब कुछ उनके हाथ में सौंप दे
और पैसो पैसो के लिए मोहताज हो जाए, कुछ पैसा होगा तो बुढ़ापे में किसी के आश्रित नहीं रहेंगे। क्योंकि ईश्वर ने जितना जीवन दिया है, वह तो जीना ही है, किसी के मोहताज क्यों रहैं?पैसा होगा तो कोई भी मदद कर देगा।
अगर उनमें सेवा का भाव होता तो वे घर छोड़कर जाते ही क्यों? मेरी तबियत खराब हुई तब आपने देख लिया ना…. । ‘कहते कहते उनकी आवाज भर्रा गई। दिनेश जी भारती की मनोदशा समझ रहै थे, उन्होंने कहा -‘तेरा कहना सही है।पर तू क्यों चिन्ता करती है, मैं हूँ ना तेरे साथ। हम है ना एकदूजे का सहारा, किसी के मोहताज नहीं है।’
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
# मोहताज