दायित्व – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi

माधवी आज जब से बेटे का ओरिएंटेशन प्रोग्राम अटेंट कर घर आई है। उसका मन कभी अतीव प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है और कभी दौड़ कर अतीत की ओर भागता हुआ गम के सागर में डूब रहा है। 

आज ओरिएंटेशन प्रोग्राम में कई बेटियों को अपना परिचय देते देख वो अभिभूत हुई जा रही थी। एक उसका समय था, जब पढ़े लिखे माता पिता भी बेटियों को स्नातक इसलिए कराते थे कि कम से कम खाता पीता घर मिल जाएगा, सरकारी नौकरी वाला लड़का मिल जाएगा, भले ही दहेज के रूप में लाखों क्यों ना खर्च करने पड़े।

उस लाखों के लिए जड़ जमीन ही क्यों ना बेचनी पड़े। माधवी कभी नहीं समझ पाई थी कि कोई पिता अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई अपनी बच्ची की पढ़ाई पर खर्च ना करके दूसरे के बच्चे को इसलिए दे देता था कि वो उसकी बेटी से विवाह करेगा और दो जून की रोटी और दो जोड़ी कपड़ा देकर अपने दायित्व की पूर्ति कर लेगा।

दो जून की रोटी के अलावा भी जीवन में इच्छाएं होती हैं, ये उस समय के विरले पिता ही समझ पाते थे और जब अपने हाड़ मांस के टुकड़े की भावना पिता ही नहीं समझ पाते थे तो दूसरे की संतान से वो लड़की क्या उम्मीद लगा सकती थी। जीवन बस एक ढर्रे पर चलता हुआ कटता चला जाता था और एक दिन वह जीवन बिना जिए ही समाप्त हो जाता था और उसके बाद पति कहे जाना वाला जो पुरुष जीवित स्त्री के सामने पैसे का रोना रोता रहता था,

अचानक उसके पास पैसों का अंबार आ जाता था और समाज को दिखाने के लिए घड़ियाली आंसू बहाता एक बार फिर से उस स्त्री की विदाई के नाम पर दान के लिए लाखों खर्च किया जाता था। पूरा समाज उस पुरुष की दरियादिली पर वाह वाह कर उठता था, लेकिन क्या उस स्त्री की आत्मा मृत्यु के बाद भी संतुष्ट हो पाती होगी।

जब वो इस धरा से जाती हुई उस पुरुष को ढकोसला करती देखती होगी तो क्या एक बार फिर से उसकी आत्मा में घृणा की लहर नहीं उठती होगी, माधवी अक्सर ये सब सोचा करती थी। क्योंकि कमोबेश उसे अपना जीवन भी ऐसा ही प्रतीत होता था।

वह हमेशा यह सोच कर खुश होती थी कि ईश्वर ने उसे पुत्र से नवाजा है क्योंकि स्त्रियों की आत्मनिर्भरता के मामले में उसके पति की सोच सदियों पुरानी थी। दूसरे की पत्नी का आत्मनिर्भर होना उसके पति के लिए गर्व की बात थी लेकिन माधवी की डिग्री धूल चाटती ही रह गई। अब तो जिंदगी कट जाए और यह रिश्ता निभता जाए, इसलिए वो अब चुपचाप सी होती चली गई है।

सोचती हुई माधवी अचानक दरवाजे की ओर देखने लगी। दरवाज़े की घंटी से वह वर्तमान में आ गई थी।

फूलों की रंगीनी से सराबोर गुलदस्ता, साथ में उसकी पसंद का केक और वेज कबाब लिए एक लड़का खड़ा था।

“माधवी शर्मा” लड़के ने पूछा और माधवी की सहमति पर पार्सल थमा कर चला गया।

“मेरी फूलों सी प्यारी मम्मी के लिए उनके बेटे की ओर से फूलों सा प्यार। मैं जानता हूं कि अभी आप खुश भी होंगी और मेरे जाने से दुःखी भी होंगी तो खुशी भरे क्षण के लिए केक खाइए और गम गलत करने के लिए कबाब की ओर सिर्फ देखिए नहीं, उसे भी खाएं और अपना गम भूल जाएं।” डब्बे पर चिपके कागज पर बेटे ने संदेश दिया था।

“आज के बच्चे भी कितने संवेदनशील हैं।” माधवी को अपने बेटे पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया।

केक मुॅंह में रखते ही एक बार फिर से वो ओरिएंटेशन प्रोग्राम की ओर उड़ चली थी।

लेकिन आज उसका मन मयूर नाच उठा, जब उसने देखा पढ़े लिखे हों या अनपढ़ हों, हर तरह के माता पिता उस ओरिएंटेशन प्रोग्राम में उपस्थित थे और अपनी बेटी को मंच से परिचय देते देख भावुक हो रहे थे। माधवी को खुशी हो रही थी कि अब माता पिता की सोच में उनकी बेटी की आत्मनिर्भरता पहला दायित्व है। किसी और के बेटे पर लाखों खर्च करने से अच्छा है बेटी को ही ऐसा बना दो कि वो अपनी इच्छाओं के लिए किसी पर निर्भर ना रहें। सोचती हुई माधवी से नहीं रहा गया तो एक अतिसाधारण कपड़ों में अतिसाधारण कद काठी के पिता से बात करने का लोभ त्याग नहीं सकी और उनके समक्ष जा खड़ी हुई।

“भगवान का दिया प्रसाद है हमारी बिटिया, अब हम अपने दायित्व से भाग कर इसे किसी के भरोसे तो छोड़ नहीं सकते हैं ना और मान लीजिए किसी के भरोसे छोड़ भी दें तो क्या गारंटी है कि वो मेरी बेटी के मन को समझ सकेगा, नहीं जी, ऐसा जुआ हमें नहीं खेलना। हमें तो अपनी बिटिया का जीवन संवरा हुआ चाहिए।” पास में खड़ी बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए वो अतिसाधारण पिता माधवी को खुद के दायित्व को समझने वाले देवतुल्य प्रतीत हो रहे थे।

आरती झा आद्या

दिल्ली

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