रतनी देवी के दो बेटे हैं, जिनमें अभी-अभी बड़े बेटे मनोहर की शादी सुनयना से हुई थी, सुनयना काफी संस्कारी और सुलझे विचारों की थी, उसने आते ही घर गृहस्थी को संभाल लिया था, सुनयना अपने सास-ससुर, पति और देवर भास्कर का बड़ा ही ध्यान रखती थी, सबको आश्चर्य होता था कि कल की आई बहू ने आते ही घर का नक्शा बदल दिया, पहले जो काम नहीं हो पाये थे, वो सुनयना की समझदारी से जल्दी -जल्दी निपटने लगे थे।
बाहर आंगन के कोने में कबाड़खाना बना रखा था, एक दिन सुनयना जल्दी उठी, सबका खाना-पीना बनाकर रख दिया और कबाड़खाने को साफ करने में लग गई, दो दिन में उसे साफ करवा दिया, कबाड़ बेच दिया और जरुरी सामान कोठरी के अंदर रखवा दिया, उस जगह तीन-चार गमले मंगवाकर पौधे लगवा दिये और लकड़ी का रस्सी वाला पलंग बिछवा दिया, आंगन की शान हो गया था घर का वो कोना, अब सब कोई वहीं बैठकर चाय पीने की होड़ में लगा था।
छोटा देवर भास्कर को ये सब पसंद नहीं आता था, वो अपनी भाभी सुनयना से कन्नी काटता था, मनोहर उसके लिए कुछ भी करता तो अपने मां -बाबूजी के कान भर देता था, ‘भैया तो भाभी के गुलाम हैं, जैसा भाभी नचाती हैं, वैसे ही नाच रहे हैं, अरे! क्या जरूरत थी, गमले और पौधे लगाने की, ये सब शहरी चोंचले है, अब भाभी उन गमलों की देखभाल करेगी और खाना पीना समय पर ना करेंगी।”
लेकिन सुनयना के सास-ससुर अपने छोटे बेटे की बात को अनसुना कर देते थे, उन्हें पता था कि उनकी बहू जो भी कर रही है, इस घर की भलाई के लिए ही कर रही है।
रसोई में बैठकर खाना बनाने से काफी जगह घिर जाती थी, तो सुनयना ने रसोई में पट्टी लगाने को कहा, ताकि वो खड़े रहकर खाना बना सकें, तो मनोहर ने झट से हां कर दी, ये बात भास्कर को रास ना आई, ” ये भाभी तो अपने आराम के चक्कर में फालतू खर्च करवा रही है और भैया तो उनके गुलाम हैं, जो कहे वो कर देते हैं, कभी किसी चीज के लिए मना नहीं करते, मेरा काम सबको चेताना था, फिर ंमत कहना कि मैंने कुछ बताया नहीं।”
सुनयना अपने देवर की हर बार की टोका-टोकी से परेशान हो चुकी थी, पर सास-ससुर और पति उसके साथ थे तो वो कुछ बोलती नहीं थी।
एक दिन गांव में मेला लगा था, जब से आई वो कहीं घुमने नहीं गई थी तो उसने मनोहर से मेला दिखाने को कहा। मनोहर ने हामी भर दी और शाम को तैयार होने को कहा, ये सुनते ही भास्कर फिर से चिल्लाने लगा, “मां को अकेले भोजन बनाना होगा और भाभी को मेला घुमने की पड़ी है, घर की जरा भी चिंता नहीं है, मां ये सब अकेले कैसे करेगी?”
मनोहर के तेवर ये सुनते ही गर्म हो गये, वैसे ही करेगी जैसे सुनयना के आने से पहले करती थी, ‘वैसे भी मां ही सुनयना को मेरे साथ भेज रही है, तुझे क्यों परेशानी हो रही है, तू क्यों ननद बनकर बीच में रोड़ा लगा रहा है।” भास्कर की बोलती बंद हो गई।
अब भास्कर भी शादी लायक हो गया था, कुछ महीनों में उसकी शादी रूपा से हो गई, रूपा बस रूप की ही थी, गृहस्थी के गुण उसमें जरा भी नहीं थे, सुनयना उसकी बराबर मदद कराया करती थी, रूपा थोड़ी नये जमाने की थी।
उसने आंगन में बिछी खटिया को हटाकर चार कुर्सी टेबल वहां पर रखने को कहा तो भास्कर ने तुरंत हां कर दी, तो सुनयना बोली, ‘देवर जी सब किस्मत का खेल है, कल आपके भैया जोरू के गुलाम थे, और आज आप जोरू के गुलाम बन गये हो, सबको जोरू का गुलाम बनना ही होता है, और हंसने लगी।
भास्कर को सारी बातें कांटे की तरह चुभ गई, अब उसने सोच लिया कि वो रूपा के कहे अनुसार एक भी काम नहीं करेगा, इस घर में सिर्फ भैया ही जोरू के गुलाम कहलायेंगे वो नहीं।
सुनयना और रूपा दोनों मिलकर रसोई बनाती थी, रसोई पूरी तरह से खुली हुई थी, सारा सामान बिखरा रहता था, रूपा ने भास्कर को कहा कि रसोई में थोड़ा लकड़ी का काम करवा दें ताकि सामान खुला ना रहे तो भास्कर ने मना कर दिया।
रात को रूपा ने उससे बात नहीं की, बड़ी मुश्किल से उसने मनाया तो बोली, ‘ मै तो घर के भले के लिए कर रही हूं, रसोई कमरे से सीधी दिखती है, सारा सामान दिखता है, मुझे तो अच्छा नहीं लगता है।” आखिर भास्कर ने हार मान ली और जल्दी ही रसोई में लकड़ी की बंद अलमारियां बनवा दी।
“क्यों देवर जी, आप भी अब जोरू के गुलाम बन गये, जैसे रूपा कह देती है, वैसे ही करते हैं।” भास्कर कुछ कह ना सका।
रविवार का दिन आया रूपा ने सुनयना से कहा कि वो भास्कर के साथ सिनेमा देखने को जा रही है, तो सुनयना को अपने मेले जाने वाली बात याद आ गई।
वो तुरंत बोली, “देवर जी आप रूपा को सिनेमा दिखाने ले जा रहे हैं तो रसोई में खाना -पीना कौन करेगा? आप भी अपने भैया की तरह आखिर जोरू के गुलाम हो ही गये।”
ये सुनते ही भास्कर शर्मिंदा हो गया, “भाभी मुझे माफ कर दीजिए, मैंने भैया को बहुत तानें दिये और आपको भी परेशान किया, किस्मत का खेल देखिए, मै जिस बात के लिए आप दोनों को परेशान किया करता था, आज वो ही सब मुझ पर बीत रही है, मुझे बहुत दुख हो रहा है कि मैंने आपकी और भैया की भावना को कभी नहीं समझा, पति की अपनी पत्नी के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी होती है, वो अगर पत्नी की खुशी के लिए आराम के लिए उसके निर्णय में उसका साथ देता है तो उसे जोरू का गुलाम समझ लिया जाता है।”
“हां, देवर जी, अच्छा है आपको ये बात जल्दी समझ में आ गई, आपको आज क़िस्मत ने वहीं खड़ा कर दिया है, जहां कल हम खड़े थे, मै तो आपसे जानबूझकर मजाक कर रही थी, जब मेरी सासू मां ने मुझे कहीं जाने से रोका नहीं तो मै देवरानी को रोकने वाली कौन होती हूं, आप जाइये, सिनेमा देखकर आइये, रसोई मै संभाल लूंगी।”
अपनी भाभी की बात सुनकर भास्कर को राहत मिली, और उसने अपने भैया को क्या, फिर किसी को भी जोरू का गुलाम कहना छोड़ दिया।
धन्यवाद
लेखिका
अर्चना खंडेलवाल
मौलिक अप्रकाशित रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
बहुत ही अच्छी सीख घर आखिर अपना ही होता है
Absolutely