बाबूल की दूआए लेती जा जा तुझको सुखी संसार मिले भावविभोर करती …सामने के घर में जहां कल कितनी रौनक थी आज बेटी की विदाई की तैयारी शहनाई वादन की मधुर धुन मन को विचलित कर रही थी। अपनी बाल्कनी में खड़ी मयूरी शादी की रौनक भीड़ भाड़ देख रही आज उसका मन पहले से ही बहुत खिन्न था शहनाई की धुन से उसे धीरे- धीरे यादों के चलचित्र उसके स्मृति पटल पर संजीव होने लगे…..।
दो माह पूर्व ही तो उसका विवाह हुआ था ऐसी ही रौनक मंगल गीत विदाई सब बिल्कुल वैसा का वैसा आज उसके पति मयंक का दो हफ्ते के लिए अकेले टूर पर जाना उसको बैचेन कर रहा था समझ नहीं आ रहा था आखिर वो इतने दिन मयंक के बिना अकेले रहेगी कैसे ? कितने सपने आँखों में सजाये वो ससुराल आई थी मगर यहां तो अपनापन दूर- दूर तक नजर ही नहीं आया हर कोई एक बेगानेपन का नकाब सा ओढ़े रहता है। सारा दिन सबकी फरमाइशें पूरा करती चक्री की तरह घूमती रहती कभी इधर कभी उधर मगर फिर भी पराया ख़ून,पराये घर की बेटी की उपाधि से ही सम्मानित की जाती रही है।
अभी कल की बात सभी कमरे में हंसी खुशी ठिठोली कर रहे थे, बड़ी ही खुशनुमा महफ़िल जमी हुई थी ठहाके कहकहे गूंज रहे थे …. जैसे ही मयूरी कमरे में गई सभी ऐसे चूप से हो गये मानों सांप सूंघ गया हो….।
” कितना मन था मेरा सबके साथ बैठ कर पलभर हंसी मजाक करने का …. हंसी मजाक तो दूर किसी ने बैठने तक को नहीं कहा मुझे “!!!!!! फिर मेरी हिम्मत ही नहीं हुई चूपचाप कमरे से बाहर आ किचन के काम में व्यस्त हो गई…. ऐसा नहीं की घर में खाने पीने ओढ़ने की कोई कमी हो मगर उसकी हालत पेड़ से टूटी शाखाओं,उसके पत्तों की तरह ही थी ।
अपनेपन की अनेक परीक्षाएं दे चुकी मयूरी को हर बार असफलता ही हाथ लगी। याद है उसे वो कितनी कलाओं में परांगत रही है….ये ससुराल वाले और उनकी संकुचित मानसिकता वाला उसका पति मयंक ने उसकी प्रतिभा का गला घोटने में भला देरी कब करता रहा नृत्यकला, गायन में निपुण उसको इन सभी क्षेत्र में खास तौर पर बता दिया गया ये सब यहां नहीं चलने वाला इज्जतदार परिवार उसके मान सम्मान की दुहाई दी जाती रही। मध्यम वर्गीय परिवार में पली अपने परिवार में सबकी लाड़ली जीवन कैसे हंसते खेलते बिताया जा सकता है वह उससे सीखा जा सकता था। मगर अपनी जीवन प्रतियोगिता में वो आज बिछड़ कर रह गई।
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वैसे तो माता पिता ने देख सुन एक संभ्रांत परिवार में रिश्ता तय किया था उसका पति व ससुर उच्च पद पर आसीन मगर उसको कठपुतली की तरह नाचना पड़ता ऐसी कठपुतली जिसकी डोर सिर्फ ससुराल वालों के हाथ में थी । वो क्या पहनेगी कहां जायेगी किस से बात करेंगी सभी कुछ पति व ससुराल वाले ही तय करते थे….’सब ऊंची दुकान फीके पकवान ‘ की उक्ति पर चरित्रार्थ एकदम फिट बैठते थे ।
उसकी बुनियादी आवश्यकताओं पर यहां रोक लगा दी गई सब आराम से खाते बतियाते सबके खाने के बाद जो बचता वो खाती किसी को जरूरत नहीं मयूरी ने खाया नहीं खाया, फोन करने, बाहर जाने पर सासूमां की पाबंदी यहां तक की उसे जान-पहचान वालों से भी कम ही मिलवाया जाता कई बार कुछ रिश्तेदार मिलने की इच्छा भी जाहिर करते थकी है सो रही या उसकी बीमारी का बहाना बना दिया जाता। उसके पति की इच्छा ही सर्वोपरि रहती उसके थके होने या बीमार होने का कोई महत्व ही नहीं रहता उसको सबकी जरूरत के आगे घुटने टेकने ही पड़ते हर सदस्य उसे अपने अनुसार चलने की ही हिदायत देता रहता।
मयूरी आंँखों के आंँसू पोंछती बड़बड़ाती है.. । “ ये कुछ पुरूष अपनी पत्नी को अपनी जायदाद या सम्पत्ति ही समझते हैं अपनी स्त्री के साथ उनका ऐसा व्यवहार….. उसकी हालत तो उस पौधे की तरह होकर रह गई है जिसे एक जगह से जड़ से निकाल दूसरी जगर रोप दिया गया मिट्टी पानी उस पौधे के लिए कितना अनुकूल है यह जानने की कोशिश ही नहीं की गई मायके से निकाल ससुराल के बगीचे में रोप दिया गया उसकी स्वतंत्रता में प्यार रूपी हवा मिट्टी जिसकी उसको बहुत जरूरत थी न मिलने से उसका व्यक्तित्व मुरझाने लगा था “।
आज ख्यालों में डूबी मयूरी सोचती ही रह गई विवाह के बाद अपने व्यक्तित्व को स्वभाव को जो उसे बहुत बदलना पड़ा…. क्या उसकी अपनी कोई पहचान है ही नहीं?….. क्या विवाह नारी स्वतंत्रता का अंत है ?
कितने दुख की बात है उससे उसकी प्रतिभा छीनने वाला कोई बाहर का व्यक्ति नहीं उसके अपने सास ससुर और पति नाम का प्राणी ही है।
विदाई के समय माता पिता के दिए गये संस्कार, निर्देश दुआओं को याद कर मन विचलित हो उठा….. बेटी अब ससुराल ही तेरा घर पति की आज्ञा पालन ही तुम्हारा कर्तव्य….उसे सोचने पर मजबूर कर देता है….अपनी महत्ता को दबाने अपनी दास्ता के बन्धनों को तोड़ने की सोचना.. …अपनी क्षमता को नजर अंदाज करना…… अलग समाज की कल्पना करना भी स्वप्न ही है उसके लिए, कैसे तोड़े बेड़ियां कोई सहारा तो चाहिए उसे कितना असहाय महसूस हो रहा कोई तो होता जो उसके मन की छटपटाहट समझ सकता।
“ पति पत्नी का रिश्ता कोई गुड्डे गुडिया का खेल नहीं है जब चाहे तोड़ दिया “!!! दादी के शब्द रह -रह कानों में गूंजते आखिर बगावत पर परिवार के दिए संस्कार जाने नहीं दे रहे तटस्थ होकर सोचने पर मजबूर हो रह जाती है।
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उसका मन समाज के इस आधार भूत ढांचे पर गुस्सा करने लगा एक घर की बेटी तमाम बाजे गाजू ढोल धमाके के साथ विदा कर ले जाते हैं….एक परिवार में विछोह का शोक और दूसरे में जश्न की तैयारी समझ नहीं आता कैसे सुखद जीवन की नीव पड़ जाती है…. जहां जरा सी सहानुभूति नहीं सम्मान और समानता नहीं आज उसकी मायूसी भी निराशा के भंवर में डूबी सोचती रह गई।
कितने लाड प्यार से उसकी सामाजिक मानसिक स्वतंत्रता छीन ली गई विवाह नारी स्वतंत्रता का अंत नहीं होना चाहिए नारी को अपनी प्रतिभा, आकांक्षाओं और सपनों को संजोने कर रखने का पूरा हक है जो की उसके जीवन की अनमोल धरोहर होते हैं जिनकोक्षनष्ट करना या रोकना कहा की इंसानियत है । उसका व्यक्तित्व और अस्तित्व एक ऐसी इमारत है जिसे तोड़ने खंडित करने का हक किसी कै भी नहीं है ।उसकी शारीरिक मानसिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना जघन्य अपराध नहीं है तो और क्या है…..?
क्या करना ऐसी अमीरी ऐसी सभ्यता का जो नाटकीयता से कम नहीं ..…यह दुनिया यह समाज इसमें इंसान खामोश रहते- रहते सब्र करते-करते रिश्तों को निभाते -निभाते अपनों को मनाते -मनाते हार जाता है अपना वजूद ही खो देता है।
अचानक सासूमां की तेजतर्रार आवाज सुनकर मयूरी की तन्द्रा टूटती है महारानी कहा हो दोपहर होने को आई खाना मिलेगा या नहीं मयूरी नम आंखों को पोंछती झटके से उठ खड़ी होती है. ….अरे ये क्या विदाई भी हो गई….एक नये अध्याय की शुरुआत….बनेगी फिर एक नई कहानी….हूंँ.. चार दिन की चाँदनी ….बड़बड़ाती, आई माँ कहती किचन की तरफ कदम बढ़ा लेती है।
लेखिका डॉ बीना कुण्डलिया
Beena Kundlia