पत्नी की पुण्य तिथि पर जानकीदास जी वृद्धाश्रम में भोजन कराने गये थे। अचानक उनकी नजर एक जगह आकर ठिठक गई।
“कहीं आप रामाशीष तो नहीं हैं?”
अपना नाम सुनते ही रामाशीष जी नजरें उठाकर देखे और आँखे नम हो गयीं।
“तुम यहाँ?”
“हाँ, तुम्हारी बात नहीं मानने की यह सजा है।”
दोनों दोस्त गले मिलकर अपने सारे गिले-शिकवे आँसुओं में धो डाले।
जानकीदास और रामाशीष दोनों बीस साल तक पड़ोसी रहे। दोनों की सुबह साथ चाय पीने के साथ ही शुरू होती थी।
अपना सुख-दुख सब एक-दूसरे से साझा करते थे।
रामाशीष के दो बेटे थे और जानकी दास का एक बेटा और एक बेटी।
रामाशीष जी को अपने बेटों पर बहुत नाज था और हो भी क्यों न? पिता की हरेक बात ब्रह्मा की लकीर होती थी। जो भी कमाते थे बच्चों की खुशी में अपनी खुशी मान खर्च कर देते थे। जानकीदास जी उन्हें बीच-बीच में समझाते रहते थे कि बुढ़ापे का ख्याल कर कुछ बचत भी किया करो, लेकिन रामाशीष जी ने कभी इसकी जरूरत ही नहीं समझी।
” अरे जानकीदास, हमारा क्या है, सेवानिवृत्ति के बाद पति-पत्नी गाँव चले जायेंगे। बुढ़ापे में हमलोगों को चाहिए ही क्या?”
और इसतरह बात टाल दिया करते थे।
नौकरी से मुक्त होने के बाद जानकीदास कम्पनी का घर छोड़कर अपने छोटे से आशियाने में चले गये और रामाशीष जी गाँव जाकर रहने लगे। रामाशीष जी ने भी अपना घर बनाया था, लेकिन उसे उन्होंने बच्चों के नाम कर दिया था। ———-
भविष्य तो परमात्मा के हाथों में है और कुछ दिन बाद ही पत्नी इन्हें अकेला छोड़ चल बसी। अकेले रहना मुश्किल हो गया। गाँव वालों की नजरों में महान बनने के लिए बच्चे उन्हें अपने पास लाए और गाँव का घर -जमीन भी बेच डाले।
दोनों बच्चे अलग-अलग रहते थे तो पिता का बसेरा भी बँट गया। एक- दो साल तो ठीक रहा,पर धीरे- धीरे बहुओं का रंग सामने आता गया। परेशानी होना स्वाभाविक भी था। उनके बच्चे बड़े हो रहे थे, पढ़ाई-लिखाई और जगह की कमी ने उन्हें वृद्धाश्रम पहुँचा दिया। अब रामाशीष को जानकीदास की याद बहुत सताने लगी, लेकिन उनसे नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अपना कर्म और नियति मान जिन्दगी के दिन काटने लगे।———
“रामाशीष, तुम यहाँ तक आ गये और मुझे बताया भी नहीं। इन दस सालों में क्या से क्या हो गया। क्या मुझे इतना पराया कर दिया।”
“किस मुह से बताता दोस्त?”
“दोस्त भी कहते हो और अपना दर्द अकेले झेलते रहे। चलो अब अपने घर चलो।”
“अपना घर?”
” हाँ,क्या मेरा घर तुम्हारा घर नहीं है? मैं भी तुम्हारी भाभी के जाने के बाद अकेला पड़ गया हूँ। बच्चे विदेश में जाकर बस गये। अब दोनों की जिन्दगी में चाय के साथ एक नयी सुबह की फिर से शुरुआत होगी।”
रामाशीष अब अपने को रोक नहीं पाए और फफक कर रो पड़े।
“अब रोने के दिन नहीं हँसने के दिन आये।”
रामाशीष जी को झिझक हो रही थी, लेकिन जानकीदास ने उसका भी समाधान कर दिया।
” अरे रामाशीष झिझकते क्यों हो? अब तुम्हारी पेंशन तुम्हारे खाते में आयेगी और तुम अपने पैसों से मेरे घर में रहोगे।”
जानकीदास जी दूरदर्शी थे। जहाँ तक हो सका अपना भविष्य सुरक्षित रखे। अपने घर के आधे हिस्से में एक गरीब परिवार को रख लिए थे जो अपनी रोजगार के साथ इनका भी ख्याल रखता था।
रामाशीष जी आसमान की तरफ देखते हुए भगवान को धन्यवाद दे रहे थे कि तूने मुझे एक सच्चा दोस्त जीवन में दिया।
स्वरचित एवं मौलिक रचना
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।