दिल की व्यथा – डा. मधु आंधीवाल

कल तक खूब रंगो की बहार थी । आज फिर वही सन्नाटा । सब अपने फ्लैटों में बन्द । रेखा सोच रही थी । वह अपने गांव की होली का त्यौहार एक हफ्ता पहले और एक हफ्ता बाद तक बच्चों की तो लाटरी निकल आती थी पर इन बड़े शहरों में त्यौहार कम मनते हैं दिखावा अधिक होता है। अन्दर घरों में कोई होली मिलन नहीं सब नीचे पार्क में ।   मैडम घर की रसोई में कुछ नहीं पकायेगी नीचे सब फ्लैट वाले चन्दा इकट्ठा करेंगे हलवाई लगा कर होली भोज हो जायेगा । रेख को याद आ रही थी अपनी शादी की पहली होली कैसे सब अड़ोस पड़ोस की ननद देवरों ने छत्त पर घेर कर रंगो से रंगा था तब पति देव अमित ने आकर उसका बचाव किया । अमित तुम क्यों चले गये इतनी जल्दी । बस इस पल्लव को इतना छोटा छोड़ कर मुझे तुमने बहुत जिम्मेदार बना दिया ।  सारी जिन्दगी तुम्हारी अमानत को सजोंती रही सजाती रही ‌। अब तो इसकी गृहस्थी भी बसा दी पर मै तो फिर वही अकेली इन सन्नाटो से जूझ रही हूँ । पल्लव और उसकी पत्नी रमिला को अधिक किसी से मिलना जुलना पसंद नहीं क्योंकि दोनों बहुत बड़े अधिकारी हैं । रमिला की निगाहों में तो मै एक ग्रामीण परिवेश में रही प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका हूँ ।उसकी तरह अंग्रेजी बोलने वाली महिला नहीं । रेखा ने सोचा आज नीचे सन्नाटा है चलो कुछ देर नीचे पार्क में जाकर बैठती हूँ मन बहलाने को पेड़ पौधे और पक्षी तो हैं । वह नीचे जाकर एक बैच पर बैठ गयी । कुछ ही देर में उसकी हम उम्र कुछ महिला पुरुष भी आकर बैठ गये । जब परिचय हुआ तब पता लगा सब इसी बिल्डिंग में रहे हैं पर अब अकेले होने के कारण मजबूरी बस बच्चों के पास रहना पड़ रहा है पर यहाँ और अधिक अकेले व लाचार हो गये हैं। रेखा सबका दुख देख कर सोचने लगी सबकी यही व्यथा है।



    दूर कहीं गाना चल रहा था ” संगी ना कोई साथी दिया है ना कोई बाती चल मुझे लेकर ऐ दिल अकेला कहां ” ।

स्व रचित

डा. मधु आंधीवाल

 

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