दिल और धड़कन – जगनीत टंडन : Moral Stories in Hindi

“कैसी बातें कर रही है सिम्मी, पापा हमें कभी नोकरी नहीं करने देंगें, बल्कि तेरी सलाह मान कर जूते पढ़ेंगें

हमें”अर्चना ने तनिक गुस्से से कहा।

“इसमें जूते पड़ने जैसी क्या बात है दीदी ? आप समझो ना,इससे तो पापा की मदद ही होगी ना।” सिमरन अभी

भी अपनी बात पर अड़ी हुई थी।

“जैसे तू पापा की सोच जानती ही नहीं। वो तो मम्मी की वजह से हम दोनों इतना भी पढ़ लिख गईं वरना

पापा तो हमें स्कूली शिक्षा पूरी होते ही ब्याहना चाह रहे थे। याद नहीं मुझे कैसे कह रहे थे कि अठारह साल की

हो गई हो, बालिग हो, अब शादी करो, तुम्हारी बुआ, तुम्हारी मां भी इसी उमर में ब्याह दीं गईं थीं और फिर

तुम्हारे बाद सिम्मी के भी हाथ पीले करने हैं।”

“वो तो मम्मी पड़ गईं बीच में कि इसमें कोई महान कार्य जैसी बात नहीं है, इन्दु आज भी ससुराल में महज़

उन लोगों की कठपुतली बनकर रह गई है। ना तो वे लोग उसकी किसी इच्छा का मान रखतें हैं और ना उसके

वजूद को अच्छे से स्वीकारतें हैं।”

“पर दीदी, अनिल फूफाजी का घर तो बहुत बड़ा है, जब भी बुआ आती है कितना कुछ लाती है…!”

“सिर्फ पैसे वाले होने से कुछ नहीं होता, फूफाजी की अपनी इज़्ज़त यहां अच्छे से बनी रहे, इसलिए बुआ को

यहां इतने सामान के साथ भेजते हैं और इसलिए मम्मी ने कहा था कि सोने के पिंजरे से ज्यादा

आत्मस्वाभिमान की टूटीफूटी झोपड़ी कहीं ज्यादा अच्छी होती है इसीलिए मेरी बेटियां पढ़ेंगीं और अपने पैरों पर

खड़ी होंगी।”

“तो वही तो दीदी, क्या हम मम्मी की सोच का मान ना रखें, आज पापा को घर की किश्ते चुकाने में तकलीफ

हो रही है तो हमारी पढ़ाई लिखाई का क्या फायदा? देखो दीदी मुझे ट्रैवल एजेंसी में नौकरी मिल रही है और

आप भी कोचिंग सेंटर से ऑफर हुई अपनी नौकरी को हां कर ही दो, महीने के अंत में पापा की बहुत मदद होगी,

उन्हें मानसिक तनाव से मुक्ति मिलेगी। अब सोच क्या रही हो, हां कह दो ना..”

“वो तेरी तरह जल्दबाज़ नहीं है, इसीलिए सोच रही है,समझी..” ये सुनीता की आवाज़ थी।

इंदु और सिमरन ने पीछे मुड़कर देखा तो अशोक और सुनीता खड़े थे। दोनों की आंखों में चमक और होंठों पर

निश्चल मुस्कान थी।

“देखा आपने, मैं कहती थी ना आपसे कि हमारी दो बेटियां नहीं बल्कि हमारे दिल और धड़कन हैं जिनके

बिना हम हैं हीं नहीं और अब बताइए आप कि किसने जूते पढ़वाने जैसा काम किया है हम तीनों में से ”

“तुम तीनों में से किसी ने नहीं, मैंने किया है जूते खाने जैसा काम ऐसी छोटी सोच रख कर, मेरे लिए तो ये

दोनों मेरी दो आंखें भी बन चुकीं आज से जो मुझे सही राह दिखा रहीं हैं।” अशोक गर्व भरे स्वर में बोला।

“तो अब जूते नहीं खाना खाया जाए, सच्चीबहुत भूख लगी है” सिमरन चहक कर बोली तो सभी उसकी इस बात

पर खुल कर हंस दिए।

जगनीत टंडन

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