अब आगे •••••••••
चयन प्रक्रिया का तीसरा दिवस व्यतीत हो चुका था परंतु महारानी को अभी उत्तराधिकारी की प्राप्ति नहीं हुई थी। मंत्री, सेनापति आदि विस्मय से देख रहे थे कि आखिर महारानी इस प्रश्न के माध्यम से बच्चों में क्या ढूंढ रही हैं? तभी एक सात वर्षीय बालक महारानी के समक्ष उपस्थित हुआ – ” बोलो बेटे….. ।”
” मुझे हाथी और घोड़ा चाहिये।”
तुरंत सोने चांदी आदि धातुओं से लेकर काठ तक के हाथी और घोड़े बालक के समक्ष लाये गये परंतु बालक ने उन्हें लेना अस्वीकार कर दिया –
” मुझे खिलौने नहीं चाहिये ।मुझे वास्तविक हाथी चाहिये जिस पर मैं अंकुश लगा सकूॅ। सवारी के लिए घोड़ा चाहिये । आखेट के लिये धनुष चाहिये , तलवार चाहिये जिससे मैं शत्रुओं को मार सकूं।”
बालक के शब्दों से अधिक ओजस्वी मुखमंडल ने महारानी को संतुष्ट कर दिया उन्होंने बालक को कंठ से लगा दिया और अगले ही क्षण ” युवराज राघवेन्द्र की जय” के गगनभेदी घोष से वायुमंडल गूंज उठा।
प्रारम्भ से ही युवराज राघवेन्द्र वीरता और पराक्रम का प्रतिरूप थे। भय तो उनके निकट भी नहीं आ सकता था।अध्ययन, चिन्तन, मनन के स्थान पर उन्हें शस्त्रों के संचालन में अधिक रुचि थी। बहुत कम उम्र में ही वह कुशल योद्धा बन गये।
विभिन्न प्रकार के आयुध और शस्त्रों के परिचालन में उन्होंने बाल्यावस्था से ही निपुणता प्राप्त कर ली थी। प्रजा और महारानी प्रसन्न थे कि भविष्य में संदलपुर के सिंहासन पर कोई ऑच नहीं आयेगी और वह सुरक्षित हाथों में सदैव उन्नति करेगा।
युवराज किशोरावस्था को पार करके युवा हो रहे थे परन्तु उनके बाल्यावस्था के गुण अब दुर्गुणों में परिवर्तित होने लगे थे। उनकी जिस वीरता और पराक्रम पर महारानी सहित प्रजा मुग्ध और प्रसन्न थी उसमें क्रूरता और अत्याचार समाहित होने लगे।
आखेट उनका प्रिय व्यसन था। युवा होते होते उनकी महत्वाकांक्षा चक्रवर्ती सम्राट बनने का स्वप्न देखने लगी।
इतने वर्षों तक कठोर जीवन व्यतीत करने के कारण महारानी का स्वास्थ्य भी अनुकूल नहीं रहने लगा तो उन्हें राज काज से विरक्ति होने लगी। कुछ अस्वस्थता और कुछ पुत्र पर अतिशय प्रेम एवं विश्वास के कारण महारानी सारे अधिकार युवराज को सौंपती चली गईं। केवल रामलला के दर्शन के अतिरिक्त उन्होंने महल से बाहर निकलना छोड़ दिया।
आखिर राज्य की बागडोर पूरी तरह से युवराज के हाथों में आ गई। युवराज निरंकुश हो गये, उनके चाटुकारों की संख्या में वृद्धि होने लगी। राज्य के अधिकारी लुटेरे और व्यभिचारी हो गये, अराजकता का नग्न ताण्डव होने लगा। किसी का भी महारानी से सम्पर्क करना या मिलना निषिद्ध कर दिया गया।
अत्याचारों एवं करों के भार से प्रजा तड़पने लगी। महारानी के स्नेह एवं प्रेम ने सबके अधर बन्द कर रखे थे। अतः महारानी को वस्तुस्थिति से अवगत कराने का किसी में साहस नहीं था।
युवराज के विशेष गुप्तचरों का समूह निकटवर्ती राज्यों में अशांति फैलाने लगा तो युवराज की साम्राज्य वृद्धि की लोलुप प्रवृत्ति स्वत: प्रकट हो गई परंतु महाराज अखिलेन्द्र एवं महारानी मोहना के साथ मधुर संबंधों के कारण शत्रुता प्रकट तो नहीं हुई
परंतु भीतर ही भीतर गीली लकड़ी सी सुलगने लगी। सीमावर्ती राज्यों ने अपनी सुरक्षा व्यवस्था सुदृढ़ कर दी और सतर्क हो गये।
आखिर प्रजा कब तक सहन करती, अन्ततः उसके धैर्य का प्याला छलक गया। कहते हैं राज्य की सत्ता जब भी पथभ्रष्ट हो जाये तो बुद्धिमानों और पुरोहितों का कर्तव्य होता है कि वह निडर होकर सत्ता का मार्गदर्शन करे। जिस सत्ता में विद्वत जन लोभ वश मार्गदर्शन की भूमिका त्याग कर चारण बन जाते हैं,
उस सत्ता का विनाश सुनिश्चित है। इसीलिये राज्य के पुरोहितों और ब्राह्मणों के नेतृत्व में प्रजा ने रामलला की साक्षी में महारानी को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। राघवेन्द्र पर उन्हें अपार विश्वास था या पुत्र मोह ने उनकी ऑखें बन्द कर दी थीं। उन्हें विश्वास था कि उनके बाद राज्य की सत्ता सम्हाल कर राघवेन्द्र योग्य शासक सिद्ध होंगे।
आज सत्य के सूर्य के समक्ष नेत्रों से पुत्र मोह का परदा हटा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि अतिशय विश्वास के कारण उनसे कितना बड़ा अनर्थ हो गया और जिसका परिणाम उनकी प्रिय प्रजा को भुगतना पड़ा है।
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एक भूल …(भाग-16) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर