बारिश की बूँदें खिड़की के कांच पर थिरक रही थीं, जैसे किसी पुराने गीत की धुन हो। सुमन खिड़की के पास बैठी थी, चाय का प्याला सामने रखा था, लेकिन उसकी नज़रें कहीं
और थीं। उसी घर में जहाँ कभी बच्चों की किलकारियाँ गूँजती थीं, अब चुप्पियों की चादर तनी हुई थी।
विनय जी, सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी, ड्रॉइंग रूम में अख़बार खोले बैठे थे। आँखें पन्नों पर थीं, पर मन उस वक़्त में अटका था जब ये घर सिर्फ दीवारों का ढाँचा नहीं, एक रिश्ता था। अब हर कोई अपनी-अपनी दुनिया में था। बड़ा बेटा अभय ऊपर वाले हिस्से में अपनी पत्नी रागिनी के साथ रहता था — दोनों की नौकरी, मीटिंग्स और मोबाइल की दुनिया में घर की परछाईं तक नहीं थी। छोटा बेटा निखिल, जिसने स्टार्टअप शुरू किया था, बुरी तरह फेल हो गया। ना नौकरी रही, ना आत्मविश्वास। उसकी पत्नी पायल मायके चली गई थी। सुमन हर दिन सबको जोड़ने की कोशिश में खुद टुकड़े-टुकड़े हो रही थी।
एक शाम, सब कुछ थम गया। विनय जी को सीने में तेज़ दर्द हुआ। निखिल की चीख़ ने पूरे घर को जगा दिया। अभय, जो महीनों से अपने पिता से सीधे नहीं बोला था, घबराते हुए उन्हें अस्पताल ले गया। अस्पताल की सफ़ेद दीवारों के बीच, सबकी आँखें एक जैसी थीं — डरी हुई, नम, और शर्मिंदा।
सुमन ने वहीं फूट-फूटकर कहा — “हमने घर को ज़रूरतों की ईंटों से बना दिया… अब जब वो गिरने लगा है, तो समझ आया कि दीवारें नहीं, रिश्ते पकड़ते हैं।”
उस दिन के बाद कुछ बदला।
रागिनी, जो पहले सुमन से एक दूरी बनाकर चलती थी, अब उनके साथ रसोई में बैठती, पूछती — “माँ, हलवा में इलायची ज़्यादा डाल दूँ क्या?” सुमन मुस्कुरा देती, बरसों बाद।
अभय एक रात निखिल के कमरे में गया। चुपचाप उसकी फाइलें देखीं और बोला — “तू फिर से शुरू कर। इस बार मैं भी साथ हूँ।” निखिल की आँखों में वर्षों का दर्द उतर आया — “भैया… अगर आप साथ हो, तो हार नहीं मानूँगा।”
पायल को निखिल ने खुद फोन किया — “मैं बदल रहा हूँ… क्या तुम फिर से इस सफ़र में चलोगी?” और पायल लौट आई, आँखों में संकोच, पर दिल में उम्मीद।
अब घर में दोपहर की चाय साथ पी जाती थी। शाम की रसोई में हँसी सुनाई देने लगी थी। छत पर फिर से चारपाइयाँ बिछती थीं। एक दिन जब बिजली चली गई, सब छत पर आ गए। दादी की परछाईं से किस्से निकलने लगे — “एक बार की बात है…” — और सब हँस पड़े।
विनय जी ने उसी छत पर धीमे से कहा — “देखो, अंधेरे ने वो कर दिखाया जो रौशनी नहीं कर सकी… हमें फिर से जोड़ दिया।”
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कुछ महीनों बाद, घर में छोटी सी पूजा रखी गई। सबने एक साथ बैठकर भोजन किया। दीवार पर नई तस्वीर टँगी थी — पूरे परिवार की। उसके नीचे लिखा था —
“जहाँ रिश्ते साँस लेते हैं, वही घर होता है।”
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सामाजिक संदेश:
आज की दुनिया में हम दौड़ते-दौड़ते रिश्तों से आगे निकल जाते हैं। अलग कमरे, अलग मोबाइल, अलग खाने की प्लेटें — और फिर शिकायत करते हैं कि “घर अब पहले जैसा नहीं रहा।”
पर सच ये है — घर को बचाने के लिए चुप्पियाँ नहीं, बातें ज़रूरी हैं। एक-दूसरे की थकान को समझना, असफलता पर डाँटना नहीं, थामना ज़रूरी है।
संयुक्त परिवार अब पुरानी बात माने जाते हैं, लेकिन शायद वहाँ अब भी वो जड़ें हैं जो आज के रिश्तों को मजबूती दे सकती हैं।
कभी-कभी बुरा वक्त आता है सिर्फ ये दिखाने… कि जो हमारे पास है, वो सबसे कीमती है।
दीपा माथुर
#हमारा बुरा वक्त जीवन को नई दिशा देता है।