“तो तुम हो मालती”
आवाज़ सुनकर उसने अपना चेहरा ऊपर उठाया… आंखों में हैरानी के भाव थे। वह कोई बाईस-तेईस साल की युवती थी। कुर्सी पर सर झुकाए जब उसे मुक्ता जी ने पुकारा तो उसका ध्यान टूटा… शायद कुछ सोच रही थी।
“क्या हुआ? इतनी हैरान क्यों हो”? मुक्ता जी ने उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछा जैसे उसे संबल दे रही हों।
“जी… जी… वह बहुत सालों बाद किसी ने मुझे मेरे असली नाम से पुकारा है। अब तो आदत ही नहीं रही इस नाम की… शायद मैं खुद ही भूल चुकी थी यह नाम”, उसने धीमे स्वर में कहा।
“कोई बात नहीं… अब तुम्हें सब तुम्हारे नाम से ही बुलाएंगे… मैं हूं ना तुम्हारे साथ”, मुक्ता जी बोली।
‘हम्म’… उस ने सर हिलाया।
मुक्ता जी एक काउंसलर थी जिन्हें एक एनजीओ ने मालती की काउंसलिंग करने बुलाया था और मालती… मालती एक ऐसी युवती थी जिसे कुछ दिन पहले रेड लाइट एरिया से पुलिस ने रेड मारकर छुड़ाया था। उसके साथ और भी युवतियां थी पर मालती बिल्कुल चुपचाप रहती… खोई खोई सी। अपना नाम मालती भी उसने जाने कब और कैसे महिला हवलदार को बता दिया था।
सब लड़कियों को एक एनजीओ द्वारा संचालित एक सुधार गृह में रखा गया था। वहीं पर मुक्ता जी उससे बात करने आई थी। आमतौर पर ऐसी लड़कियों के मिलने पर उनके घर वाले भी उन्हें नहीं अपनाते थे और मालती का पता ठिकाना भी नहीं पता था।
“अच्छा चलो… तुम्हारे घर से शुरू करते हैं… कितने लोग हैं तुम्हारे घर में”? मुक्ता जी ने पूछा।
“जी मां, बाबा… दो छोटी बहनें और सबसे छोटा भाई”, मालती थोड़ा सकुचाते हुए बोली।
“कहां से हो तुम… कुछ याद है… बता पाओगी”
“जी.. उड़ीसा के एक गांव से… पर मैं नाम नहीं बताना चाहती”, वह बोली।
“ठीक है… कोई बात नहीं… जैसा तुम चाहो”, एक दो और बातें कर मुक्ता जी उसे अगले दिन मिलने का वादा कर चली गई।
अगले दिन निर्धारित समय पर मालती फिर से मुक्ता जी के सामने बैठी थी। आज वह थोड़ा संभली हुई लग रही थी और मुक्ता जी को देख कर मुस्कुरा पड़ी।
“मालती.. यह बताओ तुमने कुछ पढ़ाई की है”, इधर-उधर की बातें कर मुक्ता जी ने पूछा।
“जी बारहवीं तक”
“यह तो बहुत अच्छी बात है… अच्छा तो फिर यहां… मेरा मतलब है यहां कैसे आई”?
“अपने सपनों की वजह से”
“खुल कर बताओ”, मुक्ता जी बोली।
“दीदी… मैं आपको दीदी बुला सकती हूं”।
“हां” मुक्ता जी ने सर हिला कर सहमति दी।
“दीदी मैं मैं एक साधारण घर से हूं… पढ़ने में शुरू से ही तेज़ थी। हमारा एक छोटा सा खेत है… मां बाबा उसी में काम करते और मैं और मेरी बहनें स्कूल में पढ़ाई करती थी… भाई अभी छोटा था। मेरी पढ़ाई में रुचि देखकर अध्यापक भी मेरी हौसला अफज़ाई करते… सीमित साधनों में भी मैं हर बार अच्छे नंबरों से पास होने से गांव की अन्य लड़कियों के लिए मिसाल बन गई थी।
अध्यापक हमेशा कहते,” मेहनत करो… खूब आगे जा सकती हो”। बस वहीं से आगाज़ हुआ मेरे सपनों का… मैं सपने देखती… एक बहुत बड़ी अफ़सर बनकर मां-बाप का हाथ बंटाने का।
समय गुज़रता गया… गांव के स्कूल से दसवीं कर ली थी पर आगे की पढ़ाई के लिए बाहर जाना मुश्किल था। फिर एक अध्यापक की मदद से मैंने पत्राचार से 12वीं कर ली।
फिर एक दिन मेरी एक सहेली का मौसेरा भाई शहर से आया उससे बात करने पर पता चला कि वह शहर में पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी भी करता है और घरवालों को उसकी पढ़ाई का कोई खर्चा नहीं उठाना पड़ता बल्कि उल्टा वह उन्हें पैसे भेजता था। उसकी बातें सुन मेरी आंखों में भी उम्मीद जगी और सुनहरे भविष्य के सपने तैरने लगे।
उसने शायद उन सपनों को पढ़ लिया था बोला,” तुम चाहो तो अपने सपने पूरे कर सकती हो”।
“कैसे?”
“मेरे साथ शहर चलो… वहां मेरी तरह आगे की पढ़ाई भी कर लेना और साथ ही नौकरी भी… ना घर वालों के ऊपर कोई बोझ रहेगा और तुम्हारे कुछ बनने के सपने भी पूरे हो जाएंगे। यहां गांव में रह कर क्या करोगी… कुछ देर बाद तुम्हारी शादी कर दी जाएगी और तुम्हारी ज़िंदगी भी बाकी लड़कियों की तरह एक ढर्रे पर ही चलेगी”।
उस वक्त तो मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी। मां बाबा से बात करने की हिम्मत नहीं थी। फिर वह अचानक से चला गया… सहेली से पूछने पर पता चला उसके बॉस ने बुला लिया था।
तीन चार महीने बीतने पर वह फिर नज़र आया। इस बार उसके ठाट बाट देखने वाले थे। महंगे कपड़ों और जूतों में वह अलग ही लग रहा था।
“प्रमोशन हो गई है मेरी.. तनख्वाह पहले से डबल”, वह बोला। यह पहला छलावा था जो उसने मुझे दिखाया था। कुछ दिनों बाद उसने फिर से मुझे शहर में पढ़ने और नौकरी करने के बारे में पूछा।
“मां बाबा से कौन पूछेगा”? मैंने कहा।
“अरे.. उनसे क्या पूछना.. और उन्हें बताना ही क्यों? चुप चाप मेरे साथ चलो.. जब नौकरी कर पैसे भेजोगे तो खुद ही मान जाएंगे और तुम पर गर्व करेंगे”.. यह एक और छलावा था।
बस फिर क्या था पता नहीं मेरी सोचने की शक्ति खत्म हो गई थी या उसकी बातों में कोई जादू था मैं अगली रात ही शहर जाने वाली बस में उसके साथ बैठ गई थी। घर में जो कुछ पैसे रखे थे वह भी मैंने ले लिए थे। वह मुझे मुंबई ले आया। यहां पहुंच कर उसने दो-चार दिन में मुझे पूरा शहर घुमा दिया। भविष्य के सुनहरे सपने मैं अब खुली आंखों से देखने लगी थी… अब मैं जल्द से जल्द पढ़ना चाहती थी और नौकरी करना चाहती थी।
फिर एक दिन उसने मुझे तैयार होने को कहा।” क्या दाखिले के लिए जा रहे हैं”? मैंने पूछा।
“हां.. वहीं”, उसने इस बार नज़र मिला कर बात नहीं की। मुझे कुछ अजीब सा लगा पर अपने सपनों में खोई मैं उसके साथ चल पड़ी।
कुछ देर बाद जिस जगह उसने मुझे पहुंचाया वहां का माहौल देखकर एक पल में मेरे सारे सपने टूटे कांच की भांति बिखर गए। अंधेरे कमरे में मेरी चीखों की आवाज़ कोई सुनने वाला नहीं था… शायद अपने मां बाबा को धोखा देने की सज़ा थी.. पर… पर मैंने तो उन्हें धोखा नहीं दिया था… मैं तो उनकी मदद करना चाहती थी… कुछ बनकर उन्हें गर्वित करना चाहती थी। पिछले चार सालों से नरकीय जीवन जी रही हूं.. अब तो खुद से नफरत हो गई है। हर पल उस घड़ी पर पछतावा होता है जब मैंने उस छलावे को सच मान लिया था। अब तो मर जाने को दिल करता है”, बोलते बोलते वह ज़ोर ज़ोर से रोने लगी।
मुक्ता जी ने उसे ढाढस बंधाया। मुक्ता जी का आए दिन ऐसी लड़कियों से सामना होता था जो कि अपने सपनों के पीछे भागते हुए किसी ना किसी छलावे का शिकार होकर अपनी ज़िंदगी को अंधकार में डुबो देती थी। उन्हें उन लड़कियों पर तरस आता और उन लोगों पर गुस्सा जो ऐसी लड़कियों को हसीन सपने दिखा कर अपना मतलब हल करते। ऐसी कई लड़कियों को मुक्ता जी ने एनजीओ की मदद से ज़िंदगी में आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया था.. और अब मालती की बारी थी।
प्रिय पाठकों, अक्सर हम ऐसी कितनी ही कहानियों से रूबरू होते हैं जहां युवक और युवतियां बहुत बार अपने सपनों को पूरा करने के लिए अनजान लोगों पर विश्वास कर बैठते हैं और अंत में उनके पास पछताने के अलावा कुछ नहीं होता। ज़रूरत है समय-समय पर इन युवक और युवतियों को जागरूक करने की ताकि भविष्य में यह किसी छलावे का शिकार ना हो पाएं।
उम्मीद है आपको मेरी यह कहानी अवश्य पसंद आएगी।
गीतू महाजन