दगड़ाबाई चा गुत्ता! – कुसुम अशोक सुराणा : Moral Stories in Hindi

अमावस की रात में झींगुरों की झीं-झीं के बिच, सूखे पत्तों को रौंद कर एक आवाज़ रात की ख़ामोशी को चीरती हुई दगडाबाई के कानों में गर्म शीशे सी पहुँची और कुछ ही पलों बाद उसे ऐसे लगा मानों कोई उसका पल्लू खींच रहा हैं!

ऊँची-ऊँची घास के बिच एक्का-दुक्का ढाबों के आसपास हाइवे से कुछ दूरी पे बने उसके झोपडीनुमा देसी दारू के गुत्ते के सिवा मीलों दूर तक कहीं कोई बस्ती नहीं थी!

बांस पर छोटा सा बल्ब लटक रहा था और एक-दो छोकरे दगड़ाबाई के चिल्लाने के बाद धंदा समेट रहें थे! ‘ताज़ा माल’ तो कब का बिक चूका था! कुछ ‘विदेशी’ बोतले ताड़पत्री के नीचे रखी सन्दुक में दोनों छोकरें करीने से जमा रहें थे! ट्रकों की आवाजाही के बिच शायद उन्हें कुछ सुनाई नहीं दे रहा था या पेट में दौड़ रहें चूहों ने उन्हें मुक-बधिर बना दिया था!

दगड़ाबाई ने पीछे देखा! दो कोमल साँवले हाथों ने उसे कस कर पकड़ रक्खा था! वह कुछ कहना चाह रहीं थी पर डर से मानों उसकी आवाज़ ही चली गयी थी!वह सिर्फ हाथों से इशारा कर रही थी… हाइवे की ओर…

अब तक शोर कर रहें झींगुर भी शायद उसकी पीड़ा को महसूस कर खामोश हो गए थे!

तभी सूखे पत्तों, घास-फूंस को रौंदती कुछ आवाजे तेज हो गई! पास आतें कदमों की आहट पाकर, चमडे के जूतों की कर्र-कर्र सुनकर कुछ-कुछ वह समझ चुकी थी!

वह झोपड़ी के अंदर उस लड़की को लगभग खींचते-खींचते ले गई!

उसने आवाज़ दी.. “छोट्या! उभा रहा तिकडे दारा मागे..अन तू नारया! इथे दारा जवळ, माझ्या लगत!”

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तब तक वो दोनों अधेड़ उम्र के टुन्न हो चुके बेवड़े करीब आ चुके थे! दगडाबाई ने पीछे खड़ी लड़की के सिर पर हाथ फेरा और उसे घाँस- फूंस से बनी दीवार के पीछे धकेल दिया!

बेवड़े होश में तो थे नहीं! वह समझ गई पास के ढाबे से खा-पीकर आए हैं दरिंदे! बच्ची की तलाश में…

तभी एक ने ललकारा, ” ए मावशे! आमचं…सावज आहे! दे गपचुप… ए गण्या! बघ रे… जा झोपडीत… “

असम्बद्ध बड़बड़ाते-बड़बड़ाते सामने आए लड़के को धक्का दे कर वह अंदर घुसने लगा…

अब दगड़ाबाई की सटक गई थी! “माझ्या गुत्त्यात येऊन दादागिरी! मेल्या! लय बघितलेत तुझ्या वानी…” अस्सल मराठी गांवरान गाली देकर उसने बांस के पीछे छुपाया कोयता खींचा! नशे में धुत थे अधेड़ मगर कोयते की बल्ब में चमकती धार देख कर उनकी आँखों के सामने जुगनु चमकने लगे! दोनों लड़खड़ाते-लड़खड़ाते हाईवे के पास खड़े ट्रक के पास पहुंचे ही थे कि वहां से गुज़र रहीं पुलिस की गाड़ी का सायरन सुन दोनों ट्रक में घुस गए और ट्रक रफूचक्कर हो गया !

खतरा टलते ही दगड़ाबाई ने बच्ची को बाहर बुलाया! नन्ही सी कली! अभी तो उसने सूरज की रश्मियों के स्पर्श को महसूस कर पंखुड़ियाँ भी नहीं खोली थी!

दगड़ाबाई कुछ पल के लिए अंतरमुख हो गई! यादों के गुल्लक से वह कुछ लम्हों को समेट रही थी अपनी हथेलियों में पारिजात के फूलों सी !

उस दिन सौतेली माँ ने नई चनिया चोली पहनने को दी तो कितनी खुश हुई थी दगड़ा! बार-बार आईने में खुद को देख फूले नहीं समा रहीं थी! तभी एक अधेड़ व्यक्ति आया और माँ ने जबरदस्ती उसके साथ भेज दिया! खांट पर सोए बीमार पिता खामोश थे! उन्होंने मुँह गोधड़ी से ढक लिया था! माँ तो कब की आसमान का तारा बन चुकी थी और छोटा सौतेला भाई अंदर खर्राटे ले रहा था! रोती-बिलखती वह खुद को उस अजनबी के साथ मानों घसीट रहीं थी! जब अपने नहीं तो पराये क्या सुनेंगे उसकी कराह? उसकी तो मानों ‘दाँतखिळ’ बैठ गई थी!उस मासूम बच्ची को देख कर उसकी स्मृतियों ने उसके दिल का दरवाजा जोर-जोर से बड़ी शिद्दत से खटखटाया!

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बहू ..तुमने समझने मैं गलती कर दी!!!

वह तन्हाईयों में आँसूं बहा रहीं थी! कितना दर्द, कितनी जिल्लत सही थी उसने! आज अगर मैं इस भोली भाली बच्ची को न बचाती तो… वह कल्पना से सिहर उठी! उसने बच्ची को गले लगाया.. आँखों से गिरे आँसू बन गएं थे मोती और दगड़ाबाई बोल पड़ी… “बेटा! अब तू अनाथ नहीं है! आज से मैं तेरी माँ!”

“वेडी! रडू नकोस! इथे कोणी तुझ्या केसाला सुद्धा धक्का लाऊ शकणार नाहीं…दगड़ाबाई चा गुत्ता हाय ह्यो!”

गंगा-जमुना एक-दूजे में समा चुकी थी…

द्वारा कुसुम अशोक सुराणा, मुंबई, महाराष्ट्र!

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