दमयंती जी की चाहत ‘ – विभा गुप्ता

 

      हर इंसान की कोई न कोई इच्छा अवश्य होती है और वह उसे पूरी करने अथवा प्राप्त करने की पूरी कोशिश करता है।लेकिन कुछ लोग अपनी चाहत को पाने के लिए हद से आगे भी गुजर जाते हैं।इस कहानी की पात्र दमयंती जी की भी एक चाहत थी।

          अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी दमयंती जी।पिता कस्बे के ज़मीनदार थें तो धन-धान की तो कमी थी नहीं।घर भर की लाडली होने के कारण उसका इशारा होता नहीं कि इच्छा की पूर्ति हो जाती थी।इसी वजह से वह थोड़ी जिद्दी भी हो गई थी।

          इंटर के इम्तिहान होते ही शहर के एक सरकारी अफ़सर से उसका विवाह हो गया।वैसे तो उनका भरा-पूरा ससुराल था,लेकिन खेत-खलिहान की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए उनके सास-ससुर गाँव में ही रहते थें,कभी-कभार ही अपने बेटे के पास आते थें।पति अखिलेश अपने ऑफिस में तो बाॅस थें लेकिन घर में दमयंती जी ही उनकी बाॅस थी।दमयंती जी की आज्ञा बिना तो उनके घर का एक पत्ता भी नहीं हिलता था।

         विवाह के दो बरस बाद बेटी सौम्या पैदा हुई और उसके डेढ़ बरस बाद ही सौरभ का जन्म हो गया।बेटे के जन्म के बाद दमयंती जी और अखिलेश बहुत खुश हुए कि अब हमारा परिवार पूरा हो गया।

      समय के साथ बच्चे बड़े होने लगे,स्कूल की पढ़ाई खत्म करके वे काॅलेज जाने लगे।दोनों ही बच्चे अपनी माँ की आज्ञा का पालन वैसे ही करते थें जैसे कि उनके पिता और गृहसेवक-गृहसेविका करते थें।अखिलेश की भी पदोन्नति हो गई।उन्हें अब अखिलेश साहब कहा जाने लगा।

           सौम्या के बीए पास करते ही दमयंती जी ने धनाड्य परिवार के एक लड़के के साथ उसका विवाह करा दिया। सौरभ का मन पढ़ाई में नहीं लगा, किसी तरह से पचास प्रतिशत अंक से जब उसे बीए की डिग्री मिली तो इतना खुश हुआ, मानों उसे ज़न्नत मिल गई हो।दमयंती जी ने बेटे को हार्डवेयर की एक दुकान खुलवा दी ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके।शुरु- शुरु में तो सौरभ का मन नहीं लगा,वह दुकान पर जाने से भी कतराता था लेकिन फिर माता-पिता और दोस्तों के समझाने पर वह दुकान पर बैठने लगा।हाथ में पैसे आने लगे तो काम के प्रति उसका उत्साह भी दुगुना होने लगा।

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         बेटे की तरक्की देखकर दमयंती जी ने श्रद्धा नाम की एक सुशिक्षित लड़की से उसका विवाह करा दिया और उनके दोनों बच्चे अपनी-अपनी गृहस्थी में रम गए।ईश्वर की अनुकम्पा से सौम्या ने एक पुत्र को जन्म दिया और उसके सात माह बाद उनकी बहू ने भी उन्हें एक पोती की दादी बना दिया।चाहत तो उन्हें पोते का मुँह देखने की थी लेकिन फिर ईश्वर की मर्जी मानकर अपने मन को समझा लिया।

          एक दिन वे पड़ोस के मिसेज अग्रवाल के घर गईं।मिसेज अग्रवाल के पोते की छठी थी।सभी महिलाएँ उन्हें पोता होने की बधाई दे रहीं थीं,उन्हीं में से एक ने दमयंती जी पूछ लिया, ” आप पोते की मिठाई कब खिला रहीं हैं?” दमयंती जी को लगा,जैसे किसी ने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।वे कुछ जवाब दे पातीं,उससे पहले ही विमला देवी जो उनके घर के पीछे ही रहती थीं, बोली, ”  पूत बिना कभी परिवार पूरा हुआ है।पोते का मुख देखे बिना ही चली जाएँगी तो आपकी आत्मा को तो मुक्ति मिलेगी ही नहीं।” कहकर वे दमयंती जी को अपने रिश्तेदारों के अनगिनत उदाहरण देने लगीं।वहाँ बैठी अन्य महिलाओं ने भी विमला जी के उदाहरणों को पूर्ण समर्थन दिया। दमयंती जी की सोई चाहत फिर से जाग उठी और जब वे घर वापस आईं तो अपनी बहू को बोली कि मुझे अपने पोते का मुख देखने की चाह है।

           बेटे के साथ बहू भी आज्ञाकारी थी,सो उन्होंने दमयंती जी इच्छा पूरी कर दी।श्रद्धा गर्भवती हुई और नौ महीने बाद जब उसने एक पुत्री को जन्म दिया तो दमयंती जी का मुँह उतर गया। उन्होंने ठान लिया कि अगली बार भी बहू यदि कन्या को जन्म देगी तो वे बेटे का दूसरा विवाह कर देंगी।

          दूसरी पोती का डेढ़ बरस पूरा होते-होते उन्होंने फिर से बेटे-बहू पर पुत्र-जन्म का दबाव डालना शुरु कर दिया लेकिन डाॅक्टर ने बहू को कमज़ोरी के कारण तीन वर्ष तक ऐतिहात बरतने को कहा।सौरभ के मित्रों ने भी उसे सलाह दी कि बेटे-बेटी में कोई फ़र्क नहीं है।तीसरी संतान लाकर देश की आबादी मत बढ़ा।अखिलेश जी ने अपनी पत्नी को समझाना चाहा लेकिन दमयंती जी ने कब किसी की सुनी है ,जो आज सुनती।उन्हें तो बस पोते की चाहत पूरी करनी थी,सो बहू फिर से गर्भवती हुई।

            पाँच महीने तक तो सब ठीक रहा लेकिन छठे महीने से श्रद्धा की तबीयत बिगड़ने लगी।फिर उसे जाॅडिंस(पीलिया) हो गया जो उसके लिए घातक सिद्ध हुआ और इलाज होते-होते ही उसने दम तोड़ दिया।डाॅक्टर ने बताया कि श्रद्धा की कोख में लड़की थी।दमयंती जी मन ही मन खुश हुई कि चलो, पीछा छूटा।मातमपुर्सी के लिये आये लोगों के बीच उन्होंने घड़ियाली आँसू बहा दिये।महिलाओं ने जब बेटे के दुबारा विवाह करने की बात कही तो कहने लगी, ” जी तो नहीं मानता लेकिन बिन माँ की बच्चियों के लिए नई माँ तो लानी ही पड़ेगी।”

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        एक शुभ-मुहूर्त में दमयंती जी ने गरीब परिवार की कम उम्र की एक लड़की से सौरभ का विवाह करा दिया।बड़ी पोती स्कूल में स्कूल जाने लगी तब पोता देखने की उनकी चाहत फिर से ज़ोर मारने लगी।सो उन्होंने बात छेड़ दी।बेटे ने थोड़ा ना-नुकुर किया लेकिन बेटे की चाह तो उसे भी थी सो…।

        सौरभ की पत्नी गर्भवती हुई और नौ माह के बाद उसने एक पुत्री को जन्म दिया।तीसरी बार भी पोती को देखकर दमयंती जी दुखी तो हुई लेकिन आस फिर भी बनी रही।उन्होंने सोचा, पोती साल भर की होगी तो बहू को दूसरी संतान के लिए कहेंगी परन्तु ईश्वर को तो कुछ और ही मंजूर था।एक दिन बहू को तेज ज्वर आया।दो दिनों तक बुखार में तपती रही और तीसरे दिन अपनी तीन माह की दुधमुँही बच्ची को छोड़कर संसार से हमेशा के लिए विदा ले ली।

        घर में बिन माँ की तीन बच्चियों को देखकर हर किसी को दया आ रही थी।बहू की तेरहवीं पर आई महिलाओं में से एक ने उन्हें कह भी दिया, ” आपके पोते की चाहत ने ही आपकी पोतियों को अनाथ कर दिया है।” 

           अपने मन के भावों को उजागर न करते हुए वे धीरे-से बोली, ” चाहत पर न तो किसी का वश होता है और न ही इसका कोई अंत होता।” 

          पोतियों की देखभाल के लिये दमयंती जी ने एक आया रख लिया और अखिलेश जी भी सेवानिवृत्त होकर पोतियों के साथ अपना समय व्यतीत करने लगे।सौरभ  भी अब बत्तीस का हो चला था लेकिन दमयंती देवी ने हार नहीं मानी थी।उनके विचार से तो आदमी कभी बूढ़ा होता ही नहीं है और सौरभ तो अभी सिर्फ़…,इसलिये  पोते का मुँह देखने की चाहत तो उनकी अभी भी बनी हुई थी।




       लेकिन दो पत्नियों की मृत्यु के बाद सौरभ की आँखें खुल चुकी थीं।दमयंती जी की चाहत के जूनून को देखकर अखिलेश जी और सौरभ घबरा गये।दोनों ने कुछ विचार किया और एक दिन सौरभ एक दुधमुँहे बच्चे को अपनी गोद में लेकर आया तो दमयंती जी बच्चे की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा कि ये कौन है?

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       सौरभ बोला, ” माँ, मुझसे एक भूल हो गई थी।मुझे क्षमा कर दीजिये, यह आपका पोता है।” कहकर उसने बच्चे को उनकी गोद में डाल दिया। पोता’ शब्द सुनते ही दमयंती जी खुशी से फूली न समाई।वे बच्चे को चूमने-पुचकारने लगी।आखिरकार उनके बेटे ने उनकी चाहत पूरी कर ही दी।फिर कुछ याद आया तो पूछ बैठी, ” बच्चे की माँ?” सौरभ बोला, ” वो नहीं रही।” कहते हुए उसने पिता की तरफ़ देखा।अखिलेश जी ने भी आँख के इशारे से सहमति जताई।

           दमयंती जी ने तीनों पोतियों की शादी कर दी और उनका पोता सार्थक भी अपने पिता के व्यवसाय में हाथ बँटाने लगा था।दमयंती जी अंत तक नहीं जान पाई कि सार्थक उनका अपना खून नहीं है।उनकी चाहत पूरी करने के लिए सौरभ ने अनाथालय से बच्चा गोद लिया था,यह राज़ सौरभ और उसके पिता के बीच ही रहा।

                                  — विभा गुप्ता 

 

         अपनी चाहत पूरी करनी चाहिए लेकिन दमयंती जी की तरह नहीं।माँ की चाहत पूरी करना सौरभ का कर्त्तव्य था लेकिन सही समय पर निर्णय ले लिया होता तो श्रद्धा जीवित रहती और दूसरी पत्नी का भी जीवन बर्बाद नहीं होता।

              #चाहत

 

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