इस कहानी में समाज के पुराने रूढ़िवादी विचारों, औरतों के संघर्षों, उनकी भावनाओं और आपसी प्रेम का सुंदर चित्रण है। यह कहानी एक ऐसी महिला, बड़की बहू, की है जो एक बेटी की माँ है, लेकिन बेटे की माँ न बन पाने की टीस उसके दिल में हमेशा से है। रमा चाची जैसे लोग, अपनी रूढ़िवादी सोच के कारण, बड़की बहू के घावों पर नमक छिड़कते हैं। लेकिन उसकी छोटी बहू की समझदारी और प्रेम ने इस दर्द को मरहम में बदल दिया। आइए इस कहानी को विस्तार से समझते हैं।
अहोई अष्टमी का दिन था। यह त्योहार माताएँ अपनी संतानों की लंबी उम्र और खुशहाली के लिए करती हैं। इस दिन महिलाएँ व्रत रखती हैं और चांदी की शिहाऊ माता की पूजा करती हैं। चांदी की शिहाऊ माता एक प्रतीक है जो इस व्रत की गहराई को और मातृत्व के महत्व को दर्शाता है। सुबह से ही घर में एक अलग-सी रौनक थी। अम्मा जी ने पूरे घर को सजवाया था और सभी तैयारियाँ करा दी थीं। बड़की बहू ने भी पूजा की तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
बड़की बहू की शादी को कई साल हो चुके थे। उसकी एक प्यारी-सी बेटी थी, जो उसकी जिंदगी का उजाला थी। लेकिन कुछ साल पहले बड़की बहू को डॉक्टरों ने बताया था कि उसे बच्चेदानी में कैंसर है, और उसे तुरंत ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। इस ऑपरेशन के बाद वह अब माँ नहीं बन सकती थी। उस दिन से उसका सपना टूट चुका था कि वह कभी बेटे की माँ बन पाएगी। उसका दिल अंदर से टूट चुका था, पर उसने अपनी बेटी के लिए अपने आपको संभाल लिया। उसने अपनी बेटी में ही अपनी सारी खुशियाँ बसा ली थीं।
इस बीच, पड़ोस की रमा चाची अपनी बहू और पोते के साथ अहोई अष्टमी की पूजा में शामिल होने के लिए आईं। उनके चेहरे पर दिखावा भरी मुस्कान थी, लेकिन उनके दिल में एक तरह की रूढ़िवादी सोच बसती थी। अंदर आते ही रमा चाची ने बड़की बहू को चांदी की शिहाऊ माता पहने हुए देखा, तो जैसे उसके मन में टीका-टिप्पणी करने की मंशा जाग उठी। रमा चाची बिना कुछ सोचे-समझे बोलीं, “चांदी की शिहाऊ माता तो सिर्फ बेटों की माँ ही पहनती हैं, और वही इस व्रत को रख सकती हैं। बड़की बहू की तो केवल एक बेटी है और बच्चेदानी के कैंसर की वजह से दूसरा बच्चा भी नहीं होगा।”
रमा चाची की बातें सुनते ही वहाँ सन्नाटा छा गया। अम्मा जी भी एकदम स्तब्ध रह गईं। ऐसा नहीं था कि उन्हें अपनी बड़की बहू की तकलीफों का पता नहीं था, लेकिन किसी के सामने इसे कहने की जरूरत नहीं थी। रमा चाची की इन बातों ने बड़की बहू के उस घाव को फिर से कुरेद दिया, जिसे उसने बड़ी मुश्किल से समय के साथ ठीक करने की कोशिश की थी। वह कुछ पल के लिए खड़ी रह गई, उसकी आँखों में आंसू छलक उठे, और वह अंदर ही अंदर खुद को दोष देने लगी।
इस कहानी को भी पढ़ें:
उसके मन में अजीब सी वेदना थी। उसने सोचा, “क्या माँ बनना केवल बेटा पैदा करने तक ही सीमित है? क्या केवल बेटों की माँ ही इस व्रत को करने का अधिकार रखती हैं? क्या मेरी बेटी के लिए मेरा मातृत्व कम है?” ऐसी कई बातें उसके मन में उठ रही थीं। उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। उसकी खामोशी उसके दर्द को और गहरा कर रही थी। वह मन ही मन अपनी किस्मत को कोस रही थी कि काश भगवान ने उसे यह दुःख न दिया होता।
तभी, वहाँ उसकी छोटी बहू आई। उसकी गोद में छह महीने का बेटा था। वह इस माहौल को समझ गई थी और बड़की बहू के आँसुओं को देखकर वह अंदर तक हिल गई थी। उसने रमा चाची की ओर देखा और शांत लेकिन दृढ़ स्वर में बोली, “रमा चाची, अहोई अष्टमी का व्रत किसी विशेष संतान के लिए नहीं बल्कि अपनी संतान की लंबी उम्र, सुख, और खुशहाली के लिए रखा जाता है। यह व्रत केवल बेटों के लिए नहीं बल्कि बेटियों के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है। प्रार्थना और उपवास हम अपनी संतानों के लिए ही करते हैं, चाहे वो बेटा हो या बेटी। बेटा-बेटी में भेदभाव भगवान ने नहीं रखा है, तो फिर हम इंसान किस आधार पर ऐसे भेदभाव करें?”
छोटी बहू की बातों में गहरी समझ और प्रेम झलक रहा था। उसने समाज के उन रूढ़िवादी विचारों को तोड़ने का प्रयास किया, जो बेटों और बेटियों के बीच भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। उसकी यह बातें सुनकर सब एक पल के लिए मौन हो गए। अम्मा जी ने भी अपने मन में संतोष महसूस किया कि उनकी छोटी बहू ने कितनी समझदारी से बात की है।
रमा चाची के पास अब कहने के लिए कुछ नहीं बचा था। वह खिसियाई सी हो गई और बहाने से वहाँ से चली गईं। छोटी बहू ने फिर अपनी जेठानी का हाथ पकड़ा और मुस्कुराते हुए बोली, “आइए जेठानी जी, हम दोनों मिलकर अपने बच्चों के लिए यह व्रत करें। आपकी बेटी भी मेरी बेटी जैसी है और मेरी भी वही दुआ है कि वो हमेशा स्वस्थ रहे और खुश रहे।” यह कहते हुए उसने अपनी जेठानी को पूजा में शामिल होने के लिए अपने पास बिठा लिया।
बड़की बहू के दिल का दर्द धीरे-धीरे कम होने लगा। छोटी बहू की बातों में जो सच्चाई और सहानुभूति थी, उसने उसके मन को शांत किया। उसे लगा कि अब वह अकेली नहीं है। छोटी बहू का साथ उसे एक नई उम्मीद दे गया। उसकी छोटी बहू का स्नेह और समझदारी ने उसके दिल के घावों पर मरहम का काम किया। उसकी आँखों में खुशी के आँसू थे, जो अब तक के दर्द को जैसे धो रहे थे।
अम्मा जी भी एक कोने से खड़ी होकर यह सब देख रही थीं। उनके चेहरे पर संतोष और गर्व की चमक थी। उन्होंने महसूस किया कि उनकी दोनों बहुएँ कितनी समझदार और संवेदनशील हैं। उन्हें अब किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करना था, क्योंकि उनकी दोनों बहुएँ उनकी संतान जैसी थीं।
अम्मा जी ने मन ही मन भगवान का धन्यवाद किया कि उनकी बहुओं के बीच यह प्यार और समझदारी बनी रहे। उन्होंने दोनों बहुओं को गले लगाया और उन्हें अपने आशीर्वाद दिए। उनकी आँखों में एक नई उम्मीद की झिलमिलाहट थी, जिसे देखकर सभी की आँखों में भी खुशी थी।
इस कहानी को भी पढ़ें:
पूजा की समाप्ति पर, चांदी की शिहाऊ माता के आशीर्वाद में दोनों बहुओं ने अपने बच्चों के साथ बैठकर भगवान से प्रार्थना की कि उनके बच्चे हमेशा खुश रहें, चाहे बेटा हो या बेटी। यह देखकर अम्मा जी की आँखों में एक बार फिर खुशी के आँसू आ गए, क्योंकि अब उनके घर में कोई भेदभाव नहीं था।
इस तरह, छोटी बहू की समझदारी ने बड़की बहू के जीवन में शांति और सुकून भर दिया। उसकी बातें न केवल बड़की बहू के जख्मों पर मरहम लगीं, बल्कि समाज को भी एक संदेश दे गईं कि बेटा-बेटी के बीच भेदभाव करने से मातृत्व की भावना कम नहीं होती।
यह कहानी समाज के उन लोगों के लिए एक सीख है जो संतान के मामले में बेटों और बेटियों में फर्क करते हैं। बड़की बहू और छोटी बहू का यह प्रेम और समझदारी न केवल उनके परिवार को मजबूत बनाती है बल्कि समाज को भी एक नई दिशा देती है।
मौलिक रचना
कविता भड़ाना