मायके में कुछ दिन रहने आई रचना ने जब अपनी मम्मी की बात सुनी और उनके आंसू देखे तो मानो, उसे ऐसा लगा, किसी ने उसके मुंह पर कसकर तमाचा जड़ दिया हो।
उसकी मम्मी उसे बहाने से बाहर ले गई। ” चल रचना, बाजार चलते हैं मुझे सूती सूट लेने हैं और तू भी अपनी पसंद का कोई सूट ले लेना। ” थोड़ी देर दोनों जाकर बाजार के पास वाले पार्क में बैठ गई। मां ने कहा कि “क्या करूं तेरी भाभी रश्मि के सामने बात भी नहीं कर सकते।”
मम्मी-” रचना क्या बताऊं तुझे, अभी 6 महीने बीते भी नहीं होते कि तेरी भाभी रश्मि मेरे पीछे पड़ जाती है कि मैं बड़े बेटे विजय के घर चली जाऊं। कहती है कि क्या सिर्फ मैंने ही सेवा का ठेका ले रखा है। जेठानी जी को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। कई बार तो 6 महीने से भी ऊपर हो जाते हैं वह आपको बुलाती भी नहीं है। मेरे भी तो दो छोटे-छोटे बच्चे हैं कितना काम करूं मैं भी। सेवा तो सेवा ऊपर से खर्च भी हम ही करें। उनके दोनों बच्चे तो अब बड़े हो चुके हैं उन्हें आपकी सेवा करने में आसानी होगी। लेखिका गीता वाधवानी ”
रचना -” तो क्या मम्मी, अजय भाई ने कुछ नहीं कहा? ”
मम्मी-” उसने समझाया, गुस्सा भी किया, लेकिन रश्मि ने चिढकर कहा, तुम्हें क्या पता सेवा कैसे होती है तुम तो सारा दिन ऑफिस चले जाते हो। रचना रश्मि तो समझतती ही नहीं है कि जाने को तो मैं चली जाऊं विजय के पास, लेकिन वहां मेरा मन नहीं लगता। जब से शादी करके आई हूं इसी घर में रही हूं इसी शहर को देखा है। यहां मेरी जान पहचान वाले हैं। डॉक्टर के पास भी खुद ही चली जाती हूं। बाजार भी जाना पहचाना है। कभी पार्क में तो कभी कीर्तन में चली जाती हूं। विजय के यहां सब कुछ अंजाना है। ”
रचना-” तो मम्मी क्या सोचा आपने, क्या करोगी? ”
मम्मी ने रोकर कहा -” तुम्हारे पापा के जाने के बाद मुझे तो हर कोई बोझ समझने लगा है, मैं तो दोनों बहू और बेटों की मोहताज हो गई हूं, सब कुछ होते हुए भी मेरा कुछ नहीं है, अब तो भगवान से यही प्रार्थना है कि मुझे अपने पास बुला ले, क्या करूंगी जी कर, अपने ही घर में इतना निरादर। ”
रचना -” ऐसी बातें मत करो मम्मी, कुछ दिन विजय भैया के पास चली जाओ अगर नहीं जाना चाहती तो मेरे साथ चलो। मैं घर चलकर रश्मी भाभी से बात करती हूं। ”
रचना को अपने ही मन में कुछ चुभ रहा था।
मम्मी ने फिर से रोकर कहा -” मैं बेटी के घर नहीं जाना चाहती, और विजय के घर जाकर क्या करूं, चार दिन अपनापन दिखाते हैं, फिर वही अकेलापन, माता-पिता तो चार पांच बच्चों को आराम से पाल लेते हैं लेकिन चार बच्चे मिलकर एक मां को संभाल नहीं सकते। हमारे दिए संस्कारों में कोई कमी रह गई होगी। ”
फिर दोनों बाजार जाती है और उसके बाद घर। रचना बातों ही बातों में रश्मि को समझने की कोशिश करती है लेकिन रश्मि कहती है-” दीदी आप मुझे उपदेश न ही दो तो अच्छा है, आपके ही पड़ोस में मेरी एक सहेली रहती है उसने मुझे आपके घर के लड़ाई झगड़े के बारे में बहुत कुछ बताया है, कि कैसे आप झगड़ा करके अपनी सास बस में बिठाकर अपनी देवरानी के घर छोड़ आई थी। ”
रश्मि के मुंह से यह सच्चाई सुनकर रचना को ऐसा लगा कि मानो उसकी मम्मी के सामने रश्मि ने उसके मुंह पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया हो। यह बात पता लगने पर रचना की मम्मी भी उससे नाराज हो गई थी।
रचना की आंखों से नींद उड़ चुकी थी, सुबह होते ही वह अपने ससुराल भागी।
वहां पहुंचकर उसने अपनी सास से कहा -” मां जी, मैंने कभी भी आपकी परिस्थितियों को समझने की कोशिश नहीं की, आपको कभी इस घर तो कभी उस घर जाने को मजबूर किया, आज अपनी मम्मी की बात सुनकर और उनकी आंखों में आंसू देख कर मैं समझ पाई कि मैं भी तो यही कर रही हूं। मुझे माफ कर दीजिए मां जी, अब आप कहीं नहीं जाएंगी,
मुझे भी पहले यह घर आपका है। यह सब मेरी मां पर बीता, तब मैं समझ पाई कि आपको मैंने कितनी पीड़ा पहुंचाई है। हमारी ऐसी दुख देने वाली बातें ही बुजुर्गों को मोहताज बना देती हैं। वरना बुजुर्ग मोहताज नहीं होते। वे तो ठंडी छांव देने वाले वृक्ष के समान होते हैं। हम बच्चे ही उन्हें समझ नहीं पाते और उन्हें बोझ समझने लगते हैं।
सच तो यह है कि बड़े लोग घर की नींव होते हैं और पूरा घर अपने अस्तित्व के लिए नीव का ही मोहताज होता है। सही कहा जाता है कि जब अपने ऊपर बितती है, तब ही बात समझ आती है। मां जी मुझे माफ कर दीजिए और अब मैं अपनी भाभी को भी सही राह पर लाने की कोशिश करूंगी। ”
बड़े तो, बड़ी आसानी से बच्चों को क्षमा कर देते हैं। रचना की सास ने भी उसे क्षमा कर दिया, और फिर रचना ने रश्मि को बातचीत करके बहुत समझाने की कोशिश की और धीरे-धीरे वह रश्मि को सही राह पर ले आई।
अप्रकाशित, स्वरचित गीता वाधवानी दिल्ली
VM