आज मोहल्ले की महिलाएं सुबह से ही किसी गंभीर विषय पर यंत्रणा में लगी हुईं थीं।थोड़ा पास जाने पर पता चला कि,कल शनिवार को हनुमानजी के मंदिर में हमारे ही मोहल्ले के मनीष जी ने भंडारे का आयोजन किया है।महिलाओं में उत्साह अस्वाभाविक नहीं था।एक दिन दोपहर के खाना बनाने से मुक्ति जो मिलेगी।शीतल जी ने अध्यक्ष पद संभालते हुए कहा “समय से काम निपटा लेना सभी।आज ही पार्लर चले चलतें हैं।”
रेखा जी ने मुंह बनाते हुए कहा”एक तो बज ही जाएगा इनके ऑफिस से आते-आते।वैसे भी डेढ़ -दो बजे से पहले कहां खाना शुरू होता है?”
पूजा जी(मनीष की पत्नी)ने कमान संभालते हुए कहा”नहीं-नहीं,हम लोगों ने कुक को पहले ही बोल कर रखा है।देर नहीं होनी चाहिए।”गोवा,दूध, सब्जियां,अनाज तो पहले से ही रखवा दिया है मंदिर में।”
मेरा निर्विकार रहना महिला मंडली को तनिक नहीं भाता था,पर स्वभावगत मैं शांत ही रही।
अगले दिन सुबह से ही मोहल्ले में चहल पहल थी।समूह तय हो रहे थे साथ में जाने को।मैंने भी अपने साथ अपनी बाईं शांति को ले लिया।मंदिर प्रांगण किसी लेडीज़ क्लब की तरह गमगमा रहा था।संकट मोचन हनुमान जी भी आज शायद संकट में थे।पूजा का शोर,भजन -कीर्तन का गान और महिलाओं की अनवरत चलती हुई टिप्पणियां।भगवान जी को भोग लगाने के इंतजार में महिलाओं का मेकअप उतर रहा था।पसीने से कम और भूख से ज्यादा व्याकुल दिख रहीं थीं महिलाएं।
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ख़ैर प्रतीक्षा की घड़ियां खत्म हुईं और आसन बिछने लगे।भोजन की व्यवस्था दो जगहों पर की गई थी। विशिष्ट लोगों के लिए कमरे के अंदर और सामान्य के लिए प्रांगण में। जैसे-जैसे प्रसाद वितरित होने लगा,महिलाओं की प्रतिक्रिया भी आनी शुरू हो गई।”अरे!देखा आपने भाभीजी!पूड़ियां कितनी कड़ीं हैं।मैदा नहीं मिलाया होगा ना आटे के साथ।”सीमा जी बरसी।”और ये सलाद देखा तुम लोगों ने?कल के कटे गाजर और ककड़ी हैं।”उर्मिला जी की विशेष टिप्पणी आई।
“देखिए,अभी तो सब्जियां मिल ही रहीं हैं।पनीले छोले के साथ एक सब्जी तो रख ही सकते थे”। रश्मि जी भी बिफरीं।तनूजा जी ने अवसर को ना जाने देते हुए कहा”हमने तो पहले ही तय कर लिया था मेनू।आखिर होटल में पार्टी देते,तो रखते ना तीन -चार आइटम?हमने तो फुल्की का भी सोचा था,पर आपके भाईसाहब बोले कि भंडारे में नहीं जमेगी फुलकी।आप सभी तो आए थे ना,कितनी नरम-नरम पूड़ियां थीं।मन खोलकर खर्च किया था हमने।या तो मत करो या तो अच्छे से करो भंडारा।”
जैसे ही मैं शांति के साथ बैठने लगी ,पूजा ने आश्चर्य से कहा”भाभी,आप इसे क्यों ले आईं अभी।इन गरीब लोगों के लिए बाद में व्यवस्था होगी।”मेरे कान पहले ही सुन्न हो चुके थे,अब और कुछ सुनने की हिम्मत बची नहीं थी।तो बिना कुछ बोले आंखों से शांति को बैठे रहने का संकेत देकर,बैठ गई।आंखें तब फटी रह गई जब अगर बगल में बैठे दो लोगों के प्रसाद में भेद देखा।शांति को सलाद और पापड़ से वंचित तो रखा ही गया,साथ में पानी का डिस्पोजल ग्लास भी नहीं दिया गया। आत्मा दुख गई ।यह भंडारे का कौन सा रूप है,प्रभु?
तभी अति विशिष्ट अतिथियों का आगमन शुरू हुआ।बिसलेरी की बोतल देखकर माथा ठनका।इससे पहले कि आदतन मुंह से अप्रिय सत्य निकलने लगे,प्रस्थान कर लेना ही हमने उचित समझा।मंदिर से मारुतिनंदन को देखकर लगा, आधुनिकता का यह ढोंग उन्हें भी हजम नहीं हो पा रहा।
मतलब कि पार्टी की पार्टी है गई,भंडारे का भंडारा।भगवान को तो बख़्श देते हम इंसान।
दुखी मन से बाहर निकलने पर एक अलग नज़ारा देखने को मिला।पूजा धार-धार रोए जा रही थी।खाना शायद ख़त्म हो चुका था।गरीब लोग असमय आकर खाने लगे थे(यही कारण बताया उसने) सांत्वना देते हुए हमने समझाया कि भगवान सब निवारण करेंगे।उन्हीं के ऊपर छोड़ दो।पूरा खाना फिर से तो नहीं बन सकता पर पूड़ी-सब्जी तो बन ही सकती है।उस पर मेजबान पूजा की असमर्थता विलाप कर बैठी।”कैसे होगा भाभी?सारे वी आई पी आने बचे हैं अभी।”
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मैं निरुत्तर हो कर आ गई घर।
अभी घर पहुंचे हुए ज्यादा समय भी नहीं हुआ था कि,महिला मंडल की आपातकालीन सभा फिर लगाई जा रही थी।मेरी उपस्थिति अनिवार्य नहीं थी परंतु सभा के एजेंडे को जानना एक महिला का जन्मजात अधिकार होने की वजह से,खिड़की से उनके वार्तालाप को श्रवण करने का मोह नहीं छूटा।”हद ही हो गई आज!मिसेज पाटिल को होटल जाना पड़ा पति और बच्चों के साथ।”नीलिमा जी की प्रथम पहल थी।”और मिसेज जी एम का चेहरा देखा था तुम लोगों ने?कैसा तमतमाया था।पूजा को तो शर्म आनी चाहिए।नहीं थी हैसियत ,तो क्या जरूरत थी भगवान के नाम पर अनर्थ करने की”?सीमा ने प्रत्यक्ष कटाक्ष ही कर दिया।
इससे ज्यादा सुनने की हिम्मत नहीं हुई मेरी।अपने मन में बेटे की नौकरी लगने पर भंडारा करने का जो सपना पाल रही थी,वह ध्वस्त हो चुका था।बेटा बहुत पहले ही असहमति जता चुका था इस भंडारे पर।भगवान का भोग भुक्त लोगों को मिलना चाहिए,यही सनातनी परंपरा है।आज निज स्वार्थ सिद्धि हेतु,भगवान की आस्था का उपहास उड़ाते लोगों को देखकर मन किया कि पूछूं,यह अधिकार किसने दिया उन्हें?पर स्वयं मेरे अधिकार में भी कहां था यह प्रश्न???
आधुनिक भंडारे के आयोजन अब प्रतिष्ठा का प्रमाण बन गए हैं।टैंट, कार्ड,हॉल,आदि बहुत सारे अनावश्यक आडंबर से बचने का सर्वोत्तम सहज उपाय है-“भंडारा”। संकटमोचन ही सभी के संकट टालें।
शुभ्रा बैनर्जी
#मासिक_अप्रैल