ढलती उम्र – कंचन श्रीवास्तव आरज़ू : Moral Stories in Hindi

कल्पवास का आख़िरी दिन और अम्मा सोच रही है कि कैसे कहे बच्चों से कि जब वो लौटे तो उसके बच्चे भी वही करें जो वो अपनी सास के साथ करती थी ।अब भाई वो समय कुछ और था जब उसकी सास लौटती थी तो कितना उत्सव सा माहौल रहता था । कोई पकवान बना रहा होता तो कोई कठौता भर फूलों से भरा  पानी रख रहा होता तो कोई चमकीली पन्नी से घर को सजा रहा होता और कोई हाथों में माला ले आने की प्रतिक्षा में द्वार पर बड़ा होता ।

सच बड़ा मजा आता ऐसा लगता जैसे घर में कोई शादी पड़ी हो और उनके आते ही बैंड बाजा बजने लगता और जैसे ही वो दलान की ढेहरी डाक आंगन में दाखिल होती तो पूरा घर उनके पैर धोने को आतुर रहता और अंनत जीत बच्चों की होती पहले वही उनका पैर धोते फिर घर के आदमियों यानि लड़कों की भारी आती।उसके बाद कही जाके बेचारी घर की औरतों यानि बहुओं की बारी आती।वही तो मेहनत वो करती और सफल पहले कोई और हो जाता।उसके बाद तो मत पूछो बच्चे उसके आस-पास बैठ कर कहानी सुनते

और लड़के नाश्ता लेकर खड़े हो जाते ।बहुएं बेचारी रसोई में ही सिर धुनती रहती और अंत में खाना बनाकर जब खाली होती तो खिला ने की बारी आती ।पर इसमें एक समानता थी कि सभी एक साथ बैठ कर खाना खाते बड़ा मज़ा आता वो भी ऐसे कि जो खाना दस मिनट में खत्म होना था वो दो घंटे लग जाते अरे ! भाई कल्पवास के चर्चे ही इतने लम्बे होते कि महीनों चलते थे उसके बाद सभी बहुएं बारी बारी से अम्मा के और लड़के बाबू जी के पैर दबाते  और जब वे लोग सो जातेः तो ये लोग भी आराम करने चले जाते।

सच कहूं तो बड़ा मजा आता था ।

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अब ये लोग पता नही  करेंगे कि नही पर छोटे बहू बेटे के साथ घर आई तो देखा पानी से भरा परात सामने रखा था जो छोटे वाले बहू बेटे रख कर गए थे और बड़े बेटे बहू आरती की थाली ,कंधे पर गमछा और हाथ में लोटा  लिये चले  आ रहे हैं  फिर क्या ये देख अम्मा को अपना समय याद आ गया।एक वक़्त था जब वो ये सब  किया करती थी आज उसके साथ हो रहा है भाई हो भी क्यों ना अच्छे संस्कार जो मिले है बच्चों को तभी तो कहा जाता है कि जैसे संस्कार दो बच्चों को आगे चल कर वैसे ही बन जाते है।

 यकीनन वक़्त और उम्र के साथ उन लोगों का साथ तो छूट गया पर सच कहूं तो उनके द्वारा दिये संस्कार आज भी साथ हैं। हमारे बच्चे भी हूबहू वैसे निकले जैसा देखा था।

वरना आज के समय में अब कहा  बच्चे पूछते हैं।

कहते हैं कि अपनी जिम्मेदारी उठाये या इन लोगों को देखे,बस यही कह कर पल्ला झाड़ लेते है।

पर यहाँ बिल्कुल उल्टा है बच्चे तो मां बाप का मुंह देखते रहते हैं।

सच मैं बहुत किस्मत वाली हूं जो ऐसे बच्चे मिले हमको  वो सोच ही रही थी कि पाय लागूं अम्मा कह कर बड़ी बहूत ने उनके पैरों को परात में डाल दिया फिर बारी  बारी से कुंभ कल्पवास करके लौटी मां के चरणों को धोया और आरती किया।

फिर क्या अम्मा ने भी जी भर के “दूधो नहाओ पूतो फलो” का आशीर्वाद लिया।

आज उसे ऐसा लग रहा कि जैसा उसने किया था वैसा ही उसको मिल रहा। क्योंकि बिना कहे ही वो सब कुछ उसे मिला जो उसे ढलती उम्र में चाहिये था।

 

कंचन श्रीवास्तव आरज़ू 

प्रयागराज

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