अब आगे ••••••••
महाराज अखिलेंद्र से सत्य जानकर और वन प्रान्त में राजकुमार द्वारा बनाया अपना ही अपूर्ण चित्र वक्ष से लगाकर वह बिलखने लगीं –
” मैं निर्दोष होते हुये भी अपराधिनी हूॅ। मैंने तो बचपन से राजकुमार की आराधना की है और अन्तिम श्वास तक करती रहूॅगी। मैं तो वाग्दान होते ही उनके साथ जन्मजन्मांतर के सम्बन्ध में आबद्ध हो गई थी। यदि मेरे माता-पिता सत्य से अवगत करा देते
तो मुझसे ऐसी भूल कभी न होती। क्षत्रिय ललनायें तो युद्ध के लिये प्रस्थान के समय प्रसन्नता पूर्वक पति को विदा कर देती हैं। राजकुमार का तो मात्र बाह्य स्वरूप परिवर्तित हुआ है, भीतर से तो अब भी वही मणिपुष्पक हैं जिन्हें मैंने प्रेम किया है ।”
राजकुमारी ने महाराज के समक्ष दोनों हथेलियॉ जोड़ कर सिसकते हुये करबद्ध प्रार्थना की – ” अपने कटु शब्दों के लिये आप और राजकुमार जो भी दंड देंगे, मैं शिरोधार्य कर लूॅगी परन्तु मेरे स्वामी का पता लगाइये।”
राजकुमारी की सिसकियों के मध्य ही महाराज राजकुमारी के शिविर से बाहर आ गये। कहते हैं कि कमान से निकला तीर और जिह्वा से निकले शब्द कभी वापस नहीं आते। अनजान में भूल से राजकुमारी की जिह्वा से निकले शब्द उनके जीवन का अभिशाप बन गये। रामलला ने उन्हें क्षमा नहीं किया।
जलाशय में तैरती राजकुमार की मृत काया को देखकर महाराज ने हृदयाघात ( हार्ट अटैक ) से प्राण त्याग दिये। राजकुमार ही उनका सर्वस्व और जीवनाधार थे। महारानी अनुराधा का वियोग उन्होंने राजकुमार का मुख देखकर ही सहन कर लिया था।
राजकुमारी दुख, चिन्ता एवं ग्लानि से हतप्रभ रह गईं। यह क्या हो गया? सुहाग सेज के स्थान पर उन्हें वैधव्य प्राप्त हुआ। यौवन से परिपूर्ण देह पति के स्पर्श बिना अछूती रह गई। सुहागन बनने के पूर्व ही वह विधवा हो चुकी थीं।
पति के संग अभिसार और मादक स्वप्नों के स्थान पर उनके नेत्रों में स्वप्नों की भस्म समा गई। बाल्यावस्था से अब तक पल पल राजकुमार के सामीप्य और मिलन की आस संजोये उनके मेंहदी लगे हाथ रीते हो गये। नववधू का श्रंगार उनके लिये अंगारे बन गया। दुख से राजकुमारी पाषाण बन गईं।
राजकुमारी और बारात के स्वागत के लिये राजधानी दुल्हन सी सजाई गई थी। पूरे नगर को तोरण, पताकाओं,बन्दनवारों और फूलों से सजाया गया था। स्थान स्थान पर मंगल कलश लिये कुलवधुयें, पुष्प और लाजा ( खील )की वर्षा को तत्पर प्रजाजन, चौंकों, चौराहों और वीथियों में सजी अल्पनायें सिसकती रह गईं। उल्लास एवं प्रसन्नता का उमड़ता सागर क्रन्दन, ऑसुओं और सिसकियों में परिवर्तित हो गया।
राजकुमारी ने सारे स्वप्नों की चिता जलाकर अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। चन्द्र ज्योत्सना के स्पर्श से भी मलिन होने वाली राजकुमारी मोहना ने जब अपने मेंहदी रचे हाथों से महाराज अखिलेन्द्र और राजकुमार मणिपुष्पक की देह को चिता को समर्पित करके अन्तिम विदाई दी तो प्रजा हाहाकार कर उठी।
महाराज देवकुमार और महारानी यशोधरा ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि उनकी एक भूल का इतना भयंकर परिणाम होगा। पुत्री के समक्ष लज्जा और ग्लानि से उन दोनों के मस्तक झुके हुये थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहकर अपनी पुत्री से क्षमा मॉगें या सान्त्वना दें –
” हमें क्षमा कर दो पुत्री, हमारी एक भूल के कारण ही इतना बड़ा अनर्थ हो गया है। हम ••••••।”
लेकिन राजकुमारी ने महाराज और महारानी के अधिक कुछ कहने के पूर्व ही गंभीर स्वर में अपना निर्णय सुना दिया – ” भूल किसकी है या किसकी नहीं, अब यह सब विचार करने का कोई औचित्य नहीं है परन्तु अब यही मेरा प्रारब्ध है।
राजकुमार मणिपुष्पक की पत्नी बनते ही संदलपुर ही मेरा भाग्य बन गया है। आपने मुझे सौभाग्यवती के रूप में विदा किया था, दुबारा सुहागिन के रूप में राजकुमार के साथ मायके की भूमि पर कदम नहीं रख पाई। इसलिये मायके से मैंने अन्तिम विदाई ले ली है अब वैधव्य को ऑचल में समेटे कभी मायके नहीं आऊॅगी। यही सन्दलपुर की भूमि में ही अन्तिम सॉसें लेना है मुझे।”
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एक भूल …(भाग-14) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर