दमयंती – पुरुषोत्तम : Moral Stories in Hindi

उसे याद भी नहीं कि पति के नकारा होने के बाद कब कोई उसे दमयंती नाम से पुकारा हो। अब तो वह भी किसी को अपना नाम बताती है तो दमड़ी ही बताती है। श्यामल पर गठीला शरीर, घाघरा-चोली और कंधे से घुमाके आगे बंधी ओढ़नी, चेहरे पर आत्मविश्वासी मुस्कान और माथे पर सब्जियों का बड़ा-सा डाला। और गली-गली डोलती दमयंती……….. नहीं दमड़ी।

फैक्टरी के आगे की बस्ती में एक झुग्गी उसकी भी थी, जिसमें वह, उसके दो बच्चे और एक विकलांग पति रहता है। उसका पति जन्म से विकलांग नहीं था। कामगार था और अच्छी दिहड़ी बना लेता था और पत्नी-बच्चों को खुश रखता था और खुद भी रहता था।

पर उस दिन काम पर पगार मिलने की चहक में पति ने जो पउआ मारा तो फिर पैर सड़क पर टिकने नहीं लगे और कोयले से लदी हाइवा ने उसके लड़खड़ाते पैरो को जो कुचला, उसके बाकी जीवन को बोझ बनाकर रख दिया।

गरीब आदमी ने चंद पल के मजे के लिए अपना जीवन स्वाहा कर दिया था। और बच्चों के साथ चहकती दमयंती के पास माथे पर सब्जियों का डाला लेकर भटकने के सिवाय कोई विकल्प नहीं रहने दिया था।

दो भाइयों पर एक बहन को लेकर दमयंती के माता-पिता मजूरी करने गाँव छोड़कर शहर आ गए थे। बाप दिनभर मजूरी करता और माँ आजाद चौक के पर फलों की डाली लेकर तीन-चार घंटे बैठ जाती थी

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और जहाँ तक संभव हो परिवार को सहारा देती थी। किशोरवय दमयंती अपनी माँ के साथ कभी-कभी डाले पर बैठ जाती थी। इस निर्धन परिवार में इतनी सोनी लड़की को देखकर वहाँ से गुजरने वाले और उसके ग्राहक भी दंग रह जाते थे।

गोरांग मिठाई वाले मंगरू चाचा दमयंती को डाले पर माँ के साथ आया देख चहक जाते थे ‘दमयंती आती है तो चौक में रौनक हो जाती है।’ चूड़ी दुकान वाली दुर्गा भाभी तो उसके चेहरे को साधते हुए हाथ घुमाकर नजर उतारती थी तो दमयंती का चेहरा लाज से लाल हो जाता था। और चप्पल दुकान वाले केशरी जी का लड़का रघु तो सारा दिन उसे आँख फाड़कर देखता रहता था। दमयंती उधर से अपनी नजरें फेर लेती थी।

अभाव में भी बीते दमयंती के वे दिन उसके सबसे अच्छे दिनों में से एक थे और अब कभी लौटकर नहीं आने वाले थे।  अब तो उसके सिर पर कभी न खत्म होने वाली संघर्षों का ताज था। चौक वही था और लोग भी कमोबेश वही थे पर इन सात-आठ सालों ने उसकी भूमिका बदल कर रख दी थी। लोगों के दिलों में जो स्नेह उसके लिए था

अब उसकी जगह सहानुभूति ने ले ली थी और यही बात दमयंती को तीर की तरह चुभती थी। वह अपने दुःख और संघर्ष से उतनी दुःखी नहीं थी जितनी कि लोगों की कातर नजरें उसका पीछा न छोड़कर उसे साले जाती थी।

लोग दिखावे के लिए उसपर तरस खाते तो थे पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसको टका भर का सहयोग के लिए हाथ जो बढ़ाया हो। सब अपनापन तो जताते थे पर सिर्फ बातों से।

पिछले साल माता का साया भी दमयंती के सर पर से उठ गया था और उसके भाइयों के लिए बीमार पिता को रख लेना भी उसके हिसाब से ज्यादा था। दमयंती को अब किसी का आसरा था भी नहीं। वह सब्जियों से भरी डलिया लेकर पुराने आजाद चौक की तरफ ही निकल गयी थी। वह रघु के चप्पल दुकान से गुजर रही थी

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कि रघु ने उसे इशारे से अपने पास बुलाया। रघु के पिता केशरी जी दुनिया से अलविदा ले चुके थे लिहाजा दुकान रघु चलाता था। दमयंती ने सब्जियों से भरी अपनी डलिया दुकान के गेट के अंदर उतार ही रही थी कि रघु ने फिर अंगुली के ईशारों में डलिया को गेट के बाहर रखने का ईशारा किया। दमयंती ने डलिया बिना किसी भाव के बाहर कर लिया।

“क्या सब्जी लाई है रे दमड़ी”, यह कहकर रघु अपनी नजरें सब्जियों की डलिया पर ले गया। पूरी तरह नजरें डालकर फिर पलटा और कहने लगा – ”क्या दमड़ी, कोई ढंग की सब्जी नहीं है। ढंग का सब्जी लेकर क्यों नहीं आती। क्या केवल पालक, मटर और बैंगन? ये सब्जी तो देखने का भी मन नहीं करता है।”

अपना नाम ‘दमड़ी’ रघु के मुंह से सुनकर दमयंती एक बार के लिए बुरी तरह चौंकीं। ये जो रघु है कुछ साल पहले किस तरह उससे निहारा करता था उससे और अभी ……।  उसने दबे जबान में इतना भर कहा “मंडी में अभी यही चल रही है रघु भैया। देख लो जो है सो यही है और दूसरी कहाँ से लाऊँ।”

“नहीं ये सब्जी तो नहीं चलेगा, आज घर पर चिकन ही ले जाऊँगा। और तुम्हारा पति कुछ ठीक हुआ, चल फिर पाता है कि नहीं, कंपनी वाला कुछ दिया कि नहीं।”

रघु कुछ सब्जी भी नहीं ले रहा था और सवाल-पर-सवाल दागे जा रहा था। दमयंती उसपर खीझकर भी उसका क्या, अपना ही बिगाड़ लेती। उसने आहिस्ता से अपना डाला माथे पर लिया और “भैया, अभी चलती हूँ, जल्दी से सब्जी बेचकर घर जाना है,

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बच्चे राह देखते होंगे।” चप्पल की दुकान से निकलते समय उसकी निगाह उसके पैरो के चप्पल पर गई, बुरी तरह घिस चुकी थी पर दमयंती को उससे ज्यादा घिसा यह दुकानदार लगा। वह डलिया उठाई और चलती बनी।

दमयंती ने सब्जियों की डाली आज वहीं लगाई थी जहाँ कभी वह अपनी माँ के साथ बैठकर सबके आँखों का तारा बन जाती थी। आस-पास और भी कई परिचित-अपरिचित चेहरे थे पर सबके-सब मौन और अपने काम में मगन। जिसपर जो बीतती हो बीते दूसरों का तो अपना जीवन ही भारी था।

आते-जाते ग्राहक मोल-भाव करते, सब्जियाँ लेते या मीन-मेख निकाल कर चलते बनते। उसका ध्यान बीच-बीच में बच्चों पर जाता फिर सोचती कि विकलांग ही सही पिता तो है उनके साथ घर पर। पाँच साल की चमकी तो कप और गिलास खुद से धो लेती है और तीन साल की धनिया के हाथ में मिट्टी के खिलौने, डिब्बा,

लकड़ी जो मिल जाये उसी से उलझ जाती तो उसे कुछ सुध नहीं रहता। आज कुछ पैसे हो जाये तो उसके लिए एक गुड़िया खरीद ले जायें। अभी वह इन्हीं ख्यालों में खोई हुई थी कि ‘कैसी हो दमयंती रानी।’ एक पुरानी आवाज ने उसका ध्यान खिंचा। वह चूड़ी दुकान वाली दुर्गा भाभी थी। दिल को तसल्ली हुई कि कोई तो है जो उसका असली नाम याद रखे है।

“राम-राम भाभी, जैसा रामजी रखे, ठीक हूँ दुर्गा भाभी। तुम कैसी हो, बहुत दिनों बाद नजर आईं?”

“बढ़िया, सब कुछ बढ़िया। मेरी दुकान पीछे चली गयी है, उस गली में। यहाँ दुकान मालिक ने खाली करा दिया। अभी दुकान बंद कर के ही आ रही हूँ, सोची कुछ सब्जी लेती चलूँ। संजोग देखो तुमसे ही भेंट हो गई। तुमपर तो आफत ही टूट पड़ा है बिलकुल, पहले तो माँ बेचारी चल बसी, पिता बीमार हो गये और अब तुम्हारा पति?

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किसी जनम का बदला है कि भगवान तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता है? तुम्हारी माँ बिलकुल साक्षात देवी थी।” दमयंती क्या ही बोले, चुपचाप सुनने को मजबूर थी और यही तो करती आ रही थी पिछले कुछ महीनों से।

दुर्गा भाभी ने आगे कहना जारी रखा – “खैर जो हुआ उसे तो बदला नहीं जा सकता। लेकिन तुम हिम्मती हो, उसमें कोई कहने की बात नहीं। अरे बातों-ही-बातों में भूल ही गयी कि मुझे घर जाने की जल्दी है। ये मटर कैसे दिये दमयंती और पालक भी लेना था।”

“लीजिए न भाभी, सब आप ही का है। मटर सत्तर की है और पालक पंद्रह का बंडल।”

“मटर का दाम बढ़ गया क्या? अभी कल-परसों ही तो साठ की ले गई थी।”

“नहीं भाभी तुमसे झूठ क्यों बोलूंगी, पैंसठ की तो खरीदगी है। तुम पैंसठ की ही ले लो, खरीदगी पर, तुमसे क्या मुनाफा लूँगी।”

“नहीं मुनाफा क्यों नहीं लोगी और तुमको क्या घाटा लगवा दूंगी। चलो आधा किलो मटर दे दो और दो बंडल पालक। और कितने हुए?”

“पैंसठ रुपये भाभी।”

“अच्छा एक दिक्कत है, अभी तो मेरे पास छुट्टे नहीं है। अभी पचास रख लो पंद्रह बाद के ले लेना।”

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“कोई बात नहीं भाभी, ठीक है।” दमयंती से रजामंदी पा सब्जी का थैला उठा भाभी तेज कदमों से बढ़ते हुए भीड़ में गुम हो गई।” दमयंती सोच ही रही थी जब किस्मत झेला ही रही हूँ तो पंद्रह की ओर सही।

सांझ ढलते दमयंती की सब्जियाँ बिक गई थी।  साड़ी के आंचल से बिक्री के पैसे कमर पर बांध कर, माथे पर मुरेठा और उसपर खाली डाला लेकर दमयंती घर की ओर चल दी। दोपहर से शाम करने के बाद एक बार पानी पीने के लिए भी नहीं उठी थी दमयंती। सामने गोरांग स्वीट्स पर मंगरू चाचा गरम-गरम समोसे निकाल रहा था। दमयंती की नजरें उससे मिलीं तो सहसा कह उठी – “राम-राम मंगरू चाचा।”

“राम-राम दमयंती बिटिया। कैसी भाग जो तुम्हारे दर्शन हुए। क्या करोगी बिटिया, सब उपरवाले की मरजी। आज पहला दिन है बिटिया।”

“हाँ, चचा पहला दिन है। थोड़ा पानी मिलेगा चचा। बहुत जोर की प्यास लगी थी।”

“कैसी बात करती हो बिटिया, पानी क्यों नहीं मिलेगा। तुम्हारा ही तो दुकान है।” कहकर पानी का जग दमयंती की ओर बढ़ा दिया।

“दमयंती ने गटा-गट पानी पी लिया तो लगा आंतों में भी हलचल है। ललचाई निगाह से गरमागरम निकले समोसों को देखी।

“समोसे कितने के दिए चाचा।”

“लो न, पंद्रह के एक हैं।”

“नहीं चचा, अभी थोड़े ही पहले खाई हूँ। चटोरी जीभ है मानती ही नहीं है।” कहकर आगे बढ़ती चली गई, बिना मंगरू चाचा को पिछे मुड़कर देखे। सोच रही थी कि समोसे तो खा लूँ पर नन्ही धनिया की गुड़ियल  छूट जाएगी।

–पुरुषोत्तम

(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)

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