Moral stories in hindi : शर्मा जी का दो मंजिला मकान रंग-बिरंगी बत्तियों से जगमगा रहा था।केटरर किचन में खाने का स्वाद बढ़ाने में लगे हुए थें,मेहमानों को कोई पेप्सी सर्व कर रहा था तो कोई आइसक्रीम।वे स्वयं सिर पर गुलाबी रंग का साफ़ा बाँधे और हाथ में हिसाबों वाला बैग लिये सबको निर्देश दे रहें थें कि बारातियों के स्वागत में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए।
उनकी बड़ी बेटी शिल्पा की आज बारात आ रही है।आज तो वह उनकी बेटी है लेकिन कल वो पराई हो जायेगी।यही सब सोच रहें थें कि मिसेज़ शर्मा ने उनसे कहा, ” सुनिये! बारात आने का समय हो गया है और आपकी लाडली है कि अभी तक दरवाजा बंद किये बैठी है।
अकेले ही तैयार हो रही है, सहेलियों को भी बाहर कर दिया है।मेरी तो सुन नहीं रही है,अब आप ही जाकर अपनी लाडली का दरवाजा खुलवाइये।”
” अच्छा-अच्छा.., आता हूँ।” कहकर शर्मा जी ने शिल्पा के कमरे का दरवाज़े खटखटाया।जब भीतर से कोई आवाज़ नहीं आई तो उन्होंने पुनः खटखटाते हुए कहा,” बेटी, बारात आने में कुछ ही देर बाकी है,दरवाज़ा खोलकर तू भी आकर अपनी बारात देख ले।
” लेकिन फिर भी कोई उत्तर नहीं मिला तो किसी अनहोनी की आशंका से वो घबरा उठे।घर मेहमानों से भरा हुआ है,कुछ ऊँच-नीच हुआ तो लोग थू-थू करने लगेंगे।उन्होंने धीरे-से पत्नी के कान में कुछ कहा और अपने एक परिचित को राज़दार बनाकर कहा कि खिड़की के रास्ते अंदर जाकर देखे कि आखिर माज़रा क्या है।कुछ ही देर में वह वापस आ गया और उन्हें एक कागज का टुकड़ा थमा दिया जिसे पढ़कर उनके पैरों तले ज़मीन निकल गई।
उस कागज में शिल्पा ने लिखा था- ” पापा, मैं शिवम् से प्यार करती हूँ।हमने कल ही कोर्ट-मैरिज कर ली थी।अब मैं उसी के साथ अहमदाबाद जा रही हूँ।मुझे माफ़ कर दीजिये।साॅरी मम्मी।” शर्मा जी और उनकी पत्नी का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था।बैंड-बाजे की आवाज़ उनके कानों में सुनाई दे रही थी और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे।
दोनों ने अपने आपको संयत किया और मुस्कुराते हुए बारातियों का स्वागत करने लगे।माला पहनाने के बाद शर्मा जी वर के पिता को एक कमरे में ले गये और बेटी का लिखा कागज दिखाते हुए हाथ जोड़कर बोले,” भाईसाहब, बेटी ने तो मेरी नाक कटा दी है, अब आप चाहें तो मुझे भला-बुरा कह कर अपना भड़ास निकाल लीजिये और बारात वापस ले जाकर मेरे चेहरे पर कालिख पोत दीजिये।मैं आपका गुनाहगार हूँ।” कहते हुए वो रोने लगे।
वर के पिता सुलझे हुए इंसान थें।दुनियादारी को भली-भांति समझते थें।उन्होंने शर्मा जी के आँसू पोंछे और कहा कि जो होना था,सो तो हो चुका।बारात वापस ले जाने में तो हमारी भी बदनामी होगी।अगर आप मुनासिब समझे तो अपनी छोटी बेटी श्रद्धा हमें दे दीजिए।”
” जी…, श्रद्…।” शर्मा जी की आवाज़ लड़खड़ाने लगी।वो कुछ कहते उससे पहले ही श्रद्धा वहाँ आ गई और वर के पिता से बोली, ” अंकल, पापा तो कुछ नहीं बोल पाएँगे लेकिन मैं तैयार हूँ।बस मुझे दस मिनट दे दीजिए।तब तक आप अपने मेहमानों को..।”
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं बेटी।” कहते हुए उन्होंने शर्मा जी के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें आश्वासन दिया और बाहर आकर अपने बेटे से बात करने लगे।
“श्रद्धा ने विनय को मैसेज किया,” विनय, घर पर बारात खड़ी है और दीदी घर से चली गईं हैं।मैंने तुमसे विवाह करने का प्रॉमिस किया था लेकिन अब…।दीदी के इस तरह से चले जाने से पापा की इज़्जत पर जो दाग लगा है, उसे धोना भी मेरा फ़र्ज है।तुम क्या कहते हो।”
“विनय ने जवाब दिया,” श्रद्धा, मैं तुम्हारे फ़ैसले के साथ हूँ।प्राउड ऑफ़ यू।” पढ़कर श्रद्धा की आँखें नम हो गई।अपने चेहरे पर खुशी लाने का प्रयास करती हुई वह दुल्हन के कपड़े पहनकर सजने लगी।शुभ-मुहूर्त में शर्मा जी और उनकी पत्नी ने बेटी का कन्यादान करके उसे विदा किया।
“शिल्पा और श्रद्धा एक ही डाली के फूल थें लेकिन दो रंग-दो स्वभाव के।एक ने पिता की पगड़ी उछाली तो दूसरी ने उसे फिर से पहनाकर सिर का ताज बना दिया।एक ने गलती की तो दूसरी ने सहर्ष अपनी इच्छा का त्याग कर माता-पिता के सम्मान की रक्षा की।
विभा गुप्ता
स्वरचित