बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम – श्रद्धा निगम

मधुको.आवाज़ देते हुए विवेक बैंक जाने के लिए तैयार हुआ. -शाम को तैयार रहना।आज हम सब घूमने चलेंगे,और रात का खाना भी बाहर ही खायेंगे। मां तुम भी तैयार रहना।–

-अरे मैं क्या करूंगी जाकर ,तुम लोग चले जाना…

-नही.. इस बार विवेक ने ज़ोर देते हुए कहा-बस चलना है…कोई टालमटोल नही..

विवेक  मालती का इकलौता बेटा था।जब  वो करीब 10 साल का था ,उसके पिता का देहांत हो गया ।बड़ी मेहनत और संघर्ष से मालती ने उसे पढ़ा लिखा कर योग्य बनाया था।आज विवेक बैंक में अधिकारी था।समय से अच्छा रिश्ता मिल जाने पर विवेक का विवाह भी उसने पिछले वर्ष कर दिया।

घर मे रहते रहते अब मालती का कही आने जाने का मन भी नही होता।जैसे रहने लगो ,वैसी आदत भी पड़ जाती है।लेकिन आज विवेक के मनुहार  ने उसके मन को भी जाने के लिए तैयार  कर लिया।

शाम होने वाली थी ।मालती हाथ मुंह धोकर कपड़ो की अलमारी के सामने खड़ी हो गई।ज़माना हुआ ऐसे कही गये  हुए।घूमने.. वो भी बेटा बहु के साथ,शायद पहली बार जा रही थी।सोचा- कोई अच्छी सी साड़ी पहन के जाऊंगी।सोच कर ही चेहरे में मुस्कुराहट आ गयी।

सामने  ही उसको वो साड़ी दिख गयी जो  विवेक के पिता ले कर आये थे।कितना लड़- झगड़ ये साड़ी ली थी उनसे.. कि इस बार मैं सिल्क की साड़ी लूँगी। एक ही बार पहन पाई थी, फिर अचानक ही विवेक के पिता नही रहे।उसके बाद तो जैसे सब कुछ उलट पलट ही हो गया। साड़ी को कुछ देर सीने से लगा  कर एक ठंडी सांस ली

और बड़े करीने से साड़ी पहन कर आईने के सामने खड़ी हुई।एक बारगी उसे लगा स्वयम को देख कर कि मैं कितनी तितर-बितर रहती हूं घर पर… न जाने क्या सूझा कि सूने हाथों में 1 -1 सोने की चूड़ी डाल ली।बालो में जूड़ा बना कर  हल्का सा मेकप भी कर लिया।तभी विवेक की आवाज़ आयी कि

— कितना देर कर रही हो मधु??जल्दी करो।

अरे! आज विवेक कब आ गया पता ही नही चला ।तैयार होकर बाहर निकल ही रही थी कि मधु की आवाज़ आयी.. –मैं तैयार हूं,,मां को देखोतैयार हुई कि नही…



       मालती घर से बाहर निकल कर कार के पास खड़ी हो गयी।मधु और विवेक दरवाज़े में ताला लगा कर आ रहे थे कि मालती को आवाज़ सुनाई पड़ी “बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम–” मधु ने धीरे से हंसते हुए विवेक से फुसफुसा कर कहा- आवाज़ के साथ उसका हंसता चेहरा देख कर मालती के सिर पर जैसे किसी ने घडो पानी डाल दिया हो।विवेक ने मधु को घूर कर चुप रहने का इशारा किया।

अनसुना बनकर किसी तरह मालती कार में बैठी।उसके उत्साह पर पानी फिर चुका था। सोच रही थी– क्यो आ गयी मैं इनके साथ?और आयी तो क्या ज़रूरत थी ऐसे बन- ठन कर आने की….पर मैं तो कुछ खास नही तैयार नही हुई।हाँ साड़ी का रंग शायद ज़्यादा चटक हो गया होगा।अब उसके जाने का बिल्कुल मन नही था,

लेकिन कुछ भी कहने से सबका मूड खराब हो जाता।खामोश रहते हुए मालती खिड़की के बाहर देखती रही।विवेक और मधु हंसी ठिठोली करते जा रहे थे।बीच मे विवेक ने पूछा भी ..क्या हुआ मां तुम चुप क्यों हो?तो उसने टालते हुए कहा –नही तो बहुत दिनों बाद बाहर निकली हूँ तो कुछ अजीब सा लग रहा है।

लेकिन मालती के कान में बार बार वही आवाज़ गूंज रही थी–बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम।किसी के भी मुंह से ऐसी बात कैसे निकल सकती है?मैंने तो कभी मधु के साथ बुरा व्यवहार नही किया ।मैं तो सोचती थी कि मेरी बेटी नही तो बहू के साथ मैं मित्रवत रहूंगी और हम सब ढेर सी बातें भी करेंगे।लेकिन सिर्फ उसकी सोच से क्या होता है?

घूमते हुए भी मालती अनमनी रही।आज तक उसने अपने मन की बात कभी किसी से नही किया।होटल में भी किसी तरह खाना खाया और मन ही मन कुछ सोचती रही।फिर एक कठोर विचार के साथ वो वापिस घर आई।

घर पहुंचने के बाद  मालती ने सपाटआवाज़ में विवेक से कहा- रुको.. तुम लोगो से मुझे कुछ बात करनी है।

–अभी? विवेक ने आश्चर्य से पूछा..

मधु भी सुनकर एक पल ठिठकी …फिर जाने लगी।लेकिन मालती ने उससे भी कहा ….मधु तुम भी बैठो।

माँ की ऐसी ठंडी आवाज़ सुनकर दोनों ही एक दूसरे को देखते हुए सोफे पे बैठ गए।

ऐसी क्या खास बात है? विवेक ने पूछा-

–अब मालती ने मधु की तरफ देखते हुए कहा –मैंने तुम्हारी वो बात सुन ली थी जो तुमने मेरे लिए कहा…मधु का चेहरा सफेद हो गया।विवेक ने कुछ बोलने का प्रयास किया तो मालती ने उसे बीच मे ही रोक दिया।

आज मैं कहूंगी ,तुम लोग सुनोगे-



मालती ने कहना शुरू किया… बचपन मे 4 बहनों में सबसे छोटी थी।पिता अकेले कमाने वाले।घर के खर्च और   लड़कियों की शादी की ज़िम्मेदारी में हम सब लोगो को अम्माँ ने खूब दबा कर रखा।मैं बचपन से बहुत सजने सँवरने की शौकीन थी।लेकिन अम्माँ का कहना था ये सब यहाँ नही।जब ससुराल जाना वहाँ खूब शौक कर लेना।

ये सब ब्याह के बाद ही अच्छा लगता है।वो ज़माना भी ऐसा था।विवाह  संयुक्त परिवार में हुआ।मायके में सबसे छोटी और यहाँ सबसे बड़ी बहू बनी।तीन छोटी प्यारी नंदे थी।उन सबकी शादी की ज़िम्मेदारी भी थी।मैंने अपने मायके में ये परेशानी देखी थी।इसलिए सहर्ष अपने खर्चे काट के इन के लिए पैसा जमा किया।शौक को आगे के लिये छोड़ दिया

कि बस इनकी शादी निपटा के फिर देखेगे।कौन सा जीवन बीता जा रहा। नंदो की शादी करके फुर्सत हुए,सोचा अब अपने लिए भी कुछ खर्च करेंगे।घूमेंगे, फिरेंगे और शौक करेंगे।विधि का विधान देखो कि अचानक तुम्हारे पिता का देहांत हो गया।मालती बिना सांस रोके लगातार बोलती जा रही थी….।

बस फिर सब खतम हो गया। अब जीवन पार करने की  ज़िम्मेदारी आ गई।तुम्हारी परवरिश ,पढ़ाई ,लिखाई सब कुछ अब मुझे अकेले करना था।छोटे से प्राइवेट स्कूल में नौकरी करना और घर लौट कर ट्यूशन पढ़ाना।सिर्फ इतना बचा था।मशीनी ज़िंदगी मे अपने लिए कभी कुछ सोच ही नही पाई। तुम सरकारी नौकरी में आये तो जैसे मैंने ज़िंदगी का इम्तिहान पास कर लिया …

तुमने बताया कि तुमने अपने लिए लड़की पसंद कर ली।मैं और खुश होगयी की चलो ये अंतिम ज़िम्मेदारी भी मेरी खत्म हुई।अब मेरे आराम के दिन आये।इतने सालों में मैंने अपने को कभी याद ही नही किया।अपनी पसंद ,नापसंद …शौक.. कभी किसी को बताया नही।अपने कष्ट ,दुःख सब अपने तक सीमित रखा।

पर जब आज तुमने मुझे घूमने के लिए कहा तो मेरा मन खुशी से झूम उठा।सोचा पहली बार तुम लोगो के साथ जा रही हूं बिना किसी चिंता के। मैं कितनी खुशनसीब हूँ कि मेरा भी अब सुखी परिवार है।आज तुम्हारे पिताजी की याद आयी तो—-मालती की आंखे डबडबा गयी।मधु की ओर देख के कहा …बेटा बस इसीलिए मैं बूढ़ी घोड़ी—

।मधु मालती से लिपट के रोने लगी।मां मुझे माफ़ कर दो।मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गयी।पता नही मैं कैसे अपने संस्कार भूल गयी।विवेक भी मां के पैरों में सिर रखकर बैठ गया।मां मुझे भी माफ कर दो।गलती मेरी थी मैने भी कभी मधु को आपके त्याग और संघर्ष की बात नही बताई। आज मालती अपना सारा गुबार निकाल कर   शांत हो गयी थी।

श्रद्धा निगम

बाँदा( उप्र)

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