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प्रजा के आग्रह और निवेदन से सोलह वर्ष की कोमल कलिका सी राजकुमारी मोहना शासन की बागडोर पकड़ कर गरिमामयी महारानी बन गई। रामलला की मोहक छवि में राजकुमार को निहारते और पूजते हुये बाल्यावस्था और किशोरावस्था पार किया था ।
जब यौवन के द्वार पर खड़े होकर राजकुमार के मिलन की प्रतीक्षा कर रही थीं तब उनके प्रारब्ध में विधाता द्वारा आजीवन की प्रतीक्षा लिख दी गई थी।
अपनी एक भूल के कारण ईश्वर द्वारा निर्धारित दंड को शिरोधार्य करके राजकुमारी ने अपनी सारी आकांक्षाओं, उमंगों और कामनाओं को पश्चाताप की अग्नि में दहन करके कर्तव्य, त्याग एवं तपश्चर्या के लिये अपना जीवन अर्पण कर दिया। रामलला को ही राजकुमार मणिपुष्पक मानकर उन्हें ही जीवन का आधार और सर्वस्व स्वीकार करके योगिनी बन गई।
मायके से साथ आये रामलला को भव्य मंदिर में प्रतिष्ठित कराकर उन्हीं को राज्यभार सौंप दिया। दशरथ नंदन भरत ने तो केवल चौदह वर्ष पादुका राज्य किया था परन्तु राजकुमारी मोहना ने तो आजीवन रामलला के रूप में राजकुमार की स्मृतियों के सहारे राज्य किया।
प्रातः राजकुमारी मोहना रामलला के दर्शन और आराधना के पश्चात अपनी प्रजा को सार्वजनिक दर्शन देती थीं। उस समय मन्दिर के विशाल प्रांगण में रामलला की साक्षी में की गई कोई भी याचना व्यर्थ नहीं जाती थी।
महाराज अखिलेद्र ने तो प्रजा को पुत्रवत स्नेह दिया था परन्तु महारानी मोहना ने जन जन के हृदयों पर राज्य किया। अपनी अनजान में की गई एक भूल के लिये अपने जीवन का हर सुख, वैभव त्याग कर सन्यासिनी बने उनके जीवन को देखकर प्रजा नत मस्तक थी।
मोहना ने श्वेत, धवल रंग के अतिरिक्त हर रंग को त्याग दिया। यहॉ तक उनके उपवन में भी श्वेत पुष्पों को ही पुष्पित और पल्लवित किया जाता था। केवल रामलला के वस्त्रों और श्रंगार में ही विविध रंगों का प्रयोग किया जाता था। राजकीय और सुस्वादु भोजन के स्थान पर केवल जीवन निर्वाह हेतु सादे और शुष्क भोजन को अंगीकार कर लिया।
जब महारानी के अंगों में प्रौढावस्था का प्रवेश हुआ तो प्रजा के समक्ष ” महारानी के बाद कौन?” का प्रश्न आकर खड़ा हो गया। प्रजा उत्तराधिकारी के लिए चिंतित रहने लगी और अंत में मर्मज्ञ कुल पुरोहित के नेतृत्व में प्रजा ने महारानी के समक्ष
रामलला के दरबार में प्रात: की पूजा अर्चना के पश्चात अपनी प्रार्थना निवेदित की। कुछ क्षण के लिए तो महारानी हतप्रभ रह गई और नेत्र बन्द करके विचार मग्न हो गई। प्रजा न्याय की प्रतीक्षा में महारानी को निहारती रही
कुछ क्षण तक ध्यान मग्न रहकर मनन के पश्चात जब महारानी ने अपने नेत्र खोले तो उनके अधरों पर मधुर मुस्कान क्रीड़ा करने लगी –
” यह सर्व विदित है कि रामलला की साक्षी में किसी को निराश करने का मेरा साहस नहीं है। परम न्यायी रामलला ही मेरे पति मणिपुष्पक हैं जो मेरे प्राण है। अतः आप सबकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।”
महारानी ने मंत्रिपरिषद से मंत्रणा की और सन्दलपुर में बाल उत्सवों का भव्य आयोजन किया गया। बच्चों के मनोरंजन, भोजन, क्रीड़ा और भ्रमण हेतु विस्तृत व्यवस्था की गई। इस उत्सव में धनवान और निर्धन का भेदभाव किये बिना
पूरे राज्य के चार वर्ष से लेकर दस वर्ष तक के बालक बालिकाओं को आमंत्रित किया गया। बच्चों की सेवा और सुविधा के लिये अनेक दास दासियों को नियुक्त कर दिया गया। सभी को ज्ञात था कि इन्हीं बच्चों में कोई भाग्यशाली संदलपुर का उत्तराधिकारी होगा। महारानी स्वयं उत्तराधिकारी का चयन करेंगी।
पूरे राज्य में धूमधाम थी। बच्चों की प्रसन्नता शरारतों, खिलखिलाहटों, चंचलता से मानो पूरा नगर आलोकित हो उठा। नियत समय पर महारानी सिंहासन पर विराजमान हुई और एक-एक करके कक्ष में उनके समक्ष बालक बालिकाएं उपस्थित होने लगे। महारानी हर बच्चे से एक ही प्रश्न पूॅछती –
” बोलो बेटे, तुम्हें सबसे अच्छा क्या लगता है? क्या चाहिये तुम्हें?” बच्चों की इच्छा पूर्ति के लिए अनेक दास – दासियॉ तत्पर थे जो बच्चों की इच्छा की तुरंत पूर्ति करते जा रहे थे। कुछ ने अच्छा भोजन, मूल्यवान, वस्त्र, आभूषण खिलौने ,कुछ ने रथ पर बैठकर नगर भ्रमण तो कुछ ने राजमहल अवलोकन, कुछ ने शिक्षा प्राप्त करने की भी इच्छा व्यक्त की।
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एक भूल …(भाग-15) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर