एक भाई दूज ऐसी भी – उषा गुप्ता

“आई, दिवाली पांच दिन तक क्यों मनाते हैं ?”नन्हीं रूपा ने सोफ़े को झटकते हुए पूछा।

“बेटा, इस समय पांच दिन तक हर रोज नया त्यौहार होता है ना इसलिए ।” माँ ने सोफे के कुशन बिछाते हुए कहा।

“एक तो दिवाली और एक धनतेरस मुझे मालूम है ,और क्या आई ?” रूपा माँ का हाथ बँटाती जा रही थी और अपनी जिज्ञासा भी शांत करती जा रही थी।

“बेटा, धनतेरस के बाद रूप चौदस आती है।इस दिन लोग उबटन लगा कर नहाते हैं ,श्रंगार करते हैं ,दिए लगाते हैं ।” अब माँ दूसरे कमरे में आ गई थी सफ़ाई करने।रूपा भी साथ-साथ आ गई ।उसने फिर पूछा -“और दिवाली के दूसरे दिन कौन सा त्यौहार होता है आई?”

” नया साल और उसके बाद भाई दूज ।” माँ ने बात ख़त्म करने के लिए कहा।

“भाई दूज का क्या मतलब हुआ आई ?”

“बहनें अपने भाई को टीका करती हैं ,खाना खिलाती है ,उसकी लंबी आयु और स्वस्थ जीवन की कामना करती है ।बदले में भाई उसे कुछ उपहार देता है और उसकी रक्षा करता है।”

” वाह माँ,यह तो सबसे बढ़िया वाला त्यौहार है पर मेरा तो कोई भाई नहीं है!” रूपा उदास हो गई।

“बेटा ,हम गरीबों के काहे के त्योहार और काहे की भाई दूज ??जिंदा रह पाएँ,यही बहुत है ।”

घर की मालकिन मिसेज कुशवाह ने उसकी अंतिम बात सुन ली। वे कुछ बोली नहीं पर उसे कुछ और काम करने का निर्देश देकर चली गईं।शाम को उनके यहाँ पार्टी थी अतः वे बाजार के लिए निकल गई।



शाम की पार्टी में सभी बहुत मज़ा कर रहे थे । तभी बहस चल पड़ी कि नया साल और भाई दूज कैसे मनाया जाए ताकि यह यादगार दिन बन जाए।सभी महिलाएँ अपने-अपने स्टेटस के हिसाब से शानदार तरीके बता रही थीं।तभी मिसेज कुशवाह ने कहा-” यदि हम सब इसे वाकई यादगार बनाना चाहते हैं तो हमें लीक से हटकर कुछ करना होगा।”

” और वह क्या ??” सभी उत्सुकता से उनकी ओर देखने लगी।

“यह मेरा सुझाव है बस, बाकी आप सब लोग जैसा कहें।”

” हाँ.हाँ,पर बोलो तो ?” पड़ोसन पांडे जी बोली।

“हम सबके घरों में कामवाली बाई आती है और जहाँ तक मैं जानती हूँ ,हमारी सोसाइटी में चार-पांच बाई आती है और उन सब की लड़कियाँ ही हैं।बेचारी बच्चियाँ भी अपनी माँ के साथ हमारे यहाँ काम करने आ जाती है।उनके काम करने के दिन है क्या ? उन्हें पढ़ना- लिखना चाहिए।आज सुबह ही मेरी बाई अपनी बेटी से कह रही थी कि हम गरीबों के काहे के त्योहार और काहे की भाई दूज ..।” मिसेज़ कुशवाह ने एक ही सांस में कह दिया।

“ठीक कह रही हो तुम ,पर यदि उनके भाई नहीं है तो इसमें हम क्या कर सकते हैं ?” शीला जी बोल पड़ी।

” भाई नहीं है तो बनाए तो जा सकते हैं ना !!” मिसेस कुशवाह भर्राई सी आवाज़ में बोली।

“क्या मतलब”

” क्या करना चाहती हो तुम?” इस बार सब एक साथ बोल पड़ी।

                  “मैं चाह रही थी कि क्यों ना हम अपने बेटों को इनकी बेटियों से तिलक करवाएँ और उन्हें भाई का सुख दे।बदले में हम सब एक-एक लड़की की पढ़ाई का जिम्मा लेने का उपहार अपने बेटों से दिलवा दें।”



एक पल के लिए वहाँ सन्नाटा छा गया ।सब खुसर फुसर करने लगीं।पढ़ी-लिखी ,समझदार महिलाएँ थीं।समाज सेवा भी खूब करती थीं।अतः तुरंत ही इस प्रस्ताव का अनुमोदन हो गया।सब ने मिलकर योजना तैयार की ताकि उस पर संजीदगी से अमल हो सके।योजना अनुसार सभी ने अपनी कामवाली बाइयों को कहा कि कल वे अपनी बेटियों को साथ में लेकर आएँ।फिर अपने-अपने घर जाकर सबने अपने बेटों से बात की।उन्हें इस तरह से समझाया कि वे सब सहर्ष तैयार हो गए उन लड़कियों को अपनी बहन बनाने के लिए तथा पढ़ाई में उनकी मदद करने के लिए।

दूसरे दिन दोपहर में सब मिसेज जोशी के घर अपनी-अपनी बाइयों और उनकी बेटियों के साथ आ गई।हॉल से सोफे हटा दिए गए थे और चौकियाँ लगा दी गई थी।उन चौकियों पर सभी के बेटे कुर्ते-पजामे में खुशी-खुशी बैठे थे।पास ही पूजा की थालियाँ रखी हुई थी।

कोई कुछ सोचे या पूछे ,उसके पहले सबने उन बेटियों को भाइयों के सामने बैठा दिया।सभी लडकियाँ किंकर्तव्यविमूढ़ थी ।ये क्या हो रहा है और उन्हें क्या करना है ? समझ ही नहीं पा रहीं थीं।

तभी मिसेज जोशी बोली -“रुचि ,शुचि,जया, विजया ,रूपा सब अपने भाइयों को टीका करो।आज भाई दूज है ना !आज से ये तुम्हारे भाई हैं ।”

खुशी के मारे सारी लड़कियों की आँखों में आँसू आ गए ।उन्होंने खुशी-खुशी भाइयों को टीका किया, मिठाई खिलाई ,नारियल दिया और बदले में भाइयों ने उन्हें एक लिफ़ाफा और एक पैकेट दिया। जब बहनों ने लिफ़ाफा खोला तो आश्चर्यचकित रह गई !!यह तो उनके स्कूल में प्रवेश का कागज़ था और जब पैकेट खोला तो उसमें उनकी कक्षा की किताबें,कापियाँ,पेन आदि थे।खुशी के मारे वे सब हँसते हुए रोने लगीं। यह कैसी अनोखी भाई दूज थी?

उनकी माओं के आँसू थम ही नहीं रहे थें।वे ये सोचकर खुश हो रहीं थीं कि उनकी बेटियाँ अब स्कूल जाएँगी।

स्वरचित एवम् अप्रकाशित

उषा गुप्ता

इंदौर

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