“भरोसा” – दुर्गेश खरे

मंगला बड़े मनोयोग से स्टील के डिब्बे में अपने हाथों से बनाए हुए गोंद के लड्डुओं को सजा कर रख रही थी और साथ में अपने पति को चेतावनी भी दे रही थी, “ रामू के बाबू ! गाय के घी का डिब्बा थैले में अभी रख लेना, कहीं सबेरे जल्दी में हम लोग बिसरा न जाएँ “

जब से रामू शहर के इन्जीनियरिंग कालेज में पढ़ने गया है, उसके माता-पिता को सदैव यही चिन्ता रहती है कि छात्रावास में उसे पता नहीं कैसा खाना मिलता है, वह ठीक से खाना खाता है या नहीं?

                  इस बार दशहरे की छुट्टियों में भी जब रामू घर नहीं आया तो मंगला ने ज़िद पकड़ ली कि उसे स्वयं अपने बेटे से मिलने शहर जाना है। मिलने की इच्छा तो रामू के पिता की भी थी ही, अत: दोनों ने सुबह की बस से शहर जाने की तैयारी कर ली। मंगला तो इतनी उत्साहित थी कि उसने अपनी सबसे बढ़िया सूती धोती और अपने पति के लिए धुला हुआ कुर्ता पजामा भी रात को ही निकाल कर रख लिया।

                     अगले दिन भोर में ही जाग कर दोनों तैयार होकर हाथ में साधारण से थैले उठाए हुए पहली बस पकड़ कर शहर पहुँच गए। बस स्टैंड से पैदल चल कर ही दोनों छात्रावास तक पहुँच गए और बरामदे में पड़ी हुई बेंच पर बैठ कर अपने प्यारे रामू से मिलने की प्रतीक्षा करने लगे।

                     थोड़ी देर के बाद जब उन्होंने 



रामू को आते हुए देखा तो वे अत्यतं उत्साहित होकर खड़े हो गए,किन्तु रामू ने उन्हें मात्र हाथ से बैठे रहने का संकेत दिया। रामू ने न तो उनके चरण स्पर्श किये और न ही कोई ख़ुशी का इज़हार किया। रामू अपने साथी से अंग्रेज़ी में बोला,”They are our servants from my village”(“ये हमारे सेवक हैं जो हमारे गाँव से आए हैं”)।

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                     रामू के माता-पिता अंग्रेज़ी भाषा नहीं जानते थे अतः उनको उस वाक्य का अर्थ समझ में नहीं आया। इसके विपरीत रामू के पिता ने प्रसन्न होकर मंगला से कहा,”रामू की अम्मा, तुमने सुना अपना रामू कितनी अच्छी अंग्रेज़ी बोलने लगा है…”

                 मंगला भी अत्यतं प्रसन्न थी कि उसका बेटा पूरे गाँव में उनका नाम रोशन करने वाला है । माता-पिता ने सीमित संसाधनों के होते हुए भी अपने एकमात्र पुत्र को उच्च शिक्षा  प्राप्त करने हेतु व्यवस्था की थी एवं उन्हें पूरा भरोसा था कि इंजीनियर बनने के बाद वह उन दोनों को वह सारी सुख सुविधाएँ प्रदान करेगा जिनसे वे अपनी युवावस्था में वंचित रहे थे।



                    मंगला अपने पति के साथ बेंच पर बैठ कर रामू के आने की प्रतीक्षा करती रही। दोनों पूरे दिन भूखे-प्यासे बैठे रहे। अंधेरा होने लगा किन्तु रामू का कहीं पता नहीं था।

उधर रामू अपने मित्रों के साथ मौज-मस्ती करने के बाद अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गया…वह बार-बार करवट बदलता रहा किन्तु वह सो नहीं पा रहा था।

                 अपने माता-पिता के साथ जो व्यवहार उसने दिन में किया था वह अब स्वयं उसके लिए लज्जित था। उसे बार-बार उनके प्यार-दुलार और कष्टों की याद आ रही थी जो उन्होंने उसे उच्च शिक्षा देने हेतु किए थे।

उसका मन विचलित हो गया और वह दौड़कर बरामदे में जा पहुँचा जहाँ उसके माता-पिता भूखे-प्यासे अभी भी उसकी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे….रामू ने अश्रुपूरित नेत्रों से उनके चरण-स्पर्श किये। 

                      मंगला और उसके पति ने रामू को अपने अंक में भर कर आशीर्वाद दिया।

उनकी आशा निराशा में कभी नहीं बदलेंगी इसका उन्हें आज भरोसा हो गया था।

✍️दुर्गेश खरे✍️

मेरी स्वलिखित एवं अप्रकाशित कहानी✍️

 

दुर्गेश खरे 

मुंबई

 

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