इस बार दुर्गा पूजा में,तिथियां जल्दी पड़ रहीं थीं।एक दिन में ही दूसरी तिथि भी पड़ जा रही थी।हमारे बंगाली पूजा में जिला मुहूर्त में अष्टमी समाप्त होकर नवमी तिथि लगती है,उसे संधि पूजा कहतें हैं।ब्याह के बाद संधि पूजा के प्रति सासू मां की तत्परता देखी थी मैंने
कभी-कभी सुबह चार बजे भी मुहूर्त होने से ,वो समय से पहले पहुंच जातीं थीं पंडाल ,बहू को लेकर।
मां को प्रसाद बिना काटे ही चढ़ाने की परंपरा है,सो थैले में भरकर फल,थालियां और घर के मुखिया का नाम,गोत्र कागज में लिखकर ले जाना वो कभी नहीं भूलतीं थीं।संधि पूजा में शक्कर और पेड़े का भोग लगाया जाता है भक्तों के द्वारा।बलिदान के मुहूर्त में जब पंडित(बंगाली)खाड़ा लेकर गन्ना और बरिया कुम्हड़े की बलि के लिए प्रस्तुत होते,सासू मां एक बड़े से पीतल के लोटे में जल लेकर तैयार रहतीं।इधर पंडित ने बलिदान दिया,उधर सुहागनें एक सौ आठ दीप जलाना शुरू कर देतीं हैं।कोई शंख बजाता है,कोई उलू(जीभ से आवाज निकालना)देता है
।सासू मां लोटे के जल से बलिदान करने वाले खाड़ा(काटने के लिए )में लगी मिट्टी को धोकर उसे लोटे में बड़े जतन से रखतीं,फिर उस जल को सभी उपस्थित जनों के ऊपर छिड़कतीं।उनका यह मानना था कि यह जल किसी रोग को भगाने की अचूक दवा है।उनसे मांग-मांग कर बहुत लोग लेते थे वह जल।यह मान उन्हें मिलता था,सालों से।पंडित जी को असिस्ट भी करतीं थीं वे,क्योंकि आचार नियम उन्हें भी पता थे।आखिर एक पंडित की बेटी थी।
पति गए,फिर तीन साल पहले बेटा गया।खुद के पैर में भी राड डली है, आपरेशन के बाद।अब उम्र तो बढ़ रही है,पर नियम-आचार,शौक,कुछ भी कम नहीं हुआ।मैं शुरू से उनसे कहती थी”आपके जैसे इतना सब मुझसे नहीं होगा।सबके सामने आगे से जाकर बलिदान स्थल की मिट्टी धोकर जल में मिलाना ,और लोगों के ऊपर वह जल छिड़कना मुझसे नहीं होगा।पता नहीं लोग क्या सोचेंगे।तुम्हीं करो,तुम्हीं को मुबारक।”
वो चुपचाप मुस्कुराते हुए कहतीं”समय सब करवा लेता है बेटा।हमारी संस्कृति और परम्परा सास से बहू के द्वारा आगे बढ़ती रहती है।मैंने अपनी सास से सीखा ,तुमने मुझसे सीखा।अब तुम से तुम्हारी बहू सीख पाएगी कि नहीं,यह तुम्हें ही सोचना है।”
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बड़ी होशियारी से उन्होंने मेरी सारी होशियारी निकाल दी।अपने पति और बच्चों की सलामती के लिए हम औरतें सारे नियम आचार सीख भी लेतीं हैं,और मानती भी हैं।अपने खानदान की परंपरा ही तो कुल का ऐश्वर्य है।मैं भी अब अकेले ही बेटे के साथ जाकर सासू मां से सीखे सारे अनुष्ठान करने लगीं हूं।
अब वो चल नहीं पाती,पूजा के स्थान में चढ़ नहीं पातीं,तो क्या हुआ?मेरे हाथों में उनका वही बड़ा सा जूट का थैला ,लोटा(जल से भरा),बच्चों के नाम -गोत्र का कागज,और बच्चों के नाम से जलने वाले दीपक-बाती आ गई।आ गई,या मैंने ले ली।अब इस पूजा में बाहर का घी निषेध है।तो मलाई से पहले घी बनाना ,साफ शीशी में फलों के साथ ले जाना आदि सारी प्रक्रियाएं मुझ पर हस्तांतरित कर दी गई थी।
सुबह अपनी तैयारी के साथ पंडाल पहुंची तो , पंडित जी भी मुझे देखकर चीजें मांगने लगे।मैं एक किनारे बैठी,और जो सामग्री मिल नहीं रही थी,ढूंढ़कर हांथ में देती रही।बलिदान के समय यंत्रचालित सी जल भरा लोटा लेकर पंडित के पास खड़ी रही।बलिदान की मिट्टी और पानी सबको दिया।सुबह के भोग में मैदे की पूड़ियां,और हल्वा ब्राह्मण बना रहे थे,पूछने पर उन्होंने मदद करने कहा।सब कुछ निपटते सवा नौ बजे गए।
प्रसाद लेकर कुर्सी पर बैठ जब मां की मूर्ति को निहारा तो मानो मां का जवाब मिल गया।मैं अनजाने में ही सही,उसी जगह बैठी थी,जहां सास बैठती थीं। बलिदान की मिट्टी ,जल में लेकर रख तो लिया,पर सोचने लगी,मैं कैसे हर किसी के पास जा पाऊंगी,उन्हें आशीर्वाद देने।तभी सारे लोग सिर में हांथ रखकर आ आकर शुद्ध जल लेने के लिए भीड़ मेरे पास आकर शांति जल लेने लगे।
घर आते-जाते नौ बज गए।पोता अपनी दादी को चाय और दूध पिला चुका था।सासू मां के पैर छूने झुकी,तो उन्होंने हंसकर कहा”देखो ,कैसे तुमने हमारे परिवार के संस्कारों को अपनाना सीख गई।पहले बड़ी बैनर्जी यह सब करती थी।अब छोटी बैनर्जी करेगी।हम इस परंपरा को तोड़ने नहीं देंगे।कल , तुम्हारी बहू करेगी।यह विरासत है हमारे पुरखों की,जिसे हमेशा आगे बढ़ते ही रखना होगा।
शुभ्रा बैनर्जी