परेशान हो गई थी सौम्या इस दिखावे की जिन्दगी से। कितना कठिन होता है ,हम जो नहीं है, वह बताने का प्रयास करना। उसे समझ में नहीं आता कि जब हम मध्यमवर्गीय है, तो अपने को उच्च श्रेणी का बताने की यह कैसी जिद है कि परिवार का हर व्यक्ति अपने मे ही उलझा है। माना कि हमने एक पाश कॉलोनी में मकान लिया है,
हमारे आसपास बसने वाले सारे लोग धनाड्य है। उनके रहन- सहन, तौर- तरीके कुछ अलग है, उनके पास पैसा है तो वे नित नई पार्टियॉं आयोजित करते हैं, मेंहगी गाड़ी, मेंहगे कपड़े, जेवर सब उनके बजट में आता है और वे पैसो से अपने हिसाब से जीते हैं और खुश रहते हैं।
जीवन में खुशियाँ होनी चाहिए। पर इसके लिए यह जरूरी तो नहीं कि हम अपने आसपास के लोगों के हिसाब से जीवन जीने के लिए, व्यर्थ दिखावे के लिए, अपनी चादर से ज्यादा अपने पैरो को फैलाएं। इसके परिणामस्वरूप हमेशा परेशानियां ही मिलती है।
सौम्या इस घर की सबसे छोटी बहू थी। वह पढ़ी लिखी समझदार और बिलकुल सादा जीवन उच्च विचार वाली लड़की थी। घर में सास -ससुर, दो जेठ – जेठानी थे, ननन्द की शादी हो गई थी। ससुर गिरीश बाबू एक शिक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए। बड़े जेठ सौमित्र एक बैंक में क्लर्क थे, और उनके दो बेटे प्रायमरी में पढ़ रहै थे।
छोटे जेठ सुधांशु एक कम्पनी में नौकरी करते थे। उनकी एक तीन साल की बिटिया थी। पति अमन एक पोस्ट ऑफिस में नौकरी करते थे। कुल मिलाकर कर इतनी आमदनी महिने की थी, कि वे इज्ज़त से अपना जीवन -यापन, बच्चों की पढ़ाई करवा सकते थे। पहले वे एक शिक्षक कॉलोनी में किराये से रहते थे।
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अमन की शादी के बाद गिरीश बाबू सेवानिवृत्त हुए, कुछ उसका पैसा मिला, और कुछ गाँव में एक मकान था उसे बेचकर सर्व सुविधा युक्त इस पाश कॉलोनी में उन्होंने मकान लिया, सब खुश थे । सौम्या को भी अच्छा लगा कि अब किराया नहीं लगेगा, पूरा परिवार आराम से रहेगा। बच्चों के पढ़ने का कमरा होगा तो उन्हें व्यवधान नहीं आएगा।
वह एक गरीब परिवार में पली थी ,और पैसो की अहमियत को समझती थी। मगर उसकी खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी । इस मकान में आते ही आसपास के लोगों की देखा देखी सारे लक्जरी आइटम घर में बसाने की होड़ लग गई। वह बसाया तो फिर मेंहगे कपड़े, पार्टी सभी का शोक लग गया।
घर पर जो बचत थी वह खर्च हो गई। सास -ससुर समझाते मगर तीनों बेटो पर असर ही नहीं होता, कई बार तो इस झूठी शान के लिए वे उधार भी लेने लगे, घर की शांति भंग हो गई थी। सौम्या इस चमक दमक का हिस्सा नहीं बनी थी, मगर वह अकेली क्या करती। उसने कई बार कहा कि वह नौकरी करले मगर सास -ससुर इसे मर्यादा के खिलाफ समझते थे।
वह सोचती यह कैसी मानसिकता है, बेटो पर कोई रोक नहीं लगा पा रहे हैं, और बहू परिवार के लिए कुछ करना चाहती है तो उसके ऊपर बंधन है।
जैसे-तैसे एक साल बीत गया। परिवार के सभी लोगों की हॅंसी खोखली होती जा रही थी, ऊपर से खुश रहने का दिखावा करते मगर मन में यही डर समाया रहता कि घर का खर्च और ये झूठी शान कैसे कायम रख पाऐंगे। कहीं कोई उधार मांगने वाला घर पर आकर बखेड़ा ना करदे।
तभी उनके जीवन में एक परिवर्तन आया। उनके फ्लेट के बिल्कुल सामने वाले फ्लेट में एक रिटायर्ड कर्नल साहब और उनका परिवार रहने के लिए आया। एक अच्छे पड़ौसी का दिखावा करने के लिए गिरीश बाबू ने उनके परिवार को भोजन के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने सहर्ष निमंत्रण स्वीकार किया मगर साथ ही यह अनुरोध भी किया कि भोजन बिलकुल सादा हो।
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सब सोच में पढ़ गए कि अब सादा भोजन कहाँ से बुलवाऐंगे। क्योंकि अब घर पर यह चलन चल गया था कि अगर किसी को भोजन का निमंत्रण दिया है तो भोजन बाहर से ही आर्डर करके बुलाते थे। सौम्या ने कई बार कहा कि हम तीनों मिलकर बना लेंगे मगर उसकी जेठानिया तैयार ही नहीं होती।
सौम्या ने अपनी सासु जी से कहा माँ आज भोजन बाहर से मत बुलवाइये मैं घर पर बनाऊँगी। तीनों भाइयों को उस दिन पता नहीं क्या हुआ उन्होंने कहा ठीक है, तुम कह रही हो तो घर पर बना लेना। साथ ही दोनों जेठजी ने पत्नियों को हिदायत दी कि वे सौम्या की मदद करे। सौम्या ने उस दिन घर पर दाल, चांवल, दो तीन तरह की सब्जी, रायता,चटनी, हलुआ
और सूजी मावे के लड्डू बनाए। आटा लगा कर रख दिया कि जब वे आऐंगे तब गरम-गरम फुलके बनाकर उन्हें जिमाऐंगे। डाइनिंग टेबल पर बाकायदा सलाद और अचार सब सजा दिए। उस दिन तीनों ने मिलकर भोजन बनाया। कर्नल साहब का परिवार शाम को भोजन करने के लिए आया। उनके परिवार में उनकी पत्नी, एक बेटा- बहू, और एक बेटी थी
जो कॉलेज में पढा़ई कर रही थी। उनका लिबास बिलकुल साधारण था। घर पर सबने उनका अभिवादन किया। डाइनिंग टेबल पर उन्हें भोजन करने के लिए कहा तो कर्नल साहब बोले -‘भाई अगर आपको आपत्ति न हो तो हम नीचे जमीन पर बैठकर भोजन करना पसन्द करेंगे।’ गिरीश बाबू ने कहा जी कोई परेशानी नहीं है भोजन जमीन पर बैठकर करते हैं।
‘ उन्होंने सौम्या को आवाज लगाई और कहा- ‘बेटा! भोजन नीचे जमीन पर लगवा दो। ‘सौम्या ने आसन बिछाए उसके आगे पाटले रखकर सभी को भोजन परोसा। दोनों जेठानियो ने फुलके उतारे। कर्नल साहब को भोजन बहुत पसन्द आया। भोजन करने के बाद दोनों परिवार में बातचीत हुई।
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कर्नल साहब ने कहा -‘भाई मुझे तो सादगी से जीना अच्छा लगता है, पैसा मैं बहुत सोच समझकर खर्च करता हूँ, पता नहीं कब कैसा समय आ जाए। ईश्वर की कृपा से सबकुछ है, मगर मैने अपनी बहू की भी नौकरी लगवाई, कि चार पैसे पास में होंगे तो जीवन आसान हो जाएगा और उसने जो पढ़ाई की उसका उपयोग भी तो होगा।
मैं व्यर्थ दिखावे से दूर रहता हूँ और बच्चों को आनेवाले समय में कैसे जीवनयापन करना है उसके लिए तैयार कर रहा हूँ। हम अपने जीवन में बिना किसी बोझ के संतुष्ट रहै वही सच्ची खुशी है। पैसो को खर्च करने के रास्ते बहुत हैं, मगर हमारी क्या
आवश्यकता है ? हमें कहाँ कितना खर्च करना है ?यह गणित अगर हमने जान लिया तो जीवन खुशहाल हो जाता है।’ कर्नल साहब की पत्नी माया जी ने कहा- ‘आप यहाँ भी अपना भाषण देने लगे, कहीं किसी को बुरा न लग जाए।’
गिरीश बाबू ने कहा- ‘भाभीजी आप परेशान न हो कर्नल साहब बिलकुल सही कह रहे हैं।’
कर्नल साहब कुछ मुस्कुराए और फिर उन्होंने कहना शुरू किया -‘गिरीश बाबू मैं एक बार इस दिखावटी दुनियाँ की चकाचौंध में उलझ गया था, सारे घर का बजट गड़बड़ा गया और जीवन उलझा -उलझा हो गया ।बड़ी मुश्किल से गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर आई है। इस कॉलोनी में फ्लैट लेने से पहले हम सब यह निश्चित करके आए हैं
कि हम अपने सहज, सरल तरीके से सुकून से रहेंगे फिर नहीं उलझेंगे इस चकाचौंध में।’ फिर कुछ रूककर बोले -‘आज आप सबके साथ मिलकर आनन्द आ गया, इतना स्वादिष्ट भोजन कराने के लिए आपका शुक्रिया।अब हम चलते हैं,अब तो मिलना जुलना चलता ही रहेगा। क्षमा चाहता हूँ, कुछ ज्यादा बोलने की आदत है,
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अगर किसी को कुछ गलत लगा हो तो क्षमा करना।’ गिरीश जी के तीनों बेटो को उनकी बातें प्रभावित कर रही थी। बड़े बेटे सौमित्र ने आगे बढ़कर उनके पैर छुए और कहा अंकल आपने हमारी ऑंखें खोल दी। इस सोसाइटी में आने के बाद हम भी अपना धरातल छोड़ कर कुछ उड़ने लगे थे, आज आपकी बाते सुनकर एहसास हुआ
कि हमें झूठी शान दिखाने के चक्कर में अपने घर की व्यवस्था को नहीं बिगाड़ना चाहिए, हम कोशिश करेंगे आपकी बातों पर अमल कर सके।’ फिर उसने अपने भाइयों की ओर देखा उन दोनों ने भी आगे बढ़कर कर्नल साहब और उनकी पत्नी को प्रणाम किया। उन्होंने दिल से आशीर्वाद दिया और कहा -‘खुश रहो, सहज रहो।’
कर्नल साहब के बच्चों ने भी सबको हाथ जोड़कर नमस्कार किया। इस एक दिन की मुलाकात ने गिरीश बाबू के परिवार में परिवर्तन की लहर ला दी। सबने दिखावे की जिन्दगी को छोड़ अपने वास्तविक धरातल पर जीना शुरू किया। जो तनाव उनके जीवन में आ गया था ,वह दूर हो गया और एक दिन गिरीश बाबू ने सौम्या से कहा-
‘ बेटा अगर तू नौकरी करना चाहती है तो जरूर कर, हम सब तेरे साथ है। बस काम ऐसे करना कि घर की खुशी बरकरार रहै। ‘अब सौम्या खुश थी। गिरीश बाबू के परिवार ने इस दिखावे की चादर को अपने जीवन से हटा दिया था,और सब अपने सहज, सरल जीवन में खुश थे।
प्रेषक
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
# दिखावे की जिन्दगी