अब आगे ••••••••
कुछ देर पूर्व जहॉ सभी प्रसन्नता से ओतप्रोत थे। सर्वत्र विषाद का वातावरण छा गया। राग रंग, संगीत और वाद्ययंत्र शान्त हो गये। राजकुमारी की सखियों और दास दासियों सहित सभी के मुखों पर वेदना की कालिमा छा गई।
राजकुमारी के शब्द धीरे धीरे सर्वत्र फैलते हुये आखिर महाराज अखिलेन्द्र और राजकुमार मणि पुष्पक तक पहुॅच ही गये तो उन दोनों के हृदयों पर भीषण आघात हुआ।
राजकुमार का कोमल हृदय चूर चूर हो गया। मोहना की प्रीति की आशा के सहारे ही तो उनके प्राण एवं आत्मा अब तक जीवित थी।
जिसकी प्रीति सूने जीवन का आधार थी, जिसके मिलन के लिये प्यास से व्याकुल चातक की तरह वह राह निहारते रहे उसी प्राणप्रिया की इतनी घृणा , वह उसके संग एक पल के जीवन से मृत्यु को श्रेष्ठ समझती है।
निद्रा राजकुमार के नेत्रों से रूठ गई।रात्रि में वह अपनी शैय्या से उठकर उसी जलाशय के तट पर आकर एक शिला पर बैठ गये
जहॉ दिन में राजकुमारी अपनी सखियों संग किलोल कर रही थीं। उनके नैनो की जलधारा जलाशय से मिलकर एकाकार होती रही।
मोहना के नेत्रों में अनुराग के मेघों के स्थान पर घृणा एवं तिरस्कार कैसे सह सकेंगे?
उनके लिये आज जैसे सब कुछ समाप्त हो गया। आखिर उनकी मोहना ने उनके बाह्य स्वरूप के कारण उन्हें अस्वीकार कर दिया। प्रियतमा की दृष्टि में भी प्रेम का आधार काया ही सिद्ध हुई। वह जानते थे कि आन्तरिक पीड़ा से छटपटाते हुये
भी राजकुमारी आजीवन कुलवधू एवं पत्नीत्व का दायित्व निर्वाह करती रहेंगी। मोहना के अधरों और मुख पर कृत्रिम मुस्कराहट और प्रसन्नता की विवशता कैसे देख पायेंगे? प्रीति के स्थान पर मर्यादा की विवशता ? और कहीं चरम निराशा की अवस्था में मोहना ने सचमुच आत्मघात कर लिया तब क्या करेंगे वह?
कैसे स्वयं को क्षमा कर पायेंगे ? क्या स्वयं के न्यायालय में अपराधी नहीं बन जायेंगे। मोहना के लिए तो वह सर्वस्व न्यौछावर कर सकते हैं। मोहना के समक्ष सत्ता, मर्यादा, तन और प्राण सब निरर्थक है।
प्रभात का सूर्य तो उदित हुआ लेकिन संदलपुर का सौभाग्य सूर्य अस्त हो गया। राजकुमार न तो अपनी शैय्या पर थे और न ही शिविर में। अंगरक्षकों, दास दासियों और अश्वारोहियों ने पूरे वन प्रान्त को गुंजित कर दिया। सर्वत्र राजकुमार की खोज होने लगी। राजकुमारी ने रामलला को पश्चाताप के ऑसुओं से नहला दिया –
” अज्ञानवश मुझसे जो भूल हुई है, उसके लिये मुझे क्षमा कर दो प्रभो। मैंने तो सदैव रामलला में राजकुमार के स्वरूप के दर्शन किये हैं। वह जैसे भी हैं, मेरे आराध्य और सर्वस्व हैं। मेरे मुख से निकले कटु शब्दों के लिये आप जो भी दंड देंगे मैं सहर्ष स्वीकार कर लूॅगी, परन्तु मेरे पति को वापस कर दो।*
सर्वत्र हाहाकर मचा था। महाराज की दशा विक्षिप्त पुरुष के समान हो गई थी। व्याकुल महाराज अपने पुत्र के कण कण से परिचित थे, वह समझ गये कि मोहना के शब्दों ने उनके पुत्र का अन्त:करण विदीर्ण कर दिया होगा।
राजकुमारी ने दासी को भेजकर महाराज को अपने शिविर में बुलवाया और स्पष्ट शब्दों में पूॅछा – ” पिताजी महाराज, इस समय मैं आपकी पुत्रवधू नहीं आपकी पुत्री हूॅ। इसलिये मुझे वास्तविकता से अवगत कराइये। क्या सखी ने जो बताया, सत्य है? देवोपम सौन्दर्य के स्वामी राजकुमार मणि पुष्पक की ऐसी आकृति कब और कैसे हो गई?”
” क्या मित्र देवकुमार और महारानी यशोधरा ने तुम्हें यथार्थ से अवगत नहीं कराया था?
” संदलपुर से वापस आकर पिताजी महाराज और माता ने यही बताया था कि व्याधि ने राजकुमार की देह पर अपने कुछ चिन्ह छोड़ दिये हैं लेकिन राजवैद्य की औषधियों और समय व्यतीत होने के पश्चात वह पुन: अपने उसी सौन्दर्य और स्वरूप को प्राप्त कर लेंगे। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है।”
अगला भाग
एक भूल …(भाग-13) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर