आधुनिक समय में दिखावे की जिंदगी के लिए कभी-कभी व्यक्ति पैसे कमाने की चाहत में अंधा हो जाता है।हालात और परिस्थितियाॅं भी उसके लिए जिम्मेदार होती हैं, परन्तु अंत में पछतावा ही हाथ लगता है। दिखावे की जिंदगी में आज व्यक्ति अपनी इच्छाओं और महत्वकांक्षाओं का गुलाम बन बैठा है। एक-दूसरे से दिखावे की होड़ लगाना मात्र मृगतृष्णा है,यह उसकी समझ से परे हो चुका है। कहाॅं समझ पाता है कि असीमित संसाधनों से सुख नहीं मिलता है,सुख तो ईमानदारी और इज्जत की जिंदगी में है! कथा नायक रीतेश इस बात को समझ गया होता,तो आज यूॅं उसकी जिंदगी बर्बाद नहीं होती!
दिखावे के कारण पल भर में ही रीतेश की जिंदगी पर ग्रहण लग गया। देखते -देखते एक काली घटा की तरह उसके कुकर्मों की चर्चा चारों ओर फैल गई।उसके जीवन की सारी हरियाली, सारे प्रकाश पर अंधकार का पर्दा पड़ गया।एक तृतीय वर्ग के कस्टम लिपिक के घर से इतने सारे जेवर और नकदी मिलने से सी.बी.आई. अधिकारी भी हैरत में थे।रीतेश को आय से अधिक सम्पत्ति रखने के जुर्म में सजा हो गई। पत्नी और बच्चे ,जो शहरी जीवन और ऐशो-आराम की जिंदगी के आदी हो चुके थे,अब पड़ोसियों से मुॅंह छिपाकर गाॅंव के लिए रवाना हो चुके थे।
कैदियों के बीच जेल में रीतेश आत्मग्लानि से सिर झुकाकर बैठा हुआ है। आत्मग्लानि की आग से उसका सर्वस्व धधक रहा था।उसी समय कैदियों के खाने की घंटी बज जाती है। बेमन से रीतेश थाली में थोड़ा -सा भोजन लेकर अलग-थलग बैठ गया।खाना देखकर उसकी ऑंखों से ऑंसू निकल पड़े। पत्नी की रोज-रोज की फरमाइशों से उसका मन न चाहते हुए भी रिश्वतखोरी की कॅंटीली झाड़ी में उलझे ही गया।खुद को धिक्कारते हुए मन-ही-मन सोचता है-“इतना तो नादान वह नहीं था, फिर क्या जरूरत थी पत्नी की बातों में आने की? ईमानदारी की सूखी रोटी में भी सर उठाकर चल सकता था, यूॅं तो जिंदगी भर के लिए कालिख नहीं पुत जाती!”
उसे चिन्तामग्न देखकर एक कैदी टोकते हुए कहता है -“ऐ नए कैदी!यूॅं टुकुर-टुकुर देखने से खाना नहीं बदल जाएगा।अब रोज ऐसा ही खाना मिलेगा।”
कैदी की आवाज से हड़बड़ाते हुए रीतेश खाने का उपक्रम करने लगता है। किसी तरह दो कौर निगलकर थाली धोकर रख देता है और अपनी बैरक में आ जाता है।
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शरद की कॅंपकपाती ठिठुरन भरी रात थी।ठंढ़ी हवाऍं मानो हाड़ को छेदने पर उतारू थीं। ठंड के मारे सभी कैदी अपनी-अपनी बैरक में जाकर सिकुड़ चुके थे।
रात के सन्नाटे में रीतेश को नींद तो नहीं आ रही थी, परन्तु दिलो-दिमाग में अतीत की परतें धीरे-धीरे उघड़कर सामने आने लगीं।जिस दिन उसे कस्टम विभाग में लिपिक की नौकरी लगी थी,उस दिन उसके परिवार के लिए उल्लास और गर्व का क्षण था।उसके पिता ने ऑंखों में खुशी के ऑंसू के साथ कहा था -” बेटा!अपनी मेहनत के बल पर अब तुम किसी पर आश्रित नहीं हो,खुद के पैरों पर खड़े हो गए हो।तुम पर हमें गर्व है।अपना काम ईमानदारी से करना। ईमानदारी में बहुत बरकत होती है!”
पिता की बात को गाॅंठ में बाॅंधकर रीतेश अपना काम ईमानदारी से करने लगा।उसके और परिवार की जरूरतें बहुत थोड़ी थीं।उस तनख्वाह में आराम से गुजर-बसर हो रहा था। नीलम से शादी कर बाद उसकी जिंदगी का गणित बिगड़ने लगा। संपन्न घर की नीलम को दिखावे की जिंदगी पसन्द थी।वह अपने पति के अधिकारियों की पत्नियों के ठाठ -बाट देखकर मन मसोसकर रह जाती।अपने मन का गुब्बार निकालते हुए कहती -” देखो रीतेश!एक उनकी ऐशो-आराम की जिंदगी है,एक मेरी जिंदगी है जो रोटी-दाल से आगे बढ़ने नहीं देती है।एक छोटा -सा जेवर भी खरीदने के लिए मन को मारना पड़ता है!”
आरंभ में रीतेश पत्नी को समझाते हुए कहता -” नीलम! वे लोग बड़े अफसर हैं।उनकी जिंदगी हम से बिल्कुल अलग है। मैं एक मामूली कर्मचारी हूॅं।मुझे घर भी माता-पिता और भाई -बहनों के लिए पैसे भेजने पड़ते हैं।चादर से बाहर पैर फैलाना अच्छी बात नहीं है!”
नीलम पर रीतेश की बातों का कोई असर नहीं होता।समय के साथ नीलम दो बच्चों की माॅं बन चुकी थी। पैसों को लेकर उसका स्वभाव उग्र होता जा रहा था।वह पति को रिश्वतखोरी के लिए उकसाने लगी। सुख – सुविधाओं की इच्छाओं के मनवाने के लिए नीलम बात-बात पर विवाद करते हुए रो -पीटकर कुतर्कों और अपशब्दों के साथ चीख-चिल्लाकर अपनी जिद्द पर अड़ी रहती।
आए दिन इसी बात को लेकर पति-पत्नी के बीच संवादहीनता की स्थिति बनी रहती।एक दिन तो नीलम ने हद कर दी।उसने धमकी देते हुए कहा -” रीतेश!अगर पत्नी और बच्चों को खुशहाल जिन्दगी देने की कुवत तुममें नहीं थी,तो तुमने शादी क्यों की? मैं तंगहाली की जिंदगी नहीं जी सकती हूॅं। मैं बच्चों को लेकर घर छोड़कर जा रही हूॅं।”
उस समय तो रीतेश ने मान-मनौव्वल कर नीलम को मना लिया, परन्तु पत्नी के कर्कश शब्द वाणों के प्रहार रितेश को ईमानदारी के पथ से धीरे-धीरे डिगाने लगा।समय के साथ रीतेश रिश्वतखोरी में पूर्णतः डूब चुका था।नीलम अब खुशी के साथ सदा चहकती रहती।अपनी सहेलियों को घर में पार्टी के बहाने नए सामान और नए-नए जेवर दिखलाती। बच्चों का दाखिला बड़े स्कूल में हो चुका था।
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उनके लिए नित्य नए ड्रेस,नए खिलौने लाती।आखिर एक दिन पाप का घड़ा फूट ही गया । खुशहाल जिन्दगी में दुखों का पहाड़ टूट ही पड़ा। आखिर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती?बुरे कर्म का नतीजा बुरा तो मिलना ही था। आखिरकार एक दिन सी .बी. आई . की रेड पड़ ही गई। दिखावे की जिंदगी व्यक्ति को कब और किस दिशा ले जाऍं,कुछ कहा नहीं जा सकता!
दिखावे की जिंदगी के कारण रीतेश की जिंदगी में एक ऐसा दावानल आया,जिसकी तपिश में झुलसकर सब कुछ राख हो गया। अब मस्तिष्क में विचारों का चक्रवात थम-सा गया था।उसकी उदास,निष्प्रभ ऑंखों में विषाद घनीभूत हो उठा। ऑंखें पछतावे के ऑंसू से नम हो गईं। दिखावे की जिंदगी ने उसके पूरे परिवार की इज्जत पर कालिख पोत दी।
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा।( स्वरचित)