दायित्व का अर्थ अति नहीं! – अनिला द्विवेदी तिवारी: Moral stories in hindi

रजनीश एक शान्त  स्वभाव का सीधा-सादा सा लड़का था। उसके माता-पिता, गाँव में खेती-किसानी करते थे और चाचा शहर में डॉक्टर थे। अतः रजनीश हायर सेकेंडरी की पढ़ाई गाँव की स्कूल से उत्तीर्ण करने के बाद, आगे की पढ़ाई के लिए, अपने चाचा के साथ शहर आ गया था। शहर में उसके चाचा ने उसे पढ़ाया-लिखाया था क्योंकि गाँव में संयुक्त परिवार में रहकर रजनीश के माता-पिता साझी गृहस्थी सम्हाल रहे थे।

डॉक्टर चाचा के साथ, रजनीश के एक और छोटे चाचा भी रहते थे। शहर में रहकर रजनीश ने कॉलेज में दाखिला ले लिया। वह दोनों चाचाओं के लिए खाना बनाकर, कॉलेज जाता फिर कॉलेज से लौटकर जब आता तो दोनों चाचाओं के कपड़े धोता, बर्तन, झाड़ू, पोंछा करता उसके बाद थोड़ा बहुत आराम करके पढ़ाई करने लगता। 

फिर शाम का खाना बनाता और किसी एक जगह पर उसने नाइट ड्यूटी के लिए काम ढूंढ लिया था ताकि चाचा पर अधिक आर्थिक बोझ ना पड़े।

हालांकि उसके चाचा इसके लिए मना करते रहे लेकिन फिर भी रजनीश ने काम नहीं छोड़ा।

नाइट ड्यूटी से भी जो कमाता, महीने में वह पगार भी रजनीश अपने चाचा के हाथों में दे देता था।

समय बीतता रहा रजनीश पढ़-लिख कर एक दिन अपने पैरों पर खड़ा हो गया। उसको सम्मानित और स्थायी जॉब तो मिल गया लेकिन उसका अठारह घंटे ड्यूटी वाला संघर्ष अभी भी समाप्त नहीं हुआ था। 

वह अपनी ऑफिशियल ड्यूटी के साथ-साथ अभी भी चाचा लोगों की देखरेख, उनका खाना पकाना, बर्तन, कपड़े साफ करना, उन पर इस्त्री करना, झाड़ू पोछा करना, बाजार से सामान लाना आज भी यथावत सम्हाले हुए था।

इतनी बात जरूर थी कि अब वह आठ घंटे की अपनी ऑफिशियल ड्यूटी और घर पर दस घंटे की ड्यूटी के बाद बहुत थक जाता था। इससे उसकी आगे की जो पढ़ाई करना चाह रहा था, वह प्रभावित हो रही थी।

लेकिन फिर भी वह कर्तव्यनिष्ठ भाव से अपना दायित्व मानकर तकलीफ सहकर  भी जुटा हुआ था।

परंतु अब उसके चाचा लोग शायद, उसके द्वारा घर के कामों में मदद को अपना अधिकार मानने लगे थे।

उन्हें यह भी समझ नहीं आता था कि दिन भर घर पर काम करता है, फिर बाहर ड्यूटी करता है जो पगार मिलती है, वह भी हमें ही थमाता है।

आने के तुरंत बाद से वह घर बाहर बराबर ड्यूटी करने लगा था अतः उसके ऊपर किसी ने कोई अहसान नहीं किया लेकिन रजनीश और उसके पिता उन चाचा के अहसानों तले इतना दबे हुए थे कि कभी कोई स्वतंत्र फैसला ही नहीं ले पाते थे।

रजनीश दायित्व बोध के साथ उनकी हर गलत-सही बात को कभी-कभी बेमन से ही स्वीकार करता था।

रजनीश हमेशा यह सोचता था कि भले ही मैने हमेशा मेहनत से कमाकर पढ़ाई की और खाना खाया है लेकिन उन्होंने शुरुआती मुझे बुलाकर आखिर शरण तो दी ही थी अन्यथा वहीं गाँव में ही भैंसों के तबेले में पड़ा रहता।

ऊपर से उसके पिता हमेशा अहसानों का बोझ लादते रहते थे। इस तरह रजनीश कभी अहसानों ने बाहर आकर उबर ही नहीं पा रहा था।

थोड़े दिनों बाद छोटे चाचा अपने परिवार के साथ अलग रहने लगे थे। बड़ी चाची भी शहर आकर रहने लगी थी फिर भी उनके साथ रजनीश काम में बहुत हाथ बंटाता था।

कुछ दिन बीते रजनीश की शादी भी हो गई। उसकी पत्नी पढ़ी-लिखी थी। लेकिन वह भी इनके पारिवारिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करती थी।

रजनीश को एक-एक कर दो बेटे हो गए। आज भी रजनीश के चाचा, रजनीश को अपने पास रखे हुए थे और उसकी पत्नी और बच्चे गाँव में रह रहे थे।

देखते ही देखते रजनीश की शादी को सात साल हो चले थे। रजनीश साल में अधिक से अधिक दो बार गाँव जाता था। आज भी सारी कमाई चाचा के सुपुर्द करता था। रजनीश के पत्नी बच्चों का खर्च उसकी पत्नी के पिता जी उठा रहे थे।

रजनीश का बड़ा बेटा साढ़े चार वर्ष का हो गया था लेकिन उसके पढ़ाई के लिए कहीं कोई जिक्र नहीं था। इसलिए अब रजनीश की पत्नी, रजनीश के अपने चाचा जी के प्रति, अति दायित्व बोध से आजिज आ चुकी थी। 

अतः उसने कहा,,, “बच्चे का एडमिशन कहीं करा दो तो पढ़ाई करे।”

रजनीश ने जबाव दिया,,, “चाचा जी से बात करूंगा, फिर बताऊंगा।”

चाचा जी ने शायद गाँव की स्कूल में ही बच्चे का एडमिशन कराने के लिए कहा था या अलग कमरा लेने के लिए, क्योंकि रजनीश ने कोई जबाव नहीं दिया था।

अब रजनीश के पास तो फूटी कौड़ी नहीं थी क्योंकि सारी कमाई तो रजनीश अपने चाचा के हाथों में ही रखता था तो अलग कमरा लेकर व्यवस्था कैसे करता!

यह बात कहीं से रजनीश की पत्नी को पता चल गई। धीरे-धीरे यह बात उसके पिता को भी पता चली तब उन्होंने अपनी बेटी और नवासों के लिए शहर में रहने हेतु प्राथमिक बंदोबस्त किया।

जब रजनीश ने अलग कमरा लेना चाहा, तब उसके चाचा बहुत भड़क गए जबकि पहले वे स्वयं बोले थे कि अलग कमरा ले लो परंतु उन्होंने सोचा होगा कमरा लेगा कैसे जब एक रुपया हाथ में नहीं है।

फिर उन्होंने रजनीश के ससुर जी को भी बहुत गालियाँ दी कि हमारा घर फोड़वा दिया टका सा गेहूँ और अचार देकर।

बहुत दिन तक उनके साथ रिश्ते बिगड़े रहे। 

रजनीश तो दायित्व और अहसानों के बीच दबा था तो वह उनकी जी हुजूरी करता था लेकिन उसकी पत्नी कहती थी मुझे नहीं जाना किसी की गालियाँ खाने।

रजनीश बहुत दबाव बनाता था उनके घर जाने के लिए लेकिन उसकी पत्नी भी अपनी जिद पर अड़ी रही।

कुछ दिनों बाद उन डॉक्टर चाचा की भी दो बहुएं आ गईं तो उन्हें दूसरी विदाई में ही अपने बेटों के साथ भेजवा दिया तब रजनीश की पत्नी ने कहा,,, “देखा अपनी बहुओं को गाँव में नहीं रख रहे हैं।”

“दायित्व का अर्थ है बड़ों का मान-सम्मान करो ये नहीं कि अपना विवेक खोकर अंधविश्वास करो।

उनके दुःख-सुख में उनके साथ खड़े रहो पर पत्नी बच्चों की उपेक्षा करना भी कोई तुक नहीं है। सामने वाले को तो मिल ही गया था मुफ्त का नौकर जो कमाकर रुपए भी लाता था और घर भर के काम सम्हालता था।”

इस तरह  रजनीश ने फिर धीरे-धीरे अपनी आँखें और कान खोले और अति दायित्व के बोध से बाहर आया।

रजनीश की पत्नी भी अब चाचा के घर आती जाती है, धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो चला है। उचित दायित्व निभाने से रजनीश की पत्नी कभी मना भी नहीं करती अति पर रोक लगाती है। ये कहते हुए,,,“अति सर्वत्र वर्जयेत्”।

©अनिला द्विवेदी तिवारी

जबलपुर मध्यप्रदेश

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