मम्मा कहां हो?
सारे कम’रों में आवाज लगाती.. सिम्मी मुझे ढूंढ रही थी’
बस मैं कुछ घड़ी के लिए सुस्ताने ही बैठी थी
पता तो था वो,आने वाली है पर लगा कमर सीधी कर ही लूं!!
हां हां… यही हूं!
क्या बात है बेटा?
सिम्मी रूआंसी सी होकर बोली, आज भूख के मारे हालत खराब है.. चक्कर आ रहे हैं
‘फटाफट जो भी बना खाने को दे दो’.. मैंने कहा हाथ तो धो ले!
बैठ.. डाइनिंग टेबल पर!
मैंने खाना परोसा और उसकी ओर.. एकटक देखने लगी
नहीं मालूम था उसे कि थाली में क्या है ?
बस फटाफट ‘खाए चली जा रही थी ‘
यूं तो बच्चों की पसंद का खाना हर मां बनाती है पर “कभी-कभी इसमें वह मनमानी भी करती है”
‘ एक पसंदीदा सब्जी के साथ’ एक ऐसी भी… चल जाती है जिसे ‘बच्चे बिल्कुल पसंद नहीं करते’
और आजकल के जमाने के तो ‘टिंडा, तोरई.. घिया’ से तो कोसों दूर भागते हैं
उसकी पेट पूजा हुई तो मैंने ‘मुस्कुराते हुए आइसक्रीम का कप बढ़ा दिया…बोली, वाह.. मजा आ गया!
वो फिर,कप उठाकर अपने कमरे में चली गई
मैंने गहरी सांस ली और वापस अपने कमरे में जाकर लेट गई
थकान से बोझिल तो थी पर ‘बच्चों के चेहरे की मुस्कान से मन महक उठता है’
वैसे तो ये, रोज रोज की बात थी
अगले दिन मैंने सिम्मी को बिस्किट का पैकेट दिया.. कहा, सुन.. जब,बस में बैठती है तो खा लिया कर!
मम्मा.. मैं, छोटी बच्ची हूं जो बिस्किट खाऊंगी’
कितना, बुरा लगेगा!
अगले दिन’डाइट चॉकलेट बार’ दे दी.. ‘खुद पर ही हंसी, ये भी अच्छी चोंचले बाजी है’
फिर सोचा..चलो इसी बहाने कुछ तो पेट में जाएगा !
वो फिर तुनतुनाई.. मम्मा… ‘रोज-रोज ये भी नहीं खाया जायेगा”
असल में’ उसका कॉलेज शहर से बहुत दूर था’ 100 किलोमीटर के दायरे में रहने वालों को हॉस्टल फैसिलिटी भी नहीं थी बहुत बढ़िया पीजी समझ में नहीं आ रहा था
‘ कॉलेज ने वैसे बसें लगा दी थी’
तो,आने जाने में ही’ डेढ़ से दो घंटे लग जाते थे’
स्कूल की तरह लगातार क्लासेस होती थी
रोज भूख तो लगती थी…
पर खाना.. साथ नहीं ले जाना होता था.. ‘पता नहीं बच्चों को, क्यूं शर्म आती थी’
बहुत जोर लगाकर उसे तीसरे दिन मैंने फायल पेपर में लपेट के ‘जीरा आलू की सब्जी परांठे के अंदर .. रोल बना कर दे दी थी’ और धमकाते .. आंखें दिखाते हुए कहा ‘चुपचाप ले जाओगी और जैसे ही “आते हुए बस में बैठोगी अच्छे से नेपकिन से हाथ साफ करके खा लेना”
मम्मा ..’ कॉलेज जाने वाली लड़की’ अब यह काम भी करेगी?
क्यों?
अरे.. कॉलेज जाने वाले लोगों के पेट नहीं होते क्या ?
खाना नहीं खाते हैं वो? लोग जो नौकरी करते हैं वह टिफिन लेकर नहीं जाते हैं ..बता मुझे?
मम्मा समझो.. इंजीनियरिंग कॉलेज है लड़के भी होते हैं बस में… मैं परांठा खोल कर खाने बैठूंगी तो कैसा लगेगा? ‘अच्छा वापस ले आना’
अभी तो ले जाओ… और देख, धीरे से खोलना मुंह नीचे करना..
और हाथ को थोड़ा सा मुंह के साथ सटा कर एक बाइट ले लेना.. फिर देखना!
अब मैं भुनभुनाती हुईं बोली’ ‘ले जा चुपचाप बड़ी अलग दिमाग लगाने वाली है’
खैर वो ‘परांठा ले गई’ और मैं दिन भर के काम निपटाकर, शाम तक उसके आने का रिएक्शन देखना चाहती थी
इस बार घंटी बजी मैंने मुस्कुराकर कहा ‘ परांठा पेट में रख लिया?
बोली, आज तो बस.. पूछो मत!
क्यों.. ऐसा क्या हो गया?
हाथ का काम रोक कर के मैंने धीरे से पूछा!
सिम्मी बोली.. मम्मा मैंने फायल खोला और एक बाइट धीरे से ले ली..
फिर और .. फिर…!!
फिर खत्म!!
कैसा रहा? अब मेरी विजयी मुस्कान जारी थी
वो खुशी से चहकी.. मम्मा सच में पेट के सारे चूहे.. ‘शांत होकर बैठ गये’ अभी जल्दी नहीं है आराम से काम कर लो !
फिर खाना दे देना..
मै, उसके चेहरे की मुस्कान देख रही थी और बोली.. देख, तेरे बगल में कोई बैठा हो तो कल ‘आधा उसे भी दे देना’
उन्हें भी भूख लगती होगी ना..
अच्छा आपने क्या ‘जनता की सेवा शुरू कर दी’
ओहो.. मैं फिर भी, दो परांठे.. रख दूंगी!
शाम को मैं उसके आने की राह देख रही थी
वो आई.. मेरे गले में बाहें डालकर झूलती सी बोली मम्मा..
आज तो मजा ही आ गया आपके दिए परांठे में से मैंने एक टुकड़ा अपने बगल वाले लड़के को दिया.. आधा परांठा आगे वाली को दिया..
उसने आधा बगल वाली को दिया ..
वो ‘आधा आधा करके.. कईयों ने थोड़ा-थोड़ा खाया’ पर मजा बड़ा आया और अब ..’हम सब ने यह तय किया है कल से हम सब, अपना टिफिन लाएंगे’
बसें तो वही खड़ी रहतीं हैं और हम’ अपना अपना टिफिन बस में छोड़ देंगे’ और दोपहर बाद,जैसे ही बस में बैठेंगे तो आराम से खा पीकर .. फ्री हो जायेगे बस “जब पूरे शहर में चक्कर लगाकर हमें घर पहुंचायेंगी” तब तक हमारे पेट भर चुके होंगे!
मैंने मुस्कुराते हुए कहा… और मैं अगर ‘सुबह उठकर.. ना बनाऊं तो ?
क्या मम्मा.. थोड़ा सा एक्स्ट्रा भी डाल दोगे तो चलेगा!
हो सकता है कोई ना हीं ला पाए …
फिर!
अच्छा” चल चल”
मक्खन मत लगा मुझे…
पर शायद बच्चे सही रास्ते पर आ गये थे
पर सच बात तो यही है भूखे पेट भजन न होय गोपाला…
लेखिका अर्चना नाकरा