” चाचा उस प्लाट के पेपर होंगे आपके पास, दे दीजिए प्लीज़ हमें।”
” कौन से पेपर और कौन सा प्लाट???”
” अरे! वही प्लाट और पेपर, जो पापा ने आपके कहने पर ख़रीदा था।”
” अरे! वह तो’ भू-माफ़ियों के क़ब्ज़े में है।”
” कैसे और कब ???चाचा आपने बताया नहीं कभी।”
“ क्या बताते… और अभी भाई के जाने के दर्द से उबरे भी ना थे..”
“पर… चाचा… हमने भी अपने पापा को खोया है..”
” हम खा गए, कर दो मुक़द्दमा हम पर।”
” कैसी बात कर रहे चाचा??? अब पापा नहीं रहे तो मैं ही देखूँगा ना सब कुछ।”
” कहा तो सब पर भू-माफ़िये के क़ब्ज़ा हो गया है।”
” वो तो आपके मित्र थे ना चाचा।”
पति की मृत्यु के क़रीब एक बरस बाद, मेरे कहने पर बेटे ने देवर से प्रॉपर्टी के बारे में बात की तो ये जवाब मिला।
मेरे पति ने कई बरस पूर्व यह प्रोपर्टी ख़रीदी थी और सारे पेपर देवर के पास ही थे, क्यूँकि वो यही काम करते है। मैंने कई बार
दबी जीवन में कहा तो बस ये ही जवाब -” भाई है मेरा। पेपर मेरे पास रहे या उसके।”
मैं भी चुप हो जाती… कह तो सही ही रहे है।आख़िर सगे भाई है उनके।
पति की मृत्यु पर भी कितना सांत्वना दे रहे थे कि… “कोई नहीं भाभी.. आप हमारे साथ रहिए और अपना घर किराए पर दे दीजिएगा…. बच्चे जैसे पहले अपनी-अपनी जॉब में थे… वैसे ही अब ही रहे… मैं भी नौकरी के चलते बाहर रहता हूँ अधिकतर सो… आप और शोभा( देवरानी) साथ-साथ रहिएगा।”
लेकिन …बच्चों की ज़िद थी कि…. मेरी माँ साथ रहेगी हमारे… और मुझे यहाँ मुंबई ले आए।
” देखा माँ! ये वही चाचा है, जिनके गुणगान तुम और पापा दिन-रात करते रहते थे।”
” माँ ये वही लोग है, जब तुम और पापा उस ऐक्सिडेंट में हॉस्पिटल में थी तो नानी से पैसे माँग रहे थे कि-वो आपकी भी कुछ लगती है।तब मैंने और मेरे एक दोस्त ने पैसों का इंतज़ाम किया था।”
मैं रोने लगी। मेरा परिवार है ये सब। सास-ससुर, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी और पता नहीं क़ितने रिश्ते जुड़े थे पति से। पति के जाते ही सारे रिश्ते खतम हो गए। क्या ये रिश्ते नहीं सिर्फ़ धोखा था???या अपनों का अपनेपन का ओढा हुआ एक मुखौटा???
” माँ आज के इस युग में जो हमारे दुःख में साथ हो, वही अपना होता है।”
उस ऐक्सिडेंट में मैं अपने पति को तो ना बचा पाई, लेकिन इंसानियत और हैवानियत दोनों से रूबरू हो पाई।
इंसानियत का रूप राह चलते उन ग़ैरकांवड़ियों ने दिखाया और…हैवानियत… अपनों ने।
आज बेटे-चाचा के वार्तालाप से अपने साथ हुवे गच्चे(धोखे) को जान पायी।
हम अपने बच्चों को कहते है कि… बहुत प्रैक्टिकल हो गयी है… आज की हमारी युवा पीढ़ी…बड़ों का सम्मान करना भूल गयी है…
सच तो यह है कि… बहुत ही समझदार है हमारी युवापीढ़ी…अपनों से मिले धोखे ने उसे बहुत ही परिपक्व बना दिया हैं।
सच भी यही है- अपनों से मिले गच्चों ( धोखे) से ही हमारी आँखें खुलती है अर्थात हम परिपक्व होते है।
संध्या सिन्हा