अपने एकलौते बेटे नीरज की अपने पिता रंजीत जी से की जा रही गुहार ने रंजीत जी को अपने ही जीवन के अतीत में लाकर खड़ा कर दिया।ऐसे ही वह अपने पिता मुरारीलाल जी से अनुमति मांग रहे थे बाबूजी मुझे एक सप्ताह के लिये बनारस जाना है।बाबूजी के कारण पूछने पर रंजीत ने बताया कि उसने सेना एकेडमी में दाखिले की लिखित प्रतियोगिता में तो सफलता प्राप्त कर ली है, अब साक्षात्कार के लिये बनारस जाना है।वहां यदि मैं सफल हो गया तो बाबूजी मुझे एकेडमी में दाखिला मिल जायेगा और फिर मैं वहां से लेफ्टिनेंट बन कर ही निकलूंगा।
हतप्रभ से मुरारीलाल जी अपने बेटे का मुँह देखते रह गये, व्यापारी होने के कारण उन्हें एकेडमी आदि की जानकारी नही थी,उन्होंने अपने बेटे रंजीत की बात से ये ही समझ आया कि वह मिलिट्री में भर्ती होना चाहता है।यह उन्हें अजीब लगा कि एक व्यापारी पुत्र मिलिट्री में जाना चाहता था,उन्हें यह अस्वीकार्य था।उन्होंने रंजीत को समझाया बेटा हम व्यापारी हैं,
व्यापार करते हैं, हमारा भला फौज से क्या वास्ता?पढ़ाई लिखाई भी हमारे लिये उतनी ही जरूरी है जितनी उसकी अपनी व्यापारिक गतिविधियों में जरूरत पड़े।अच्छा होगा अपने बड़े भाई के साथ तुम भी कारोबार में हाथ बटाओ।रंजीत जानता था उसके बाबूजी जिद्दी स्वभाव के हैं,एक बार किसी भी बात को मना कर दिया तो बस वह पथ्थर की लकीर हो जाता था।यह जानते हुए भी अब बाबूजी नही मानेंगे उसने फिर भी एक कोशिश और करके देखी।
रंजीत बोला बाबूजी कारोबार तो बड़े भाई संभाल ही रहे हैं, फिर मैं ही उसी काम मे घुसकर क्या अलग करूँगा,फिर बाबूजी देश के प्रति हमारा भी तो कुछ फर्ज बनता ही है।बाबूजी को उम्मीद नही थी कि उनका बेटा उनके निर्णय देने के बाद भी इस तरह उन्हें समझाने का प्रयास करेगा।उन्होंने अपने क्रोध पर कुछ नियंत्रण तो रखा फिरभी तल्खी से बोले देख रंजीत सरहद पर फर्ज निभाती है फौज,वो निभा रही है।
साफ साफ एक बार और सुन लो तुम्हे मिलिट्री में नही जाना है,कल से भाई के साथ अपना व्यापार करना सीखो।मायूस सा रंजीत गर्दन झुकाये अपने पिता के सामने से हट गया।रंजीत का सपना टूट चुका था,वह कुछ कर नही पाया।मुरारीलाल जी ने इस बीच रंजीत के विवाह करने का निश्चय कर लिया।उन्हें ऐसे में अपने एक अभिन्न मित्र जुगल किशोर का ध्यान आया,उनके ये भी ध्यान आया कि जुगल किशोर के रंजीत के लगभग की आयु की बेटी है।विचार आते ही मुरारीलाल जी जुगल किशोर के घर बिना पूर्व सूचना के ही पहुंच गये।
घर का दरवाजा जुगल की बेटी ने ही खोला।मुरारीलाल जी जुगल की बेटी को देख हतप्रभ रह गये, एक टक उसकी ओर देखते रह गये, इतनी सुंदर,इतनी सौम्य ऐसी तो उन्होंने कल्पना भी नही की थी।
जुगल से मुरारीलाल बोले यार चल इस दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल लेते हैं, चौंक कर जुगल ने कहा मैं तेरा मतलब नही समझा, मुरारी।तो सुन आज से तेरी ये बेटी मेरी अमानत है तेरे यहाँ।हम इसकी शादी रणजीत से करेंगे।अवाक सा जुगल कोई उत्तर न दे सका।मना करने का तो प्रश्न ही नही था।कुछ दिनों में ही रंजीत की शादी जुगल की पुत्री कुसुम से हो गयी।
धीरे धीरे रंजीत अपनी गृहस्थी तथा व्यापार में रम गया।मिलिट्री में जाने वाली बात भी उसके जेहन से निकल चुकी थी।इसी बीच उनके यहां एक पुत्र का आगमन हो गया।रंजीत और कुसुम ने अपने लाडले का नाम रखा नीरज।सुंदर सलौना नीरज उनकी आंखों का तारा बन गया।थोड़ा बड़ा होने पर उन्होंने उसका एक अच्छे स्कूल में दाखिला कराया।रंजीत पढाई लिखाई की कीमत समझते थे सो वे अपने बेटे की शिक्षा में कोई कोताही नही बरतना चाहते थे।
नीरज ने भी उन्हें निराश नही किया,वह प्रथम ही आता।यही कारण था कि सेना एकेडमी की प्रवेश परीक्षा में वह पहली बार मे ही सफल हो गया।अब उसे साक्षात्कार हेतु जाना था,जिसके लिये पिता की अनुमति की दरकार थी।उसे संशय था कि उसके व्यापारी पिता अनुमति देंगे?फिर भी कहना तो पड़ेगा ही।
नीरज ने जैसे ही अपने पिता से सेना एकेडमी में प्रवेश हेतु साक्षात्कार के लिये अनुमति माँगी तो रंजीत को अपने समय की याद आ गयी।वह नीरज का मुँह देखता रह गया।उसे लगा वह खुद अपने पिता से एक बार फिर अनुमति मांग रहा है और कह रहा है बाबूजी अब तो मान जाओ,इतना समय बीत गया है, अब तो जाने दो।अचकचा कर रंजीत ने नीरज को खींचकर अपनी बाहों में भर लिया और कहा बेटा, जा बेटा जा मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है।देश के प्रति अपने फर्ज को अदा कर।
बालेश्वर गुप्ता,पुणे
मौलिक एवम अप्रकाशित
Bahut sundar hai