धागों का डिब्बा – नीरजा कृष्णा

वो आज बहुत अनमनी सी थी। किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था। उसकी मनस्थिति घर में किसी से नहीं छिपी थी। सब समझ ही रहे थे…आज उसके पापा की पुण्यतिथि है और वो उनकी ही यादों में खोई हुई हैं।

उसकी सासुमाँ सविता जी  स्नेह से उसके लिए कॉफ़ी ले आई थीं पर वो उसी तरह उस पुराने जीर्णशीर्ण धागों के डिब्बे को गोद में रखे डबडबाई आँखों से उसे सहला रही थीं।

“लो बेटी, तुम्हारी मनपसंद कॉफीं लाई हूँ। पीकर तुम्हारा मन थोडा़ शांत होगा।”

वो तड़प कर उनसे लिपट कर रो पड़ी,

“जानती हैं मम्मी जी, मेरी शादी का मम्मी पापा को बहुत शौक था। वो कोई धन्ना सेठ नहीं थे पर मेरे लिए एक एक जरूरत की चीज़ इकट्ठा करते रहते थे। मम्मी लिस्ट बनाती थीं और पापा दस जगह घूमफिर कर खरीदते थे।”

कहते कहते वो सिसक उठी थीं।  सविता जी खामोशी से सुन रही थीं। वो फिर बोल पड़ी,

“जब शादी में सिर्फ चार दिन शेष रह गए थे, ताईजी गाँव से आ चुकी थी…उन्होंने ही सुझाया था कि बिटिया के लिए रंगबिरंगे धागों की रील भी आनी चाहिए।”.

बस क्या था…पापा निकल कर ढ़ेरों रंगीन धागों की रीलें ले आए थे। तब ताईजी कितना हँसी थीं और वो हैरान खड़े थे…तब उन्होंने समझाया था,

“अरे भैया, एक सुंदर सा डिब्बा भी ले आते। सारे धागे उसमें सजा देंगे। और सारे रंग ले आए, सफेद काली रील नहीं लाए। सुई का पत्ता भी नहीं है।”

अब सविताजी उत्सुकता से पूछ बैठीं,”तब क्या हुआ?”

वो उत्साह  से भीगे स्वर में बोली,”उनको अपनी  बेटी के लिए  सफेद काला रंग नहीं पसंद था।वो मेरा  जीवन हँसी खुशी से भरपूर रंगबिरंगा रहे …बस यही चाहते थे।”

“और सुई का पत्ता?”

वो फिर बोली,”वो भी वो नहीं लाए क्योंकि उन्हें बेटी के हाथ में सुई की चुभन भी बर्दाश्त नहीं थी।उनका कहना था …सुई के कारण मेरे ससुराल के रिश्तों में भी चुभन नहीं होनी चाहिए।”

अब सासुमाँ ने प्यार से समझाया,” उन्हीं का आशीर्वाद तो यहाँ फलफूल रहा है। कितनी बढ़िया सोच थी उनकी।”

इस बार वो मुस्कुरा कर बोली,”मैं विशाल की बहू की चुनरी में इन्हीं धागों से खुशियों के घुँघरू लगाऊँगी।”

नीरजा कृष्णा

पटना

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