रमा जी नहीं चाहतीं कि रक्षाबंधन का पर्व आए, न इस वर्ष न कभी भविष्य में! पिछले साठ सालों से जिसकी कलाई पर रक्षा सूत्र बाँध ये त्योहार मनाती आ रही थीं, उसने तो, बिना कोई इशारा दिए, सब नाते तोड़ लिए! अब किस काम का रह गया ये दिन ….. सिवाय दर्द देने के!
अपने माता-पिता की इकलौती संतान, रमा हर साल रक्षाबंधन के त्योहार पर भाई के लिए हंगामा मचा देती। बाबूजी कहते कि उन्हें ही बाँध दे राखी पर उस नन्ही बच्ची के गले उतरती नहीं ये बात!
“आपको कैसे बाँध दूँ? आप तो कित्ते बड़े हो! मेरे साथ स्कूल भी नहीं जाते। रुकु का भाई है न! वो तो उसके साथ स्कूल भी जाता है, उसका होमवर्क भी कर देता है। तंग भी करता है रुकु को पर उसके साथ पार्क में खेलता भी है और, और … पता है आपको, चॉकलेट भी खिलाता है! मुझे तो भैया ही चाहिए!”
बिटिया के दिन-ब-दिन बिगड़ते स्वभाव के कारण डॉक्टर ने उन्हें एक और बच्चे के बारे में सोचने की सलाह दी। पर ईश्वर की अनुकंपा न होने के कारण माँ-बाबूजी ने बच्चा गोद लेने का मन बना लिया।
फिर आया था उनके घर छह माह का नन्हा-सा पूरब, उनके सारे दुःख हरने व ख़ुशियाँ बिखेरने!
“छह सालों की राखी एक साथ बाँधूँगी!” छह वर्षीया रमा ख़ुशी के उछल पड़ी थी! उस वर्ष उन्होंने गिन कर छह राखियाँ बाँधी थीं भैया को! नन्हे पूरब की कलाई ही नहीं पूरी बाँह भर गई थी राखियों से!
पूरब उनसे उम्र में छोटा था पर रक्षा के हर अवसर पर उसने अपनी बहन का साथ दिया था। चाहे उनके पहले असफल विवाह से तलाक़ लेने की बात हो या अपने सहकर्मी गोविंद से दूसरी शादी का प्रश्न हो, अम्मा-बाबूजी के न को हाँ करवाने का काम सदा उसी ने किया। जब उनके पति गोविंद की असामयिक मृत्यु हुई तो पूरब ने ही सारे क्रियाकर्म किए क्योंकि उनके अपने बच्चे थे नहीं और गोविंद के परिवार ने तो उनके विवाह के बाद उनसे रिश्ता ही तोड़ लिया था!
जिस रिश्ते की चाह पूरब को उनके परिवार में लाई थी, उसके टूट जाने का ग़म उनसे अब सहन नहीं हो रहा है। भगवान उसके प्रियजनों के बदले उन्हें क्यों नहीं उठा लेता? ऐसे भी अब उनकी ज़िंदगी में रखा भी क्या है? माँ-बाबूजी व गोविंद को खोने का ग़म तो कभी कम हुआ नहीं और अब पूरब के जाने का संताप उसे खाए जा रहा था। और कितने दर्द झेल पाएगा ये आहत मन?
गेट खड़कने की आवाज़ ओर वे बाहर देखने लगीं।
‘ये कौन आ गया? इन आँखों से कुछ दिखता भी तो नहीं! चश्मा न जाने कहाँ….’
“प्रणाम बुआ!” आगंतुक पैरों पर झुकते हुए बोला।
“अरे गौरव तुम? और निधि बहु भी आई है!” कहते हुए उन्होंने दोनों को गले लगा लिया।
“कैसे आना हुआ बेटा?”
“अरे वाह बुआ! आप भी कमाल करते हो! कल रक्षाबंधन है न!”
“अब क्या करना इस त्योहार का बेटा जब….”
माँ ने कहा था कि बुआ आने में आनकानी करेंगी पर उन्हें लेकर आना। उनको जीने का मक़सद देना होगा नहीं तो हम उन्हें भी खो देंगे! जुड़वा नहीं पर जुड़वे भाई-बहन सा ही रिश्ता था उनका!
“करना क्यों नहीं बुआ, मैं भी हूँ न! पापा की कमी नहीं महसूस होने दूँगा आपको! निधि आपका सामान पैक करने में मदद करने आई है। ।”
“पर सामान क्यों पैक करना?”
“माँ को आपकी ज़रूरत है बुआ। पापा के जाने का दुःख उनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा। हम दोनों उन्हें दिलासा देने में नाकाम रहे हैं। आप उनके साथ रहेंगी तो उनका दुःख शायद कुछ कम हो जाए!”
“……………”
भर्राए गले से जब कोई आवाज़ न निकली तो गौरव ने आगे बढ़ उनके दोनों हाथ थाम लिए।
“चलो न बुआ!”
#रक्षा
स्वरचित
प्रीति आनंद अस्थाना