विवेक तुम कंही जा रहे हो…., तुम्हारी माँ बता रही थी कि कोई इंटरव्यू है ,खाने की टेबल पर दिवाकर जी ने अपने बेटे से पूछा।
हां पापा एक बड़े होटल में रिसेप्शनिस्ट की जॉब है सैलरी भी अच्छी है तो…..
लेकिन तुम्हे प्राइवेट जॉब करने की क्या सूझी…..
पापा मैंने पिछले पांच सालों में कितने एग्जाम दिए सबमे अच्छे मार्क्स भी आये, किसी न किसी वजह से बाहर कर दिया गया।
मैं अब थक चुका हूं… कभी लिखित परीक्षा तो कभी मौखिक साक्षात्कार, कभी ग्राउंड तो कभी मेडिकल कुछ न कुछ रह ही जाता है। कब तक मैं इसी तरह इन्तजार करता रहूंगा। इससे तक अच्छा है कि मैं कोई कंपनी ही जॉइन कर लूं। वेतन के साथ बोनस भी देती है और सुविधाएं भी। मेरे सभी दोस्त ऐसे ही कर रहे है।
खाने के साथ साथ अपनी बात खत्म कर विवेक कमरे में चला गया।
दिवाकर जी और उनकी पत्नी दोनो ही एक दूसरे का मुंह ताकते रह गए।
ऐसा नही था कि विवेक की मेहनत में कोई कमी थी या दिवाकर जी की आमदनी कम थी। बचपन से ही विवेक मेहनती और प्रतिभाशाली रहा है पर विदेश जाने या फौज में भर्ती होने जैसा बड़ा ख्वाब नही था उसकी आँखों मे। वो तो बस कोई भी छोटी मोटी नौकरी करके अपने मातापिता के साथ रहना चाहता था। इतनी सी उम्र में बेटे मन मे हताशा देखकर निम्न मध्यमवर्गीय दम्पति परेशान हो उठे।
आप विवेक को समझाइए न जी, अभी कौन सी उम्र निकली जा रही है प्राइवेट नौकरियां कंही भागी थोड़ी न जा रही है बाद में कर लेगा जब कंही भी भाग्य न खुला तो। विवेक की मां ये हमारे तुम्हारे जमाने की बात नही है आज की युवा पीढ़ी को धैर्य सिखाना बड़ा ही कठिन काम है। फिर भी मैं कोशिश करूंगा।
अगली सुबह अखबार में एक कम्पनी के दिवालिया होने और उसके सारे कर्मचारियों के सड़क पर आ जाने की खबरें देख दिवाकर जी को अच्छा मौका मिल गया। चाय पीते हुए विवेक ने ही उन्हें ये खबर को पढ़कर सुनाई।
अब समझाने की बारी दिवाकर जी की थी बोले बेटा ये प्राइवेट कम्पनियां ‘थोथा चना बाजे घना’ वाली कहावत को चरितार्थ करती है। शुरुआत में तो बड़े प्रलोभन देती है फिर काम और समय मे वृद्धि कर जीवन से सुखचैन ही छीन लेती है। और जब जरूरत खत्म तो नौकरी भी खत्म। इसमे भविष्य सुरक्षित नही है।
जंहा हमने इतने दिन सब्र रखा थोड़ा और सही,…. ये प्रतिस्पर्धा का दौर है समय लगेगा और सफलता भी मिलेगी। बस अपनी मेहनत और कर्म पर भरोसा रखो। तुम जैसे नौजवान यदि मन से हार मानने लगे तो हम जैसे बूढ़ों का ईश्वर ही रखवाला है।
विवेक ने पुनः धैर्य व लगन के साथ शिक्षक भर्ती परीक्षा की तैयारी की और तीसरी बार उत्तीर्ण होने के बाद आज शासकीय विद्यालय में खेल शिक्षक के पद पर कार्यरत है। आमदनी भले थोड़ी कम है किंतु जीवन सुकून और आराम से चल रहा है।
स्वरचित व अप्रकाशित
मोनिका रघुवंशी
थोथा चना बाजे घना